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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 23
    ऋषिः - पृश्नयोऽजाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अद्रि॑भिः सु॒तः प॑वसे प॒वित्र॒ आँ इन्द॒विन्द्र॑स्य ज॒ठरे॑ष्वावि॒शन् । त्वं नृ॒चक्षा॑ अभवो विचक्षण॒ सोम॑ गो॒त्रमङ्गि॑रोभ्योऽवृणो॒रप॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अद्रि॑ऽभिः । सु॒तः । प॒व॒से॒ । प॒वित्रे॑ । आ । इन्दो॒ इति॑ । इन्द्र॑स्य । ज॒ठरे॑षु । आ॒ऽवि॒शन् । त्वम् । नृ॒ऽचक्षाः॑ । अ॒भ॒वः॒ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒ । सोम॑ । गो॒त्रम् । अङ्गि॑रःऽभ्यः । अ॒वृ॒णोः॒ । अप॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्रिभिः सुतः पवसे पवित्र आँ इन्दविन्द्रस्य जठरेष्वाविशन् । त्वं नृचक्षा अभवो विचक्षण सोम गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरप ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद्रिऽभिः । सुतः । पवसे । पवित्रे । आ । इन्दो इति । इन्द्रस्य । जठरेषु । आऽविशन् । त्वम् । नृऽचक्षाः । अभवः । विऽचक्षण । सोम । गोत्रम् । अङ्गिरःऽभ्यः । अवृणोः । अप ॥ ९.८६.२३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 23
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! त्वं (इन्द्रस्य) कर्म्मयोगिनः कर्म्मप्रदीप्ते (जठरेषु) अग्नौ (आविशन्) प्रवेशं कुर्वन् (अद्रिभिः, सुतः) वज्रेण संस्कृतं कर्म्मयोगिनं (पवसे) पवित्रयसि। (आ) अपि च (पवित्रे) अस्य पवित्रान्तःकरणे (अभवः) निवस (नृचक्षाः) त्वं सर्वद्रष्टासि (विचक्षणः) तथा सर्वज्ञोऽसि। (सोम) हे जगदुत्पादक ! त्वं (अङ्गिरोभ्यः) प्राणायामादिभिः (गोत्रं) कर्म्मयोगिशरीरं रक्ष। अन्यच्च तस्य विघ्नानि (अप, अवृणोः) अपसारय ॥२३॥

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    पदार्थः

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! त्वं (इन्द्रस्य) कर्म्मयोगिनः कर्म्मप्रदीप्ते (जठरेषु) अग्नौ (आविशन्) प्रवेशं कुर्वन् (अद्रिभिः, सुतः) वज्रेण संस्कृतं कर्म्मयोगिनं (पवसे) पवित्रयसि। (आ=आँ) अपि च (पवित्र) अस्य पवित्रान्तःकरणे (अभवः) निवस (नृचक्षाः) त्वं सर्वद्रष्टासि (विचक्षणः) तथा सर्वज्ञोऽसि। (सोम) हे जगदुत्पादक ! त्वं (अङ्गिरोभ्यः) प्राणायामादिभिः (गोत्रं) कर्म्मयोगिशरीरं रक्ष। अन्यच्च तस्य विघ्नानि (अप, अवृणोः) अपसारय ॥२३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के कर्मप्रदीप्त (जठरेषु) अग्नि में (आविशन्) प्रवेश करते हुए (अद्रिभिः सुतः) वज्र से संस्कार किये हुए कर्मयोगी को (पवसे) पवित्र करते हैं (आ) और (पवित्रे) उसके पवित्र अन्तःकरण में (अभवः) निवास करें। (नृचक्षाः) तुम सर्वद्रष्टा हो (विचक्षणः) तथा सर्वज्ञ हो। (सोम) हे जगदुत्पादक ! आप (अङ्गिरोभ्यः) प्राणायामादि द्वारा (गोत्रं) कर्मयोगी के शरीर की रक्षा करें और उसके विघ्नों को (अपावृणोः) दूर करें ॥२३॥

    भावार्थ

    “गौर्वाग्गृहीता अनेनेति गोत्रं शरीरम्” जो वाणी को ग्रहण करे, उसका नाम यहाँ गोत्र है। इस प्रकार यहाँ शरीर और प्राणों का वर्णन इस मन्त्र में किया गया है और सायणाचार्य ने गोत्र के अर्थ यहाँ मेघ के किये हैं और “अङ्गिरोभ्यः” के अर्थ कुछ नहीं किये है। यदि सायणाचार्य के अर्थों को उपयुक्त भी माना जाय, तो अर्थ ये बनते हैं कि हे सोमलते ! तुम अङ्गिरादि ऋषियों से मेघों को दूर करो। इस प्रकार सर्वथा असंबद्ध प्रलाप हो जाता है। वास्तव में यह प्रकरण कर्मयोगी का है और उसी को प्राणों की पुष्टि के द्वारा विघ्नों को दूर करना लिखा है ॥२३॥

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    विषय

    गुरु से ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष मार्ग में जाने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (सोम) दीक्षादि में अभिषेक योग्य विद्वन् ! शिष्य ! उपासक ! हे (इन्दो) गुरु या प्रभु के उपासक ! तू (अद्रिभिः सुतः) मेघ तुल्य उदार ज्ञानवर्षी, एवं कूटने के पाषाणों के सदृश रसप्रद, अज्ञानग्रन्थि के नाशक गुरुजनों से (सुतः) उपदिष्ट, दीक्षित होकर (पवित्रे) परम पवित्र ज्ञानमय पद में (पवसे) प्राप्त हो। और (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्यवान्, विघ्नों और अज्ञानों के नाश करनेवाले गुरु, प्रभु के (जठरे) भीतर गर्भ में (आविशन्) प्रवेश करता हुआ। हे (विचक्षण) विविध ज्ञानों के देखने हारे ! (त्वम्) तू (नृचक्षाः अभवः) मनुष्यों के बीच विवेक से तत्वों का द्रष्टा हो। और (अङ्गिरोभ्यः) अंग में प्राणों के समान वा देह में अंगारों के समान तेजस्वी ज्ञानी जनों के लिये (गोत्रम्) वाणियों के समान रक्षक वेदमय ख़ज़ाने को (अप अवृणोः) खोल कर रख।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    गोत्र- अपावरण

    पदार्थ

    (अद्रिभिः) = उपासकों से (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (आपवसे) = सर्वथा गतिवाला होता है। हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (इन्द्रस्य) = प्रजितेन्द्रिय पुरुष के (जठरेषु) = अंग-प्रत्यंगों में (आविशत्) = प्रवेशवाला होता है। इसके शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ प्रत्येक अंग में तू सिक्त होता है। हे (विचक्षण) = हमारा विशेष रूप से ध्यान करनेवाले सोम ! (त्वं नृचक्षा:) = तू सब नरों का द्रष्टा ध्यान करनेवाला (अभवः) = होता है। अर्थात् तू इन उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों के स्वास्थ्य आदि का ध्यान करता है। हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (अंगिरोभ्यः) = तेरे द्वारा अंग-प्रत्यंग में रसवाले अंगिराओं के लिये (गोत्रम्) = अविद्या पर्वत को (अपावृणोः) = खोल डालता है, इस अविद्या पर्वत को विदीर्ण करके इन्हें ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित हुआ हुआ सोम हमारे स्वास्थ्य का ध्यान करता है, अविद्या पर्वत का भेदन करता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, spirit of life realised by veteran saints, you flow and vibrate in the sacred heart. Indu, O spirit of light divine, abiding in the heart core of the soul, be the all watching illuminator and unfailing guardian of humanity. O Soma, spirit of protective life and light of the world, open the secret treasures of knowledge and vision for the lovers of life and the piety of yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ‘‘गौर्वाग्गृहीता अनेनेति गोत्रं शरीरम्’’ जो वाणीने ग्रहण करतो त्याचे नाव गोत्र आहे. या प्रकारे येथे शरीर व प्राणांचे वर्णन या मंत्रात केलेले आहे. सायणाचार्याने येथे गोत्रचा अर्थ मेघ केलेला आहे व ‘‘अङ्गिरोभ्य’’ चा अर्थ काहीच केलेला नाही. जर सायणाचार्याचा अर्थ उपयुक्त मानला गेला तर हा अर्थ होतो ‘‘हे सोमलते! तू अङ्गिरा इत्यादी ऋषींकडून मेघांना दूर कर’’ या प्रकारे सर्वस्वी असंबद्ध प्रलाप होतो. वास्तविक हे प्रकरण कर्मयोग्याचे आहे व त्यालाच प्राणाच्या पुष्टीद्वारे विघ्नांना दूर करावे असे लिहिलेले आहे. ॥२३॥

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