ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 16
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग्ने॒ विश्वे॑भिः स्वनीक दे॒वैरूर्णा॑वन्तं प्रथ॒मः सी॑द॒ योनि॑म्। कु॒ला॒यिनं॑ घृ॒तव॑न्तं सवि॒त्रे य॒ज्ञं न॑य॒ यज॑मानाय सा॒धु ॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । विश्वे॑भिः । सु॒ऽअ॒नी॒क॒ । दे॒वैः । ऊर्णा॑ऽवन्तम् । प्र॒थ॒मः । सी॒द॒ । योनि॑म् । कु॒ला॒यिन॑म् । घृ॒तऽव॑न्तम् । स॒वि॒त्रे । य॒ज्ञम् । न॒य॒ । यज॑मानाय । सा॒धु ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने विश्वेभिः स्वनीक देवैरूर्णावन्तं प्रथमः सीद योनिम्। कुलायिनं घृतवन्तं सवित्रे यज्ञं नय यजमानाय साधु ॥१६॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। विश्वेभिः। सुऽअनीक। देवैः। ऊर्णाऽवन्तम्। प्रथमः। सीद। योनिम्। कुलायिनम्। घृतऽवन्तम्। सवित्रे। यज्ञम्। नय। यजमानाय। साधु ॥१६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 16
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे स्वनीकाग्ने राजन् ! प्रथमस्त्वं विश्वेभिर्देवैस्सहोर्णावन्तं योनिं सीद सवित्रे यजमानाय कुलायिनं घृतवन्तं यज्ञं साधु नय ॥१६॥
पदार्थः
(अग्ने) विद्वन् (विश्वेभिः) सर्वैः (स्वनीक) शोभनान्यनीकानि सैन्यानि यस्य तत्सम्बुद्धौ (देवैः) विद्वद्भिर्वीरैर्वा (ऊर्णावन्तम्) बहूर्णादिवस्त्रयुक्तम् (प्रथमः) प्रख्यातः (सीद) (योनिम्) गृहम् (कुलायिनम्) गृहादिसामग्रीयुक्तम् (घृतवन्तम्) बहुघृतादिवन्तम् (सवित्रे) जगदुत्पादकाय (यज्ञम्) सङ्गतिमयं व्यवहारम् (नय) प्रापय (यजमानाय) सङ्गतिकरणविद्याविदे (साधु) ॥१६॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! राजजना यूयं विद्वत्सहायेन न्यायगृहेषु स्थित्वा न्यायं कुरुत सर्वान् मनुष्यान् न्यायपथं नयत येन सर्वे सन्मार्गस्थाः सन्तः परोपकारिणः स्युः ॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (स्वनीक) सुन्दर सेनावाले (अग्ने) विद्वन् राजन् ! (प्रथमः) प्रसिद्ध आप (विश्वेभिः) सम्पूर्ण (देवैः) विद्वानों वा वीर पुरुषों के साथ (ऊर्णावन्तम्) बहुत ऊर्णा के वस्त्रों से युक्त (योनिम्) गृह में (सीद) वर्त्तमान हो (सवित्रे) संसार को उत्पन्न करने और (यजमानाय) पदार्थों के मिलानेरूप विद्या को जाननेवाले के लिये (कुलायिनम्) गृह आदि सामग्री से और (घृतवन्तम्) बहुत घृत आदि पदार्थों से युक्त (यज्ञम्) सङ्गतिस्वरूप व्यवहार को साधु उत्तम प्रकार (नय) प्राप्त कराइये ॥१६॥
भावार्थ
हे विद्यायुक्त राजजनो ! आप लोग विद्वानों के सहाय से न्याय के गृहों में ठहर के न्याय करिये और सब मनुष्यों को न्यायमार्ग पर चलाइये, जिससे सब श्रेष्ठ मार्ग में स्थित होकर परोपकारी होवें ॥१६॥
विषय
विद्वान् और सेनापति के कर्त्तव्यों का विम्ब-प्रतिविम्ब भाव ।
भावार्थ
हे ( सु-अनीक ) उत्तम मुख वाले, सुन्दर ! सौम्य, सुभूषित मुख वाले ! सुमधुरभाषिन् ! विद्वन् ! हे उत्तम बल, सैन्य के स्वामिन् ! हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विनयशील ! तू ( प्रथमः ) सबसे प्रथम, श्रेष्ठ है । तू ( विश्वेभिः देवेभिः ) समस्त विद्वानों, वीरों और मनुष्यों के साथ ( ऊर्णावन्तं योनिम् ) ऊन के बने आसन, वस्त्रादि सम्पन्न, तथा प्रजा को उत्तम रीति से आच्छादन, रक्षा करने वाले को ( कुलायिनं ) गृहोपयोगी, नाना द्रव्यों से समृद्ध, सर्वाश्रयप्रद, (घृतवन्तं ) घृत आदि पुष्टिकारक पदार्थों से पूर्ण गृह वा राष्ट्र को (सीद ) प्राप्त कर उस पर शासन कर । और ( यजमानाय ) कर आदि देने वाले प्रजाजन के ( यज्ञं ) संगतियुक्त राजसभा आदि के कार्य को, यजमान के यज्ञ को अग्नि वा अध्वर्यु के समान ( साधु नय) भली प्रकार चला ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'ऊर्णावान् कुलायी घृतवान्' योनि
पदार्थ
[१] हे (स्वनीक) = उत्तमरूप व बलवाले (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (प्रथमः) = [प्रथ विस्तारे] अतिशयित विस्तारवाले सर्वव्यापक आप (विश्वेभिः देवै:) = सब देवों के साथ (योनिं सीद) = हमारे इस शरीर गृह में आसीन होइये। हमारा यह शरीर दिव्यगुणों का अधिष्ठान बने तथा आपका निवास स्थान हो । यह शरीर जो कि (ऊर्णावन्तम्) = आच्छादनवाला है, अर्थात् सब दोषों से अपने को सुरक्षित करनेवाला है। (कुलायिनम्) = जो प्रशस्त कुलायोंवाला है। एक-एक इन्द्रिय गोलक एक-एक देव का कुलाय [घोंसला] है। जिस शरीर में सब कुलाय बड़े ठीक हैं, सब इन्द्रियों के स्थान अविकृत हैं और (घृतवन्तम्) = प्रशस्त दीप्तिवाला है तथा मलों के क्षरणवाला है। यह शरीर देवों व परमात्मा का निवास स्थान बने । [२] हे प्रभो! आप इस शरीर में स्थित होते हुए (सवित्रे) = निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त (यजमानाय) = यज्ञशील इस उपासक के लिये (यज्ञं साधु नय) = यज्ञों को सम्यक् प्राप्त कराइये। इसका जीवन यज्ञशील बने। यज्ञों के द्वारा ही यह आपका यजन [उपासन] करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम इस शरीर को सुरक्षावाला [उर्णावान्] उत्तम इन्द्रिय गोलकोंवाला [कुलायी] दीप्तिवाला [घृतवान्] बनाएँ यह देवों के साथ परमात्मा का निवास स्थान बने । प्रभु कृपा से हम यज्ञशील बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्यायुक्त राजजनांनो ! तुम्ही विद्वानांच्या साह्याने न्यायालयात न्याय करा व सर्व माणसांना न्यायमार्गाने चालवा. ज्यामुळे सर्वजण श्रेष्ठ मार्गात स्थित राहून परोपकारी होतील. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord commander of glorious flame and power, highpriest and foremost yajaka, with brilliant nobilities of nature and humanity, take over this home and sit on this vedi covered with holy grass, the home full of people and prosperity and overflowing with fragrant ghrta, and lead the yajna to a noble end for the yajamana in honour of Savita, lord creator, the cosmic organiser of Nature’s yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned king who has many good armies you who are foremost and famous being seated in your home or office which is decked with wooden and other cloth with all enlightened persons or heroes perform well the Yajna (the act of unification) for the pleasure of God the creator of the world and the Yajamana who is well-versed in the science of uniting people and making various articles in proper proportion.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O enlightened men, and officers of the State ! being seated in the home provided with all requisite articles abundant and Ghee etc. (that is Ed.). Chambers of justice (courts) with the help of the enlightened persons administer justice. Lead all men towards the path of justice, so that all may become benevolent trading the good path (of righteousness).
Foot Notes
(स्वनीक) शोभनान्यनीकानि सैन्यानि यस्य तत्सम्बुद्धौ । अनीकम् अत्र प्राणने ( अदा० ) इति धातौ: अनिद्दषिभ्यी किच ( उणा 4, 17) वषिपूषिभ्याम् ईकन् इति ईकन प्रत्ययस्य अनुवृत्ति: अनिति जीवयतीति अनीकं सैन्यम् = aving many armies. ( कुलायिनम् ) गृहादि सामग्रीयुक्तम्। = Provided with all the domestic ( house hold. Ed.) articles. ( प्रथम: ) प्रख्यात: (प्रथम ) प्रथम इति मुख्यनाम प्रतमोभवति (NKT 2, 6 22 )। = Foremost or famous.
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