ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
प्र यदि॒त्था प॑रा॒वतः॑ शो॒चिर्न मान॒मस्य॑थ । कस्य॒ क्रत्वा॑ मरुतः॒ कस्य॒ वर्प॑सा॒ कं या॑थ॒ कं ह॑ धूतयः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । इ॒त्था । प॒रा॒ऽवतः॑ । शो॒चिः । न । मान॑म् । अस्य॑थ । कस्य॑ । क्रत्वा॑ । मरुतः॑ । कस्य॑ । वर्प॑सा । कम् । या॒थ॒ । कम् । ह॒ । धू॒त॒यः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यदित्था परावतः शोचिर्न मानमस्यथ । कस्य क्रत्वा मरुतः कस्य वर्पसा कं याथ कं ह धूतयः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । इत्था । परावतः । शोचिः । न । मानम् । अस्यथ । कस्य । क्रत्वा । मरुतः । कस्य । वर्पसा । कम् । याथ । कम् । ह । धूतयः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) ये (इत्था) अस्माद्धेतोः (परावतः) दूरात् (शोचिः) सूर्यज्योतिः पृथिव्याम् (न) इव (मानम्) यत्परिमाणम् (अस्यथ) प्रक्षिपत (कस्य) सुखस्वरूपस्य परमात्मनः (क्रत्वा) क्रतुना कर्मणा ज्ञानेन वा। अत्र जसादिषु छन्दसि वा वचनम्# इति नादेशाभावः। (मरुतः) विद्वांसः (कस्य) सुखदातुर्भाग्यशालिनः (वर्पसा) रूपेण। वर्प इति रूपनामसु पठितम् निघं० ३।७। (कम्) सुखप्रदं देशम् (याथ) प्राप्नुत (कम्) सुखहेतुं पदार्थम् (ह) खलु (धूतयः) ये धून्वन्ति ते। क्तिच् क्तौ च संज्ञायाम्। ३।३।१७४। इति क्तिच् ॥१॥ #[अ० ७।३।१०९। सूत्रस्थ वार्तिकेन। सं०]
अन्वयः
पुनस्ते विद्वांसः कथं-२ संवदन्त इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे मरुतो यूयं यद्ये धूतयो वायव इव शोचिर्न परावतः कस्य मानमस्यथ। इत्था ह कस्य क्रत्वा वर्पसा च कं याथचेति समाधानानि ब्रूत ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सुखमभीप्सुभिर्विद्वद्भिर्जनैर्यथा सूर्यस्य रश्मयो दूरदेशाद्भूमिं प्राप्य पदार्थान् प्रकाशयन्ति तथैव सर्वसुखदातुः परमात्मनो भाग्यशालिनः परभविदुषश्च सकाशाद्वायोगुणकर्मस्वभावान्याथातथ्यतो विज्ञाय तेष्वेव रमणीयं वायवः कारणमानं कारणस्वरूपेण यान्तीति विजानी ॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उनतालिसवें सूक्त का आरंभ है। फिर वे विद्वान् लोग परस्पर किस-२ प्रकार संवाद करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (मरुतः) विद्वान् लोगो ! आप (यत्) जो (धूतयः) सबको कंपानेवाले वायु (शोचिर्न) जैसे सूर्य की ज्योति और वायु पृथिवी पर दूर से गिरते हैं इस प्रकार (परावतः) दूर से (कस्य) किसके (मानम्) परिमाण को (अस्यथ) छोड देते (इत्था) इसी हेतु से (कस्य) सुखस्वरूप परमात्मा के (क्रत्वा) कर्म वा ज्ञान और (वर्पसा) रूप के साथ (कम्) सुखदायक देश को (याथ) प्राप्त होते हो इन प्रश्नों के उत्तर दीजिये ॥१॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। सुख की इच्छा करनेवाले विद्वान् पुरुषों को चाहिये कि जैसे सूर्य की किरणें दूर देश से भूमि को प्राप्त होकर पदार्थों को प्रकाश करती हैं वैसे ही अभिमान को दूर से त्याग के सब सुख देनेवाले परमात्मा और भाग्यशाली परमविद्वान्* के गुण, कर्म, स्वभाव और मार्ग को ठीक-२ जानके उन्हीमें रमण करें ये वायु कारण से आते कारणस्वरूप से स्थित और कारण में लीन भी हो जाते हैं ॥१॥ *संस्कृत भाष्य के अनुसार-परम विद्वान् से वायु के। सं०
विषय
अब उनतालिसवें सूक्त का आरंभ है। फिर वे विद्वान् लोग परस्पर किस-किस प्रकार संवाद करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मरुतः यूयं यत् ये धूतयः वायवः इव शोचिः न परावतः कस्य मानम् अमस्यथ। इत्था ह कस्य क्रत्वा वर्पसा च कं याथ च इति समाधानानि ब्रूत ॥१॥
पदार्थ
हे (मरुतः)=विद्वान् लोगो! (यूयम्)=तुम सब, (यत्) ये=जो, (धूतयः) ये धून्वन्ति ते=कम्पाते हैं, वे (वायवः)= वायु, (इव)=के समान, (शोचिः) सूर्यज्योतिः पृथिव्याम्=सूर्य की रश्मियां पृथिवी पर पड़ती है, (न) इव=ऐसे ही, (परावतः) दूरात्=दूर से, (कस्य) सुखस्वरूपस्य परमात्मनः= सुखस्वरूप परमात्मा की, (मानम्) यत्परिमाणम्=जो सामर्थ्य रूपी परिधि है, उसे (अस्यथ) प्रक्षिपत=छोड़ देते हैं, (इत्था) अस्माद्धेतोः=इसी कारण से, (ह) खलु=निश्चित रूप से, (कस्य) सुखस्वरूपस्य परमात्मनः=सुखस्वरूप परमात्मा के, (क्रत्वा) क्रतुना कर्मणा ज्ञानेन वा=कर्मों या ज्ञान, (वर्पसा) रूपेण=रूप के साथ, (च)=भी, (कम्) सुखप्रदं देशम्=सुख प्रदान करनेवाले स्थान में, (याथ) प्राप्नुत=पहुँचते हो, (च)=और, (इति)=ऐसे, (समाधानानि)=समाधान, (ब्रूत)=बोलो ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। सुख की इच्छा करनेवाले विद्वान् पुरुषों को चाहिये कि जैसे सूर्य की किरणें दूर देश से भूमि को प्राप्त होकर पदार्थों को प्रकाश करती हैं वैसे ही अभिमान को दूर से त्याग के सब सुख देनेवाले परमात्मा और भाग्यशाली परमविद्वान्* के गुण, कर्म, स्वभाव और मार्ग को ठीक-ठीक जानके उन्हीमें रमण करें ये वायु कारण से आते कारणस्वरूप से स्थित और कारण में लीन भी हो जाते हैं ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मरुतः) विद्वान् लोगो! (यूयम्) तुम सब (यत्) जो (धूतयः) कम्पाते हैं, और (वायवः) वायु (इव) के समान (शोचिः) सूर्य की रश्मियां पृथिवी पर फेंकते हैं, (न) ऐसे ही (परावतः) दूर से [कार्य करनेवाले] (कस्य) सुखस्वरूप परमात्मा का, (मानम्) [की जो सामर्थ्य रूपी] परिधि है, उस पर (अस्यथ) छोड़ देते हैं, अर्थात् परमात्मा के सामर्थ्य से विस्तारित कर देते है । (इत्था) इसी कारण से (ह) निश्चित रूप से (कस्य) सुखस्वरूप परमात्मा के (क्रत्वा) कर्मों या ज्ञान (वर्पसा) रूपी सामर्थ्य के साथ (च) भी (कम्) सुख प्रदान करनेवाले [स्थान में] (याथ) पहुँच जाते हो (च) और (इति) ऐसे ही (समाधानानि) समाधानों [के बारे में] (ब्रूत) बोलो ॥१॥
संस्कृत भाग
पृथिव्याम् (न) इव (मानम्) यत्परिमाणम् (अस्यथ) प्रक्षिपत (कस्य) सुखस्वरूपस्य परमात्मनः (क्रत्वा) क्रतुना कर्मणा ज्ञानेन वा। अत्र जसादिषु छन्दसि वा वचनम्# इति नादेशाभावः। (मरुतः) विद्वांसः (कस्य) सुखदातुर्भाग्यशालिनः (वर्पसा) रूपेण। वर्प इति रूपनामसु पठितम् निघं० ३।७। (कम्) सुखप्रदं देशम् (याथ) प्राप्नुत (कम्) सुखहेतुं पदार्थम् (ह) खलु (धूतयः) ये धून्वन्ति ते। क्तिच् क्तौ च संज्ञायाम्। ३।३।१७४। इति क्तिच् ॥१॥ #[अ० ७।३।१०९। सूत्रस्थ वार्तिकेन। सं०]
विषयः- पुनस्ते विद्वांसः कथं-कथं संवदन्त इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे मरुतो यूयं यद्ये धूतयो वायव इव शोचिर्न परावतः कस्य मानमस्यथ। इत्था ह कस्य क्रत्वा वर्पसा च कं याथचेति समाधानानि ब्रूत ॥१॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सुखमभीप्सुभिर्विद्वद्भिर्जनैर्यथा सूर्यस्य रश्मयो दूरदेशाद्भूमिं प्राप्य पदार्थान् प्रकाशयन्ति तथैव सर्वसुखदातुः परमात्मनो भाग्यशालिनः परभविदुषश्च सकाशाद्वायोगुणकर्मस्वभावान्याथातथ्यतो विज्ञाय तेष्वेव रमणीयं वायवः कारणमानं कारणस्वरूपेण यान्तीति विजानी ॥१॥
विषय
प्रभु - स्मरणपूर्वक संग्राम
पदार्थ
१. प्रस्तुत सूक्त भी मरुतों का है । इस सूक्त में मुख्यरूप से देश की शत्रुओं के आक्रमण से रक्षा करनेवाले उन मरुतों का उल्लेख है जोकि रणाङ्गण में ही 'म्रियन्ते' मर जाएँ, परन्तु कायरता से भाग नहीं खड़े हों । इनको कहते हैं - हे (मरुतः) - सैनिको ! (यत्) - जब (इत्था) - सचमुच (परावतः) - दूर देश से (शोचिः न) - सूर्यकिरणों की भाँति (मानम्) - मननीय, विचारपूर्वक बनाये गये शस्त्रास्त्रसमूह को (प्र+अस्यथ) - प्रकर्षेण शत्रु - सैन्य पर फेंकते हो तो वस्तुतः (कस्य क्रत्वा) - उस आनन्दमय प्रभु के संकल्प कर्म व प्रज्ञान के साथ (कस्य वर्पसा) - उस आनन्दमय प्रभु के बल के साथ ही तुम ऐसा कर पाते हो, अर्थात् प्रभु का स्मरण होने पर तथा प्रभु की शक्ति से शक्ति - सम्पन्न होने पर ही निर्भीकता से ये वीर देशरक्षा के लिए संग्राम कर पाते हैं ।
२. यहाँ युद्ध में प्रभुस्मरण का यह भी महान् लाभ है कि हम अन्याय्य युद्धों में प्रवृत्त न होंगे । यहाँ 'शोचिः न' सूर्य की किरणों के समान, यह उपमा भी ध्यान देने योग्य है । सूर्यकिरणें बुराई व दुर्गन्ध को समाप्त करती हैं, इसी प्रकार इन मरुतों ने भी अवाञ्छनीय तत्त्वों को ही समाप्त करना है । शस्त्रों को यहाँ 'मानम्' - 'मननीय - विचारपूर्वक बनाये गये' - ऐसा कहा है । वस्तुतः जब अस्त्रों का निर्माण अन्धाधुन्ध होने लगता है तब वे भय की - शान्ति के स्थान में भय की वृद्धि का कारण बन जाते हैं ।
३. ये विचारपूर्वक बनाये गये अस्त्रों को फेंकनेवाले सैनिक युद्ध में मृत्यु होने पर (कम्) - उस आनन्दमय प्रभु को (याथ) - प्राप्त होते हैं और (ह) - निश्चय से (कम्) - उस प्रभु को ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि (धूतयः) - ये शत्रुओं को कम्पित करनेवाले हैं और अपने मलों को भी कम्पित कर दूर करनेवाले हैं । ये वीर अवश्य उस प्रभु को पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - देश की रक्षा के लिए वीर सैनिक विचारपूर्वक अस्त्रों का प्रयोग करते हैं । प्रभु की भावना को हृदय में लेकर प्रभु की शक्ति से शक्ति - सम्पन्न होकर ये शत्रुओं को कम्पित करते हैं और प्रभु को पाते हैं ।
विषय
मरुद् गण, वायुओं, प्राणों, विद्वानों का समान रूप से वर्णन ।
भावार्थ
हे (मरुतः) विद्वानो! एवं वायु के समान तीव्र वेग वाले बलवान् वीर सैनिको! एवं व्यापारकुशल पुरुषो! (शोचिनः) जिस प्रकार सूर्य दूर देश से अपने तेज को फेंकता है उसी प्रकार (परावतः) दूर दूर के देश से भी आकर तुम (यत् इत्था) जो इस प्रकार (मानम्) प्रजा और शत्रुजन को स्तब्ध या चकित कर देने वाले बल या शस्त्रास्त्रसमूह को (अस्यथ) फेंकते हो तो बतलाओ वह (कस्य) किसके क्रिया-सामर्थ्य से और (कस्य वर्पसा) किसके भौतिक बल से फेंकते हो। और तुम लोग जो वायु के समान तीव्र वेग से जा रहे हो तो (कं याथ) किसको लक्ष्य करके जाते हो। और हे (धूतयः) वृक्षों को वायु के समान शत्रुओं को कंपाने वाले आप लोग (कं ह) भला किसको लक्ष्य करके जाते हैं। परमेश्वर और आत्मा के पक्ष में—(मरुतः) ये तीव्र वेग से जानेवाले वायुगण अधिक परिमाण वाले जलादि को और पृथिवी आदि लोक दूर से तेज को किसके ज्ञान, बल और क्रियाशक्ति से फेंकते हैं। और कहाँ चले जा रहे हैं। इनका लक्ष्य क्या है। उत्तर—(कस्य क्रत्वा, कस्य वर्पसा) उसके सबके कर्त्ता प्रजापति परमेश्वर के ज्ञान और क्रिया सामर्थ्य तथा बल से ही प्रेरित होकर ये सब तेज, जल आदि बरसाते और गति करते हैं उसी को लक्ष्य कर जा रहे हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ५, ९ पथ्याबृहती ॥ २, ७ उपरिष्टाद्विराड् बृहती। २, ८, १० विराट् सतः पंक्तिः । ४, ६ निचृत्सतः पंक्तिः । ३ अनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वायू व विद्वानांचे गुणवर्णन केल्यामुळे पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी सूर्याची किरणे दूरच्या स्थानाहून भूमीवर पडतात व पदार्थांना प्रकाशित करतात तसेच सुखाची इच्छा करणाऱ्या विद्वान पुरुषांनी अभिमान सोडून सर्व सुख देणाऱ्या परमेश्वराला व भाग्यवान परम विद्वानाच्या गुण, कर्म, स्वभावाला व मार्गाला ठीक ठीक जाणून त्यातच रमण करावे. वायू कारणामुळे निर्माण होऊन कारणस्वरूपात स्थित होऊन कारणातच लीन होतात. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, heroes of light and power, movers and shakers, just as the sun radiates its rays of light from afar, so by whose idea and purpose is it that you thus strike your light and weapons far off? By whose thought and action? By whose energy, strength and power? Who do you wish to reach? Who do you want to shake?
Subject of the mantra
Now is the beginning of the thirty-ninth hymn. How those learned people should communicate with each other, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (marutaḥ) =scholars! (yūyam)=all of you, (yat)=who, (dhūtayaḥ)=make others tremble, and (vāyavaḥ)=air, (iva)=like, (śociḥ)= throw on the earth Sun's rays, (na)==in the same way, (parāvataḥ)=from far, [kārya karanevāle]=workers, (kasya)=of the God who is blissfull, (mānam)= is the perimeter, on that, [kī jo sāmarthya rūpī]= that which is capable of, (asyatha)=leave, means expand by the power of God, (itthā)=for this reason, (ha)=definitely, (kasya)=of the God who is blissfull, (kratvā)=deeds or knowledge, (varpasā)= with like the power, (ca)=also, (kam)=givers of pleasure, [sthāna meṃ]=in the place, (yātha)=reach, (ca)=and, (iti)=in the same way, (samādhānāni)=solutions, [ke bāre meṃ]=about the, (brūta)=speak.
English Translation (K.K.V.)
O learned people! All of you, who make others tremble and throw the Sun's rays on the earth like the wind, in the same way, those who work from a distance, leave the periphery of God's power in the form of happiness, that is, expand it with the power of God. For this reason, you definitely reach the place that gives happiness even with the deeds of God in the form of happiness or with the power of knowledge and speak about such solutions.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Scholars desirous of happiness should, just as the rays of the Sun reach the earth from a distant place and illuminate the objects, in the same way, abandoning pride from afar, the God who gives all happiness and fortunate supreme scholar's virtues, deeds, nature and Knowing the path properly, feel delighted in it. These airs coming for purpose are placed due to the reason and also get absorbed in elementary matter.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How do those learned persons converse is taught in the 1st Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons who are like air, shakers (of all ignorance) as the sun's rays descend from long distance on earth, so whose pride do you throw away by your vast learning? It is by the knowledge and prompting action of God, Who is the source of all happiness and the pleasing form or manners of a lucky person who is giver of delight, that you go to a happy place and obtain objects that cause happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( परावतः ) दूरात् = From a distant place; [ शोचिः ] सूर्यज्योतिः पृथिव्याम् इव = As the light of the sun descending on earth. ( कस्य) सुखस्वरूपस्य परमात्मनः = Of God the Embodiment of all Delight. ( मरुतः) विद्वांसः = Learned persons. ( कम्) सुखप्रददेशम् = Place that gives happiness. (धूतयः) ये धुन्वन्ति ते । क्तितौ च संज्ञायाम् ( अष्टा० ३. ३.१७४) इति क्तिच् = Shakers.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those learned persons who desire happiness, should accurately know the properties of the air from God, The giver of all Delight (as given in the Vedas) and lucky great scholars or scientists, and then should enjoy happiness.
Translator's Notes
परावत इति दूरनामधेयम् ( निघ० ३, २६ ) कम् इति सुखनाम [ निघ० ३.६]
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