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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृ॒ह॒तीइ॑व सू॒नवे॒ रोद॑सी॒ गिरो॒ होता॑ मनु॒ष्यो॒३॒॑ न दक्षः॑। स्व॑र्वते स॒त्यशु॑ष्माय पू॒र्वीर्वै॑श्वान॒राय॒ नृत॑माय य॒ह्वीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒ह॒तीइ॒वेति॑ बृह॒तीऽइ॑व । सू॒नवे॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । गिरः॑ । होता॑ । म॒नु॒ष्यः॑ । न । दक्षः॑ । स्वः॑ऽवते । स॒त्यऽशु॑ष्माय । पू॒र्वीः । वै॒श्वा॒न॒राय॑ । नृऽत॑माय । य॒ह्वीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहतीइव सूनवे रोदसी गिरो होता मनुष्यो३ न दक्षः। स्वर्वते सत्यशुष्माय पूर्वीर्वैश्वानराय नृतमाय यह्वीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहतीइवेति बृहतीऽइव। सूनवे। रोदसी इति। गिरः। होता। मनुष्यः। न। दक्षः। स्वःऽवते। सत्यऽशुष्माय। पूर्वीः। वैश्वानराय। नृऽतमाय। यह्वीः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 59; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ नरोत्तमगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    यथा सूनवे बृहती इव रोदसी दक्षो मनुष्यः पिता न विद्वान् पुरुष इव होतेश्वरे सभाध्यक्षे वा प्रीतो भवति यथा विद्वांसोऽस्मै स्वर्वते सत्यशुष्माय नृतमाय वैश्वानराय पूर्वीर्यह्वीर्गिरो वेदवाणीर्दधिरे तथैव तस्मिन् सर्वैर्मनुष्यैर्वर्त्तितव्यम् ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (बृहतीइव) यथा महागुणयुक्ता पूज्या माता (सूनवे) पुत्राय (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (गिरः) वाणीः (होता) दाता ग्रहीता (मनुष्यः) मानवः (न) इव (दक्षः) चतुरः (स्वर्वते) प्रशस्तं स्वः सुखं वर्त्तते यस्मिँस्तस्मै (सत्यशुष्माय) सत्यं शुष्मं यस्य तस्मै (पूर्वीः) पुरातनीः (वैश्वानराय) परब्रह्मोपासकाय (नृतमाय) अतिशयेन ना तस्मै (यह्वीः) महतीः। यह्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) अस्माद् बह्वादिभ्यश्चान्तर्गत्वात् ङीष् (अष्टा०४.१.४५) ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा भूमिसूर्यप्रकाशौ धृत्वा सुखयतो यथा पिताऽध्यापको वा पुत्रशिष्ययोर्हिताय प्रवर्त्तते, यथेश्वरः प्रजासुखाय प्रवर्तते, तथैव सभाध्यक्षः प्रयतेतेति सर्वा वेदवाण्यः प्रतिपादयन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में पुरुषोत्तम के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    जैसे (सूनवे) पुत्र के लिये (बृहतीइव) महागुणयुक्त माता वर्त्तती है, जैसे (रोदसी) प्रकाश भूमि और (दक्षः) चतुर (मनुष्यः) पढ़ानेहारे विद्वान् मनुष्य पिता के (न) समान (होता) देने-लेनेवाला विद्वान् ईश्वर वा सभापति विद्वान् में प्रसन्न होता है, जैसे विद्वान् लोग इस (स्वर्वते) प्रशंसनीय सुख वर्त्तमान (सत्यशुष्माय) सत्यबलयुक्त (नृतमाय) पुरुषों में उत्तम (वैश्वानराय) परमेश्वर के लिये (पूर्वीः) सनातन (यह्वीः) महागुण लक्षणयुक्त (गिरः) वेदवाणियों को (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे ही परमेश्वर के उपासक सभाध्यक्ष में सब मनुष्यों को वर्त्तना चाहिये ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे भूमि वा सूर्यप्रकाश सबको धारण करके सुखी करते हैं, जैसे पिता वा अध्यापक पुत्र के हित के लिये प्रवृत्त होता है, जैसे परमेश्वर प्रजासुख के वास्ते वर्तता है, वैसे सभापति प्रजा के अर्थ वर्ते, इस प्रकार सब देववाणियाँ प्रतिपादन करती हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    पूर्वी - यह्वी - [गीः] गिराएँ

    पदार्थ

    १. 'सूयते' इस व्युत्पत्ति से 'सूनु' का अर्थ पुत्र है तो 'सूते' इस व्युत्पत्ति से 'सूनु' शब्द जन्म देनेवाले पिता का वाचक हो जाता है । प्रभु द्युलोक व पृथिवीलोक के जन्म देनेवाले 'मनु' हैं अथवा द्युलोक व पृथिवीलोक प्रभु की महिमा को प्रकट करते हैं, अतः प्रभु इनका सूनु हो जाता है । मन्त्र में कहते हैं कि (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (सूनवे) = अपने जन्मदाता वैश्वानर के अवस्थान के लिए (बृहती इव) = बढ़े हुए - से हैं । अनन्त विस्तृत प्रतीयमान इन द्यावापृथिवी में प्रभु की स्थिति है । वस्तुतः अपने अवस्थान से प्रभु ही इनको विभूति प्राप्त करा रहे हैं । ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विभूति व श्री का अंश उस प्रभु की सत्ता के कारण ही है । २. (दक्षः) = कार्य करने में कुशल, होता दानपूर्वक अदन करनेवाला (मनुष्यः न) = एक विचारशील पुरुष की भांति (पूर्वीः) = हमारे जीवनों का पूरण करनेवाली (यहीः) = महान, अर्थपूर्ण (गिरः) = वाणियों को उस प्रभु की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त करता है जोकि (स्वर्वते) = प्रकाशवाले हैं, (सत्यशुष्माय) = सत्य के बलवाले व सत्य पराक्रमवाले हैं तथा (नृतमाय) = सर्वोत्तम नेतृत्व करनेवाले हैं । ३. प्रभुस्तवन का लाभ यह होता है कि हम भी “स्वान्, सत्यशुष्म व नृतम" बनेंगे । प्रभु की प्राप्ति के लिए वेद - वाणियों का, ज्ञान की वाणियों का प्रयोग अपेक्षित है । ये ज्ञान की वाणियाँ 'पूर्वी व यही' है - हमारा पूरण करनेवाली व अर्थ के दृष्टिकोण से महान्, अर्थात् प्रचुर अर्थवाली हैं । इनका अध्ययन 'दक्ष, होता व विचारशील' पुरुष ही कर पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ये द्युलोक व पृथिवीलोक तो प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर ही रहे हैं । हम वेद - वाणियों का भी अध्ययन करें जोकि हमारे जीवनों का पूरण करती हैं तथा अर्थ - गौरव से पूर्ण हैं ।

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    विषय

    अग्नि, वैश्वानर नाम से अग्नि विद्युत् या सूर्य के दृष्टान्त से अग्रणी नायक, सेनापति और राजा के कर्तव्यों और परमेश्वर की महिमा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( रोदसी) माता और पिता दोनों जिस प्रकार ( सूनवे ) अपने पुत्र के लिए (बृहती) बड़े उपकारक और उसकी वृद्धि करने वाले होते हैं इसी प्रकार (रोदसी) सूर्य और पृथिवी या आकाश और पृथिवी दोनों ही ( सूनवे ) अपने उत्पादक परमेश्वर के लिए (बृहती) बड़ी विशाल होकर विद्यमान हैं। वे दोनों ही उस परमेश्वर की विशाल महिमा को बतलाते हैं । ( मनुष्य नः ) जिस प्रकार साधारण मनुष्य ( नृतमाय ) पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर के लिए (यह्वीः) बड़ी स्तुतियां गाता है उसी प्रकार ( होता ) ज्ञानी विद्वान् ( दक्षः ) चतुर, क्रियाकुशल पुरुष भी (स्वर्वते) अनन्त सुख और आकाश और प्रकाश के स्वामी (सत्यशुष्माय) सत्य के बल से बलवान्, अथवा समस्त सत् पदार्थों में बलरूप से विद्यमान, (वैश्वानराय) समस्त पदार्थों के संचालक, सबके हितकारी, ( नृतमाय ) नायक, गुरु, आचार्य, राजा आदि में सबसे श्रेष्ठ, पुरुषोत्तम के वर्णन और उपासना के लिए (पूर्वीः) पूर्ण रूप से उसका वर्णन करनेवाली (यह्वीः) बड़ी भारी, विशद अर्थों से युक्त ( गिरः ) वेदवाणियों का पाठ करे । उन वेद-वाणियों से परमेश्वर की स्तुति करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-७ नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५-७ त्रिष्टुप् । ३ पंक्तिः ।

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    विषय

    अब इस मन्त्र में पुरुषोत्तम के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा सूनवे बृहतीइव रोदसी दक्षः मनुष्यः पिता न विद्वान् पुरुष इव होता ईश्वरे सभाध्यक्षे वा प्रीतः भवति यथा विद्वांसः अस्मै स्वर्वते सत्यशुष्माय नृतमाय वैश्वानराय पूर्वीः यह्वीः गिरः वेदवाणीः दधिरे तथा एव तस्मिन् सर्वैः मनुष्यैः वर्त्तितव्यम् ॥४॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (सूनवे) पुत्राय=पुत्र के लिये, (बृहतीइव) यथा महागुणयुक्ता पूज्या माता= महा गुणों से युक्त पूज्य माता, (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ= द्यावा पृथिवी, (दक्षः) चतुरः= चतुर, (मनुष्यः) मानवः=मनुष्य, (पिता) पिता के, (न) इव =समान, (विद्वान्)= विद्वान्, (पुरुषः)= पुरुष के, (इव)=समान, (होता) दाता ग्रहीता=देने और लेने वाला, (ईश्वरे)= ईश्वर मे, (वा)=या, (सभाध्यक्षे)= सभाध्यक्ष में, (प्रीतः)= प्रीति, (भवति)=होती है, (यथा)=जैसे, (विद्वांसः)=विद्वान्, (अस्मै)=इसके लिये, (स्वर्वते) प्रशस्तं स्वः सुखं वर्त्तते यस्मिँस्तस्मै=अपने प्रशस्त सुखवाले, (सत्यशुष्माय) सत्यं शुष्मं यस्य तस्मै= पराक्रम वाले, (नृतमाय) अतिशयेन ना तस्मै=जिसमें अतिशय न हो, उस (वैश्वानराय) परब्रह्मोपासकाय=ईश्वर के उपासक के लिये, (पूर्वीः) पुरातनीः= पुरातन, (यह्वीः) महतीः= सर्वोत्तम, (गिरः) वाणीः=वाणी, (वेदवाणीः)= वेद की वाणी को, (दधिरे)=धारण करो। (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (तस्मिन्)=उसमें, (सर्वैः)=सब, (मनुष्यैः)=मनुष्यों के द्वारा, (वर्त्तितव्यम्)=व्यवहार किया जाना चाहिए ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे भूमि और सूर्यप्रकाश धारण करके सुखी करते हैं, जैसे पिता और अध्यापक पुत्र व शिष्य के हित के लिये व्यवहार करते हैं, जैसे परमेश्वर प्रजा के सुख के लिये व्यवहार करता है, वैसे ही सभाध्यक्ष प्रयत्न करता है कि सब वेद वाणियां इसका प्रतिपादन करती हैं ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे (सूनवे) पुत्र के लिये (बृहतीइव) महा गुणों वाली पूज्य माता (रोदसी) द्यावा और पृथिवी, (दक्षः) चतुर (मनुष्यः) मनुष्य और (पिता) पिता के (न) समान और (विद्वान्) विद्वान् (पुरुषः) पुरुष के (इव) समान (होता) देने और लेने वाली है। (ईश्वरे) ईश्वर (वा) या (सभाध्यक्षे) सभाध्यक्ष में (प्रीतः) प्रीति (भवति) होती है। (यथा) जैसे (विद्वांसः) विद्वान् (अस्मै) इसके लिये (स्वर्वते) अपने प्रशस्त सुखवाले, (सत्यशुष्माय) पराक्रम वाले, (नृतमाय) जिसमें अतिशय से रूप से न हों, उस (वैश्वानराय) ईश्वर के उपासक के लिये (पूर्वीः) पुरातन और (यह्वीः) सर्वोत्तम (गिरः) वाणी, (वेदवाणीः) वेद की वाणी है, उसको (दधिरे) धारण करो। (तथा) वैसे (एव) ही (तस्मिन्) उस [वाणी में] (सर्वैः) सब (मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा (वर्त्तितव्यम्) व्यवहार किया जाना चाहिए ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (बृहतीइव) यथा महागुणयुक्ता पूज्या माता (सूनवे) पुत्राय (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (गिरः) वाणीः (होता) दाता ग्रहीता (मनुष्यः) मानवः (न) इव (दक्षः) चतुरः (स्वर्वते) प्रशस्तं स्वः सुखं वर्त्तते यस्मिँस्तस्मै (सत्यशुष्माय) सत्यं शुष्मं यस्य तस्मै (पूर्वीः) पुरातनीः (वैश्वानराय) परब्रह्मोपासकाय (नृतमाय) अतिशयेन ना तस्मै (यह्वीः) महतीः। यह्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) अस्माद् बह्वादिभ्यश्चान्तर्गत्वात् ङीष् (अष्टा०४.१.४५) ॥४॥ विषयः- अथ नरोत्तमगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- यथा सूनवे बृहती इव रोदसी दक्षो मनुष्यः पिता न विद्वान् पुरुष इव होतेश्वरे सभाध्यक्षे वा प्रीतो भवति यथा विद्वांसोऽस्मै स्वर्वते सत्यशुष्माय नृतमाय वैश्वानराय पूर्वीर्यह्वीर्गिरो वेदवाणीर्दधिरे तथैव तस्मिन् सर्वैर्मनुष्यैर्वर्त्तितव्यम् ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा भूमिसूर्यप्रकाशौ धृत्वा सुखयतो यथा पिताऽध्यापको वा पुत्रशिष्ययोर्हिताय प्रवर्त्तते, यथेश्वरः प्रजासुखाय प्रवर्तते, तथैव सभाध्यक्षः प्रयतेतेति सर्वा वेदवाण्यः प्रतिपादयन्ति ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे भूमी व सूर्यप्रकाश सर्वांना धारण करून सुखी करतात, पिता व अध्यापक पुत्राच्या हितासाठी प्रवृत्त होतात; परमेश्वर प्रजेच्या सुखासाठी वागतो; तसे सभापतीने प्रजेबरोबर वागावे. अशा प्रकारचे सर्व वेदवाणींचे प्रतिपादन आहे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as the wide and expansive heaven and earth honour and serve the sun, source of light and inspiration, so should the hota, the yajaka, like an expert man of yajna, offer great, eternal and divine hymns of praise in honour of Vaishvanara, life universal, self-existent, ever truly powerful and the best friend of humanity.

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    Subject of the mantra

    Now in this mantra the qualities of superior man have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā) =For example, (sūnave) =for the son, (bṛhatīiva)= revered mother with great qualities, (rodasī) = heaven and earth, (dakṣaḥ)=clever, (manuṣyaḥ) =human and, (pitā) =of father, (na) =like and, (vidvān) =scholar, (puruṣaḥ) =man's (iva) =like, (hotā)=there is one who gives and takes, (īśvare) =in God, (vā) =or, (sabhādhyakṣe) =in President of the Assembly, (prītaḥ) =love, (bhavati) =happens, (yathā) =like, (vidvāṃsaḥ) =scholar, (asmai) =for this, (svarvate)=with own abundant happiness, (satyaśuṣmāya)=brave ones, (nṛtamāya)= In which there is no excessive, that (vaiśvānarāya)= for the worshiper of God, (pūrvīḥ)=ancient and, (yahvīḥ) =excellent, (giraḥ) =speech, (vedavāṇīḥ) =is speech of Vedas,and =to that, (dadhire) =adopt, (tathā) =in the same way, (eva) =only, (tasmin) =in that, [vāṇī meṃ]=in speech, (sarvaiḥ) =all, (manuṣyaiḥ) =by humans, (varttitavyam)= should be treated.

    English Translation (K.K.V.)

    For example, for the son, the revered heaven and mother earth, having great qualities, is a clever person and is like a father and giver and taker like a learned man. There is love for God or the President of the Assembly. Just as the scholars do, for the worshiper of that God who is blessed with immense happiness and bravery, in whom there is no excessive suffering, the ancient and best speech, the speech of the Vedas, adopt it. In the same way, all human beings should be treated in that speech.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are paronomasia and simile as figurative in this mantra. Just, as the land and Sunlight make one happy, just as the father and the teacher behave for the welfare of the son and the disciple, just as God behaves for the happiness of the people, in the same way the Chairman of the Assembly i.e. God tries to accomplish that in all speeches of Vedas.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of the best among men are taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As a virtuous respectable mother loves her child, as a dexterous father loving his son makes proper use of the heaven and the earth and a man of charitable and devout disposition loves God or the worthy President of the Assembly and as learned persons lay the grand and eternal Vedic teachings before a true worshipper of God who is the best among the leaders of men and who possesses genuine strength (or whose power is truth), in the same manner, you should also properly deal with him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (बृहती इव) यथा महागुणयुक्ता पूज्या माता = Like a virtuous venerable mother. (यह्वीः) महती: यह्व इति महन्नाम ( निघ० ३.३ ) अस्मात् बह्वदिभ्यश्चान्तर्गतत्वान ङीष् = Great or gran. ( वैश्वानराय) परब्रह्मोपासकाय = for the true worshipper or devotee of God. विश्वान् जनान् नयतीति विश्वानरः परमात्मा तस्य भक्तः वैश्वानरः ॥

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the earth and the light of the sun make all happy by upholding them, as the parents or teachers always try to bring about the welfare of their children or pupils, as God is always engaged in doing good to His subjects, in the same way, the President of the Assembly should endeavor to do good to all is what the Vedas teach.

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