ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 20
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यस्मि॒न्विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॒ रण॑न्ति स॒प्त सं॒सद॑: । इन्द्रं॑ सु॒ते ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । विश्वाः॑ । अधि॑ । श्रियः॑ । रण॑न्ति । स॒प्त । स॒म्ऽसदः॑ । इन्द्र॑म् । सु॒ते । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्विश्वा अधि श्रियो रणन्ति सप्त संसद: । इन्द्रं सुते हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । विश्वाः । अधि । श्रियः । रणन्ति । सप्त । सम्ऽसदः । इन्द्रम् । सुते । हवामहे ॥ ८.९२.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In our soma yajna of life, in meditation, and in the holy business of living, we invoke Indra, in whom all beauties and graces abide, whom all the seven seers in yajna adore, in whom all five senses, mind and intelligence subside absorbed, and under whom all the seven assemblies of the world unite, meet and act.
मराठी (1)
भावार्थ
पाच ज्ञानेंद्रिये, मन व बुद्धी हे सातही ऋषी जीवात्म्याच्या अधिष्ठातृत्वात ज्ञानयज्ञ संपादन करत आहेत. या ज्ञान व योगयज्ञाचे संपादन करत ऋतम्भराची सिद्धी झाल्यावर जीवात्म्याला दिव्य आनंदाची प्राप्ती होते. ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(संसदः) सम्यक् स्थिरता सहित टिकाऊ (सप्त) सप्त इन्द्रियाँ अथवा सप्तऋषि (विश्वाः) सभी (यस्मिन् अधिश्रियः) जिस अधिष्ठाता का आश्रय ग्रहण करते हैं उस (इन्द्रम्) ज्ञानधन के मन को (सुते) योगयज्ञ में ऋतम्भरा की सिद्धि के प्रयोजन से (हवामहे) आह्वान करते हैं॥२०॥
भावार्थ
पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि ये सातों ऋषि जीवात्मा के अधिष्ठातृत्व में ज्ञानयज्ञ का सम्पादन करते हैं। इस ज्ञान एवं योगयज्ञ का सम्पादन करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा की सिद्धि होने पर जीवात्मा को दिव्य आनन्द प्राप्त होता है॥२०॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यस्मिन् अधि) जिसके आश्रय ( विश्वाः श्रियः रणन्ति ) सब सम्पदायें वा आश्रित प्रजाएं शोभा पातीं और सुख प्राप्त करती हैं और जिसके अधीन ( सप्त संसदः ) साथ बैठने वाले सात सचिव ( रणन्ति ) उसको उत्तम ज्ञानोपदेश करते हैं उस ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवान् को ( सुते ) अभिषेक युक्त राज्य पर आह्वान करते हैं। अध्यात्म में ( सप्त संसदः ) सात प्राणगण। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'श्री का आधार' विष्णु
पदार्थ
[१] (यस्मिन्) = जिन प्रभु में (विश्वाः श्रियः) = सब लक्ष्मियाँ (अधि) = आधिक्येन निवास करती हैं। जिस प्रभु के विषय में (सप्त) = सातों (संसदः) = होता 'कर्माविमौनासिके चक्षणी मुखम्' (रणन्ति) = स्तवन करते हैं। उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को, सब इन्द्रियों को शक्ति देनेवाले प्रभु को (सुते) = इस सोम के सम्पादन व रक्षण के निमित्त हवामहे पुकारते हैं। प्रभु ने ही वासना विनाश द्वारा इस सोम का रक्षण करना है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सब श्रियों के आधार हैं। प्रभु ने ही कर्ण आदि इन्द्रियों को श्री - सम्पन्न बनाना है। इस श्री सम्पन्नता के लिये प्रभु ही सोम का सम्पादन व रक्षण करते हैं।
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