Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 103 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मण्डूकाः छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दि॒व्या आपो॑ अ॒भि यदे॑न॒माय॒न्दृतिं॒ न शुष्कं॑ सर॒सी शया॑नम् । गवा॒मह॒ न मा॒युर्व॒त्सिनी॑नां म॒ण्डूका॑नां व॒ग्नुरत्रा॒ समे॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒व्याः । आपः॑ । अ॒भि । यत् । ए॒न॒म् । आय॑न् । दृति॑म् । न । शुष्क॑म् । स॒र॒सी इति॑ । शया॑नम् । गवा॑म् । अह॑ । न । मा॒युः । व॒त्सिनी॑नाम् । म॒ण्डूका॑नाम् । व॒ग्नुः । अत्र॑ । सम् । ए॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिव्या आपो अभि यदेनमायन्दृतिं न शुष्कं सरसी शयानम् । गवामह न मायुर्वत्सिनीनां मण्डूकानां वग्नुरत्रा समेति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिव्याः । आपः । अभि । यत् । एनम् । आयन् । दृतिम् । न । शुष्कम् । सरसी इति । शयानम् । गवाम् । अह । न । मायुः । वत्सिनीनाम् । मण्डूकानाम् । वग्नुः । अत्र । सम् । एति ॥ ७.१०३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अत्र) अस्मिन् वर्षाकाले (मण्डूकानाम्) तस्य मण्डनकर्तॄणां जन्तूनां (वग्नुः) शब्दः (समेति) सम्यक् सञ्चित्य प्रकाशते (न) यथा (वत्सिनीनाम्) प्रमारूपवृत्तिभिः सह वर्तमानानां (गवाम्) इन्द्रियाणां (मायुः) ज्ञानं यथार्थं भवति (न) यथा च (दृतिम्, शुष्कम्) शुष्कं जलपात्रं जलं प्राप्य पुनरपि आर्द्रं भवति तथैव (दिव्याः, आपः, यत्, एनम्) द्युलोकजा आपो यदा (अभि) सर्वतो मण्डूकगणं (सरसी, शयानम्) शुष्कसरसि स्वपन्तं (आयन्) प्राप्नुवन्ति तदा सोऽपि पात्रवत् आर्द्रतां याति ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अत्र) इस वर्षाकाल में (मण्डूकानाम्) वर्षाकाल को मण्डन करनेवाले जीवों का (वग्नुः) शब्द (समेति) भलीभाँति से वर्षाऋतु को सुशोभित करता है, (न) जैसे कि (वत्सिनीनाम्) प्रमारूप वृत्तियों के साथ (गवाम्) मिली हुई इन्द्रियों का (मायुः) ज्ञान यथार्थ होता है, (न) जिस प्रकार (दृतिम्, शुष्कम्) सूखा हुआ जलस्थान फिर हरा-भरा हो जाता है, इसी प्रकार (दिव्याः, आपः, यत्, एनम्) द्युलोक में होनेवाले जल जब (अभि) चारों ओर से इस मण्डूगण को (सरसी, शयानम्) सूखे तालाब में सोते हुए को (आयन्) प्राप्त होते हैं, तो यह भी उस पात्र के समान फिर   पूर्वावस्था को प्राप्त हो जाता है ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह बोधन किया है कि वर्षाकाल के साथ मेंढकादि जीवों का ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध है, जैसा इन्द्रियों का इन्द्रियों की वृत्तियों के साथ। जैसे इन्द्रियों की यथार्थ ज्ञानरूप प्रमा आदि वृत्तियें इन्द्रियों को मण्डन करती हैं, इसी प्रकार ये वर्षाऋतु को मण्डन करते हैं।दूसरी बात इस मन्त्र से यह स्पष्ट होती है कि मण्डूकादिकों का जन्म मैथुनी सृष्टि के समान मैथुन से नहीं होता, किन्तु प्रकृतिरूप बीज से ही वे उत्पन्न हो जाते हैं, इससे अमैथुनी सृष्टि होने का नियम भी परमात्मा ने इस मन्त्र में दर्शा दिया।जो लोग यह कहा करते हैं कि वेदों में कोई अपूर्वता नहीं, उसमें तो मेंढक और मत्स्यों का बोलना आदिक भी लिखा है, उनको ऐसे सूक्त ध्यानपूर्वक पढ़ने चाहिये। इन वर्षाऋतु के सूक्तों ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि जिस उत्तमता के साथ वर्षाऋतु का वर्णन वेद में है, वैसा आज तक किसी कवि ने नहीं किया, अर्थात् जो प्राकृत नियमों की अपूर्वता, ईश्वरीयज्ञान वेद कर सकता है, उसको जीव का तुच्छ ज्ञान कैसे कर सकता है। जीव का ज्ञान तो केवल वेदों से एक जल के बिन्दु के समान एक अंश को लेकर वर्णन करता है।जो लोग यह कहा करते हैं कि ऋग्वेद सिन्धु नदी अर्थात् अटक के आस-पास बना, उनको इस सूक्त से यह शिक्षा लेनी चाहिये कि इसमें तो उन देशों का वर्णन पाया जाता है, जिनमें घोर वृष्टि होती है और सिन्धु नदी के तट पर तो वर्षाऋतु ही नहीं होती। कभी-कभी आगन्तुक वृष्टि होती है। अस्तु, ऐसे निर्मूल आक्षेपों की वेदों में क्या कथा ? इनमें तो लोक-लोकान्तरों के सब पदार्थों का वर्णन पाया जाता है, फिर एकदेशी होने का आक्षेप निर्मूल नहीं तो क्या ? ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मण्डूकों के दृष्टान्त से ब्रह्मज्ञानी, तपस्वी और नाना विद्याओं के विद्वानों के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( दृतिं शुष्कं न ) सूखे चमड़े के पात्र के समान ( सरसि शयानं ) तालाब में पड़े ( एनम् ) इस मण्डूक को ( दिव्या आपः ) आकाश के जल ( यद् अभि आयन् ) जब प्राप्त होते हैं तब ( मण्डूकानां वग्नुः ) मेंडकों का शब्द ( वत्सिनीनां गवां मायुः न ) बछड़े वाली गौओं के शब्द के समान ही ( सम् एति ) आता है इसी प्रकार ( शुष्कं दृतिं न ) सूखे चर्मपात्र के समान ( सरसि ) प्रशस्त ज्ञानमार्ग में ( शयानम् ) तीक्ष्ण तप करते हुए ( एनम् प्रति अभि ) इस ब्राह्मण वर्ग को ( दिव्याः आपः ) ज्ञानमय परमेश्वर से प्राप्त होने वाली ज्ञान वाणियां वा ज्ञानी आप्त पुरुष, वर्षा जल के समान ही ( आयन् ) प्राप्त होते हैं तब (मण्डूकानां) आनन्द वा ज्ञान में गहरे मग्न विद्वानों का ( वग्नुः ) उत्तम उपदेश और ( वत्सिनीनाम् ) नियम से ब्रह्मचर्यवास करने वाले शिष्यों से युक्त ( गवाम् मायुः ) वेदवाणियों की ध्वनि भी ( अत्र ) इस लोक में ( सम् एति ) अच्छी प्रकार सुनाई देती है । यदि परमेश्वर से प्राप्त वेद ज्ञान न हो तो यहां, इस लोक में ज्ञानवाणियां और विद्वानों के उपदेश भी सुनाई न दें ।

    टिप्पणी

    शशयानाः, शयानम्—शिञ् निशाने ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ मण्डूका देवताः॥ छन्दः—१ आर्षी अनुष्टुप् । २, ६, ७, ८, १० आर्षी त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वेद का गान

    पदार्थ

    पदार्थ- (दृतिं शुष्कं न) = सूखे चर्म-पात्र के तुल्य (सरसि शयानं) = तालाब में पड़े (एनम्) = इस मण्डूक को दिव्या (आप:) = आकाश के जल (यद् अभि आयन्) = जब प्राप्त होते हैं तब (मण्डूकानां वग्नुः) = मेंढकों का शब्द (वत्सिनीनां गवां मायुः न) = बछड़े वाली गौओं के शब्द के तुल्य ही (सम् एति) = आता है वैसे ही (शुष्कं दृतिं न) = सूखे चर्मपात्र के तुल्य (सरसि) = ज्ञानमार्ग में (शयानम्) = तप करते हुए (एनम् प्रति अभि) = इस ब्राह्मण वर्ग को (दिव्याः आपः) = परमेश्वर से प्राप्त होनेवाली ज्ञान-वाणियाँ वर्षा जल के तुल्य ही (आयन्) = प्राप्त होते हैं तब (मण्डूकानां) = ज्ञान में मग्न विद्वानों का (वग्नुः) = उपदेश और (वत्सिनीनाम्) = नियम से ब्रह्मचर्यवास करनेवाले शिष्यों से युक्त (गवाम् मायुः) = वेद-वाणियों की ध्वनि भी (अत्र) = इस लोक में (सम् एति) = अच्छी प्रकार सुनाई देती है।

    भावार्थ

    भावार्थ-तपस्वी ब्राह्मण वर्ग को ईश्वर के द्वारा प्रदत्त अमृतमयी वेदवाणियों की प्राप्ति होती है। ये ज्ञानी विद्वान् ब्रह्मचर्य के तप से तपते हुए अपने अनुशासन प्रिय शिष्यों को इस वेदवाणी का उपदेश करें। तब इन गुरु और शिष्यों के द्वारा सस्वर छन्दों में गाई जानेवाली वेदवाणी लोगों को आकर्षित व प्रेरित करेगी।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the heavenly waters shower upon these celebrants, like rain on frogs who have been hybemating in a dry pond like empty leather bags, they revive with exhilaration, they burst into chant, and the chant of these celebrants seems like the eager lowing of mother cows for their calves or like the excitement of the heart on the reflection of a new revelation on the imagination.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात हे बोधन केलेले आहे, की वर्षाऋतूबरोबर बेडूक इत्यादी जीवांचा असा घनिष्ठ संबंध आहे, जसा इंद्रियांचा इंद्रियांच्या वृत्तीबरोबर असतो. जशा इंद्रियांच्या ज्ञानरूप प्रमा इत्यादी वृत्ती इंद्रियांचे मंडन करतात तेच ते (बेडूक) वर्षाऋतूचे मंडन करतात.

    टिप्पणी

    दुसरी गोष्ट ही, की या मंत्रावरून हे स्पष्ट होते, की मण्डूक इत्यादींचा जन्म मैथुनी सृष्टीप्रमाणे मैथुनाने होत नाही, तर प्रकृतिरूपी बीजापासूनच ते पुन्हा उत्पन्न होतात. यावरून अमैथुनी सृष्टीचा नियमही परमेश्वराने या मंत्रात दिलेला आहे. $ जे लोक म्हणतात, की वेदात काही अपूर्वता नाही त्यात बेडूक व माशांचे बोलणे इत्यादी लिहिलेले आहे. त्यांनी हे सूक्त लक्षपूर्वक वाचले पाहिजे. या वर्षाऋतूच्या सूक्तांनी हे स्पष्ट केलेले आहे. ज्या उत्तम तऱ्हेने वेदात वर्षाऋतूचे वर्णन आहे तसे वर्णन आजपर्यंत एकाही कवीने केलेले नाही. ज्या प्राकृतिक नियमांची अपूर्वता ईश्वरीय ज्ञान वेद करू शकतो ते जीवाचे तुच्छ ज्ञान कसे करू शकते? जीवाचे ज्ञान तर केवळ वेदातील एक जलबिंदूप्रमाणे एक अंशाचे आहे. $ जे लोक हे म्हणतात, की ऋग्वेद सिंधू नदी अर्थात् अटकच्या आसपास बनविला गेला. त्यांनी या सूक्तावरून ही शिकवण घेतली पाहिजे, की यात त्या देशांचे वर्णन आढळते, ज्यात अत्यंत वृष्टी होते व सिंधू नदीच्या तटावर तर वर्षाऋतूच नसतो. कधी कधी अचानक वृष्टी होते. अशा निर्मूल आक्षेपांना वेदात काहीच स्थान नाही. वेदात लोक लोकांतराच्या सर्व पदार्थांचे वर्णन आहे मग एकदेशी असण्याचा आक्षेप निर्मूल नाही तर काय? ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top