ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 153/ मन्त्र 1
ऋषिः - इन्द्रमातरो देवजामयः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ई॒ङ्खय॑न्तीरप॒स्युव॒ इन्द्रं॑ जा॒तमुपा॑सते । भे॒जा॒नास॑: सु॒वीर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठई॒ङ्खय॑न्तीः । अ॒प॒स्युवः॑ । इन्द्र॑म् । जा॒तम् । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । भे॒जा॒नासः॑ । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईङ्खयन्तीरपस्युव इन्द्रं जातमुपासते । भेजानास: सुवीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठईङ्खयन्तीः । अपस्युवः । इन्द्रम् । जातम् । उप । आसते । भेजानासः । सुऽवीर्यम् ॥ १०.१५३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 153; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा सब बलों का अध्यक्ष द्युलोक का विकासकर्ता, एवं राजा बलों का अध्यक्ष, प्रजाओं का विकासकर्ता होना चाहिए आदि विषय हैं।
पदार्थ
(इन्द्रम्) परमात्मा या राजा (सुवीर्यम्) शोभनबलयुक्त (जातम्) प्रसिद्ध हुए को (ईङ्खयन्तीः) प्रेरित करती हुई (अपस्युवः) अपने कर्म को चाहती हुई-कर्तव्यपरायण हुई (भेजानासः) भजमान-सेवन करती हुई मानवप्रजा (उप आसते) उपाश्रित करती हैं-उसका आश्रय लेती हैं ॥१॥
भावार्थ
स्वयंसिद्ध शोभन बलवाले परमात्मा को कर्तव्यकर्मपरायण उपासक प्रजाएँ कर्म का शुभ फल मिले, ऐसी प्रेरणा करती हुई परमात्मा का आश्रय लेती हैं एवं राजसूययज्ञ में प्रसिद्ध हुए बलवान् राजा को सुख फल देने की प्रेरणा करती हुई उसे आश्रित करती हैं-उसका आश्रय लेती हैं ॥१॥
विषय
'स्तुति - क्रिया-संयम'
पदार्थ
[१] (ईङ्खयन्ती:) = स्तुति द्वारा प्रभु की ओर गति करनेवाली, (अपस्युवः) = अपने साथ कर्म को जोड़नेवाली मातएँ (जातम्) = उत्पन्न हुए हुए (इन्द्रम्) = इस इन्द्रियों के अधिष्ठाता बननेवाले बालक को (उपासते) = उपासित करती हैं। सदा इसका ध्यान करती हैं, इसे अपनी आँखों से ओझल नहीं करती । [२] इसका निर्माण करनेवाली ये माताएँ (सुवीर्यं भेजानासः) = उत्तम वीर्य व शक्ति का सेवन करनेवाली होती हैं। स्वयं संयमी जीवन बिताती हुईं ये शक्ति का रक्षण करती हैं। इनका अपना जीवन संयमवाला न हो, तो इन्होंने बच्चों का क्या निर्माण करना ?
भावार्थ
भावार्थ- बालक को वही माता 'इन्द्र' बना पाती है जो कि - [क] प्रभु - स्तवन की शक्ति का सेवन करनेवाली वृत्तिवाली हो, [ख] क्रियाशील जीवनवाली हो, [ग] संयम द्वारा उत्तम हो।
विषय
इन्द्र। सेनापति का वर्णन।
भावार्थ
(जातम्) उत्पन्न बालक को माताओं के तुल्य प्रेम पूर्वक (जातम् इन्द्रम्) प्रसिद्ध हुए ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता राजा को (ईङ् खयन्तीः) प्राप्त होती हुई, (अपस्युवः) नाना कर्म करने वाली प्रजाएं (सु-वीर्यम् भेजानासः) उत्तम वीर्य, बल, शौर्य को सेवन करती हुई उसकी (उप आसते) देववत् उपासना करतीं, उसका आश्रय ग्रहण करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषयः इन्द्र मातरो देव ममः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१ निचृद् गायत्री। २-५ विराड् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते परमात्मा समस्तबलानाममध्यक्षो द्युलोकस्य विकासयिता, एवं राज्ञा सर्वबलानामध्यक्षेण प्रजानां विकासकेन च भवितव्यम्।
पदार्थः
(इन्द्रं सुवीर्यं जातम्) परमात्मानं राजानं वा शोभनबलोपेतं जातम् (ईङ्खयन्तीः) प्रेरयन्त्यः (अपस्युवः) आत्मनः कर्मेच्छन्त्यः कर्त्तव्यपरायणाः (भेजानासः) भजमानाः-सेवमानाः मानवप्रजाः “इकारो वर्णव्यत्ययेन” [ऋ० ४।२९।५ दयानन्दः] (उपासते) उपाश्रयन्ति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Active, expressive and eloquent people, conscious of their rights and duties, serve and abide by the ruling power of the system, Indra, as it arises and advances, and while they do so they enjoy good health, honour and prosperity of life for themselves and their progeny.
मराठी (1)
भावार्थ
स्वयंसिद्ध शोभायुक्त बलवान परमेश्वराला कर्तव्यकर्म परायण उपासक प्रजा कर्माचे शुभ फळ मिळावे, अशी प्रेरणा बाळगून परमेश्वराचा आश्रय घेते व राजसूय यज्ञात प्रसिद्ध असलेल्या राजाला सुखाचे फळ देण्याची प्रेरणा करून त्याचा आश्रय घेते. ॥१॥
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