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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स्वादि॑ष्ठया॒ मदि॑ष्ठया॒ पव॑स्व सोम॒ धार॑या । इन्द्रा॑य॒ पात॑वे सु॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वादि॑ष्ठया । मदि॑ष्ठया । पव॑स्व । सो॒म॒ । धार॑या । इन्द्रा॑य । पात॑वे । सु॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वादिष्ठया । मदिष्ठया । पवस्व । सोम । धारया । इन्द्राय । पातवे । सुतः ॥ ९.१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाऽस्मिन् मण्डले सौम्यस्वभावस्य परमात्मनो गुणा वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    (सोम) हे सौम्यस्वभाव परमात्मन् ! (स्वादिष्ठया) आनन्दवर्द्धकेन (मदिष्ठया) आह्लादजनकेन (धारया) स्वभावेन नः (पवस्व) पवित्रान् कुरु, यः (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यस्य (पातवे) वर्द्धनाय (सुतः) प्रसिद्धः ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब इस मण्डल में सौम्यस्वभाव परमात्मा के गुणों का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (सोम) हे सौम्यस्वभाव परमात्मन् ! (स्वादिष्ठया) आनन्द के बढ़ानेवाले (मदिष्ठया, धारया) आह्लाद के वर्द्धक स्वभाव से आप हमें (पवस्व) पवित्र करें, जो स्वभाव आप का (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के (पातवे) बढ़ाने के लिये (सुतः) प्रसिद्ध है ॥१॥

    भावार्थ

    यों तो परमात्मा के अपहत पाप्मादि अनन्त गुण हैं, पर शान्तस्वभाव परमात्मा के शान्ति के देनेवाले सौम्य स्वभावादि ही हैं। परमात्मा के सौम्य स्वभाव के धारण करने से पुरुष शान्तिसम्पन्न हो जाता है। फिर उसको अपने स्वरूप में एक प्रकार का आनन्द प्रतीत होने लगता है, जिससे एक प्रकार का हर्ष उत्पन्न होता है। मद यहाँ हर्ष का नाम है, किसी मादक द्रव्य का नहीं। कई एक टीकाकारों ने इस मण्डल को मदकारक सोम द्रव्य में लगाया है, वह भूल की है, क्योंकि इस मण्डल में परमात्मा के गुण-कर्म्म-स्वभावों का वर्णन है, किसी द्रव्यविशेष का नहीं ॥१॥

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    विषय

    'स्वादिष्ठ -मदिष्ठ' सोम का पान

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (धारया) = अपनी धारणशक्ति से (पवस्व) = हमारे अन्दर गतिवाला हो [द० यजु० ७।२८] अथवा हमारे जीवन को पवित्र कर [ य० ८ । ६३ द०] । उस धारा से हमें प्राप्त हो, जो कि (स्वादिष्ठया) = हमारे जीवन को अत्यन्त स्वाद व आनन्दवाला बनानेवाली है, जिसके द्वारा हमारी वाणी से मधुर ही शब्द उच्चारित होते हैं, जिससे मैं मधु सदृश ही बन जाता हूँ 'भूयासं मधुसन्दृशः '। उस धारा से तू हमें प्राप्त हो, जो कि (मदिष्ठया) = हमें आनन्दित करनेवाली है । सोमरक्षण से नीरोगता प्राप्त होकर जीवन उल्लासमय बनता है । [२] यह सोम (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (इन्द्राय) = एक जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (पातवे) = शरीर के अन्दर ही पीने के लिये होता है । यह सोम जितेन्द्रिय पुरुष के द्वारा शरीर में ही व्याप्त किया जाता है। शरीर में व्याप्त किया गया यह सोम जीवन को स्वादिष्ठ व मदिष्ठ बनानेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनकर सोम को शरीर में ही व्याप्त करें। यह हमारे जीवन को स्वादिष्ठ व मदिष्ठ बनायेगा ।

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    विषय

    यहां से पावमान सौम्य नवम मण्डल प्रारम्भ होता है। सोम पवमान का वर्णन । बालक के समान विद्या के गर्भ से विद्या- निष्णात उत्पन्न शिष्य का वर्णन । सोम और इन्द्र के अनेक सम्बन्ध । सोम-जीव, नव ब्रह्मचारी, वर, उत्तम सुख, राजा, आदि का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (सोम) विद्यादि से स्नान करने हारे ! निष्णात ! एवं विद्यादि में उत्पन्न होने हारे ! अन्यों को सन्मार्ग में प्रेरणा करने हारे ! तू (इन्द्राय पातवे) उत्तम ऐश्वर्य के उपभोग के लिये (सुतः) अभिषिक्त है। तू (स्वादिष्ठया) अति स्वादु, मधुर (मदिष्ठया) अति अधिक आनन्द देने वाली, (धारया) वाणी से (पवस्व) अन्यों के प्रति प्राप्त हो। अन्यों से मधुर, सुखजनक वाणी से व्यवहार कर। उत्पन्न हुआ बालक गर्भ से, विद्यार्थी विद्या गर्भ से तथा प्रत्येक दीक्षित आश्रम से आश्रमान्तर जाने के लिये प्रथम अभिषेक करता है। इसी प्रकार प्रत्येक अधिकारी अपने पद पर नियुक्त होने के पूर्व अभिषिक्त होता है। वे सब ही ‘सोम’ कहाते हैं। इस समस्त सोम प्रकरण में सामान्यतः ये सभी ‘सोम’ लक्षणया वर्णित जानने चाहियें। प्रकरणानुसार एकमात्र पक्ष विशेष रूप से दर्शाया जावेगा। अध्यात्म में जगदुत्पादक, जगत्प्रेरक प्रभु भी ‘सोम’ है। और उसका महान् ऐश्वर्य तथा उसका दर्शन करने वाला इन्द्रियों का स्वामी, ऐश्वर्यों का भोक्ता जीव भी ‘इन्द्र’ पद से वाच्य है। जहां उत्पन्न होने वाला जीव ‘सोम’ है वहां ‘इन्द्र’ शब्द से जगत् का ऐश्वर्य और उसका स्वामी प्रभु स्वयं संगृहीत होते हैं। ‘सोम’ नव ब्रह्मचारी के साथ इन्द्र, और अग्नि आचार्य के वाचक होते हैं, ‘सोम’ गृहस्थाभिलाषी वर है तो ‘इन्द्र’ ऐश्वर्य है, जब वह ‘इन्द्र’ है तो ‘सोम’ गृहस्थ के उत्तम सुख समझे जाते हैं। वनस्थ विद्वान् एवं प्रभुपरायण अभ्यासी, मुमुक्षु वा परिव्राजक ‘सोम’ पवमान पद से वर्णित होते हैं। उनके विशेषणों द्वारा उनका विशेष वर्णन होता है। यज्ञ में सोम ओषधि-विशेष का रस भी गृहीत होता है। याज्ञिक पक्ष की इस भाष्य में, प्रायः अन्यों द्वारा वर्णित होने से पिष्टपेषणवत् उपेक्षा की गयी है। अनेक स्थलों पर सोम अन्न एवं सामान्य ओषधि वाचक भी है। जो यथास्थान संकेत से बतलाया जावेगा। इसी प्रकार ऐश्वर्यवान् आज्ञापक राजा भी राष्ट्र को कण्टक-शोधनादि द्वारा पावन करने से ‘पवमान सोम’ कहा जाता है। देह का राजा जीव, ब्रह्माण्ड का स्वामी ईश्वर और आश्रम का गुरु, गृह का गृहपति आदि सभी ‘सोम’ कहे जाते हैं। उन सबका समान कर्तव्य और पद होने से एक समान वर्णन जानना चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथातः पावमानसौम्यं नवमं मण्डलम् ॥ मधुच्छन्दा ऋषिः । पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:—१, २, ६ गायत्री । ३, ७– १० निचृद् गायत्री । ४, ५ विराड् गायत्री ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, Spirit of Divinity, peace and glory of existence distilled in the essence for the soul’s being, flow in the sweetest and most exhilarating streams of ecstasy, cleanse and sanctify us unto purity and constancy, and initiate us into the state of ananda, divine glory.$(Soma in the physical sense is an exhilarating drink, in the aesthetic sense it is ecstasy, in the psychic sense it is ananda, and in the spiritual sense it is elevation of the soul to the experience of divinity. It is the peace, purity and glory of life, any power physical, social or divine that leads to satyam (truth), shivam (goodness), and sundaram (beauty) of life, anything, power and person that gives us an experience of sacchidananda, the real, the intelligent and the blissful state of the life divine. In short, Soma is satyam, shivam and sundaram, the sat, the chit and the ananda of life. It is not restricted to a particular herb and a particular drink. The meaning of soma is open-ended on the positive side of life and living joy.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याचे अपहत पाप्म (पाप दूर करणारा) इत्यादी अनंत गुण आहेत; परंतु शांत स्वभावाच्या परमात्म्याचे शांती देणारे गुण सौम्य स्वभाव इत्यादी आहेत. परमात्म्याचा सौम्य स्वभाव धारण करण्याने पुरुष शांतिसंपन्न होतो. पुन्हा त्याला आपल्या स्वरूपात एक प्रकारचा आनंद वाटतो. एक प्रकारचा हर्ष उत्पन्न होतो. मद येथे हर्षाचे नाव आहे. मादक द्रव्याचे नाही. कित्येक टीकाकारांनी या मंडलाला मदकारक सोम द्रव्य मानलेले आहे. ती त्यांची चूक आहे कारण या मंडलात परमात्म्याच्या गुण, कर्म स्वभावाचे वर्णन आहे, एखाद्या द्रव्य विशेषाचे नाही. ॥१॥

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