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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1031
    ऋषिः - त्रय ऋषयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    6

    ज्यो꣡ति꣢र्य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ पवते꣣ म꣡धु꣢ प्रि꣣यं꣢ पि꣣ता꣢ दे꣣वा꣡नां꣢ जनि꣣ता꣢ वि꣣भू꣡व꣢सुः । द꣡धा꣢ति꣣ र꣡त्न꣢ꣳ स्व꣣ध꣡यो꣢रपी꣣꣬च्यं꣢꣯ म꣣दि꣡न्त꣢मो मत्स꣣र꣡ इ꣢न्द्रि꣣यो꣡ रसः꣢꣯ ॥१०३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्यो꣡तिः꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । प꣣वते । म꣡धु꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् । पि꣡ता꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । ज꣣निता꣢ । वि꣣भू꣡व꣢सुः । वि꣣भु꣢ । व꣣सुः । द꣡धा꣢꣯ति । र꣡त्न꣢꣯म् । स्व꣡ध꣢꣯योः । स्व꣣ । ध꣡योः꣢꣯ । अ꣣पीच्य꣢म् । म꣣दि꣡न्त꣢मः । म꣣त्सरः꣢ । इ꣣न्द्रियः꣢ । र꣡सः꣢꣯ ॥१०३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्योतिर्यज्ञस्य पवते मधु प्रियं पिता देवानां जनिता विभूवसुः । दधाति रत्नꣳ स्वधयोरपीच्यं मदिन्तमो मत्सर इन्द्रियो रसः ॥१०३१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ज्योतिः । यज्ञस्य । पवते । मधु । प्रियम् । पिता । देवानाम् । जनिता । विभूवसुः । विभु । वसुः । दधाति । रत्नम् । स्वधयोः । स्व । धयोः । अपीच्यम् । मदिन्तमः । मत्सरः । इन्द्रियः । रसः ॥१०३१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1031
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आरम्भ में परमात्मा का और उसके रस का वर्णन है।

    पदार्थ

    (यज्ञस्य ज्योतिः) देवपूजा, सङ्गतिकरण, दान आदि रूप यज्ञ का प्रकाश करनेवाला, (देवानाम्) प्रकाशक सूर्य, चन्द्रमा आदियों का और विद्वानों का (पिता) पालनकर्ता, (जनिता) सबको जन्मदेनेवाला, (विभूवसुः) प्रचुर वा व्यापक धनवाला पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्ता जगत्पति परमेश्वर (प्रियं मधु) प्रिय मधुर वर्षाजल को, ज्ञानरस को वा आनन्दरस को (पवते) भूमि पर वा उपासक के अन्तरात्मा में प्रवाहित करता है और (स्वधयोः) द्यावापृथिवी में (अपीच्यम्) छिपे हुए (रत्नम्) चाँदी, सोना, मणि, मोती आदि रत्नों को (दधाति) परिपुष्ट करता है। इसका (इन्द्रियः रसः) जीवात्मा से सेवित ज्ञानरस वा आनन्दरस (मत्सरः) स्फूर्तिदायक तथा (मदिन्तमः) अत्यन्त उत्साहप्रद होता है ॥१॥

    भावार्थ

    जो सब भौतिक रसों को तथा आध्यात्मिक रस को प्रवाहित करता है, वह जगदीश्वर किसका वन्दनीय नहीं है ॥१॥

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    पदार्थ

    (मदिन्तमः) अत्यन्त हर्षस्वरूप—अत्यानन्दस्वरूप (मत्सरः) हर्षप्रद सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (यज्ञस्य ज्योतिः) अध्यात्मयज्ञ का प्रकाशक (प्रियं मधु पवते) उपासक को प्रिय मधुर रसमय रूप में प्राप्त होता है (देवानां पिता जनिता) दिव्य गुणों का रक्षक और उत्पन्न करने वाला (विभूवसुः) सर्वत्र वास करने वाला महाव्यापक है (स्वधयोः-अपीच्यं रत्नं दधाति) द्युलोक पृथिवीलोक के अन्दर*1 अन्तर्हित*2 अपने विभूतिरूप रमणीय धन को धारण कराता है (इन्द्रियः-रसः) वह ऐसा परमात्मा इन्द्र—उपासक आत्मा का हितकर रस है॥१॥

    टिप्पणी

    [*1. “स्वधो द्यावापृथिवीनाम” [निघं॰ ३.३०]।] [*2. “अपीच्यम्-अन्तर्हितनाम” [निघं॰ ३.२५]।]

    विशेष

    ऋषिः—अकृष्टमाषाः (बिना बोए स्वतः प्राप्त माष खाने वाले उपासक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—जगती॥<br>

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    विषय

    रसो वै सः-वह रसमय प्रभु

    पदार्थ

    वे प्रभु कैसे हैं—१. (यज्ञस्य ज्योतिः) = यज्ञों के प्रकाशक हैं । ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में 'यज्ञस्य देवम्' शब्द से यही भावना व्यक्त हुई है। वेद में प्रभु ने सब यज्ञों— श्रेष्ठतम कर्मों का प्रतिपादन किया है। २. वे प्रभु जिसे भी प्राप्त होते हैं उसे (मधु प्रियम्) = माधुर्य व स्नेह (पवते) = प्राप्त कराते हैं। 'कोई व्यक्ति प्रभु को प्राप्त कर चुका है या नहीं?' इसकी पहचान यही है कि यदि वह प्रभु को प्राप्त कर चुका है तो उसका जीवन माधुर्य व प्रेम से पूर्ण होगा । ३. (पिता) = वे प्रभु सभी का पालन व रक्षण करनेवाले हैं, ४. (देवानां जनिता) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले हैं, ५. (विभूवसुः) = व्यापक धनवाले हैं। प्रभु का ऐश्वर्य व शक्ति अनन्त हैं, ६. वे प्रभु (स्वधयोः) = द्यावापृथिवी में—– शरीर व मस्तिष्क में (अपीच्यम्) = अन्तर्हित-छिपे रूप से विद्यमान (रत्नम्) = रमणीय वस्तु को (दधाति) = धारण करते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में प्रभु को 'रत्नधातमम्' कहा गया है, ७. (मदिन्तमः) = वे प्रभु अत्यन्त आनन्दमय हैं, ८. (मत्सरः) = अपने भक्तों में आनन्द का प्रसार करनेवाले हैं, ९. (इन्द्रियः) = इन्द्रजीवात्मा के उपासनीय हैं और १०. (रसः) = आनन्दमय हैं – रसरूप हैं – रस ही हैं ।

    इस प्रकार प्रभु का ध्यान करनेवाला व्यक्ति 'अकृष्टा माषा:' होता है । यह माष की फलियों की [beens] छीना-झपटी में ही [कृष्ट] नहीं रहता, अर्थात् संसार की वस्तुओं के जुटाने में ही उलझा नहीं रहता। इन वस्तुओं में रस अनुभव न करने से वह इनके लिए ‘सिकता’ ऊसर-भूमि के समान रहता है, इनके लिए उसमें कोई कामना नहीं रहती। वह वासनाओं को दूर करनेवाला निवावरी होता है। इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि' अकृष्टामाषा-सिकता-निवावरी' इस त्रिगुणित [triplicate] नामवाला होता है ।

    भावार्थ

    हम प्रभु का ध्यान करें और सांसारिक वस्तुओं की छीना-झपटी से ऊपर उठें । 

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    विषय

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    भावार्थ

    (यज्ञस्य) यज्ञ, जीवन और समस्त ब्रह्माण्ड का (ज्योतिः) प्रकाशक (प्रियम्) सबसे उत्कृष्ट (मधु) मनन करने योग्य, योग समाधि द्वारा साक्षात् करने योग्य, (देवानां पिता) २४ देवों का पालक और (जनिता) उत्पादक, (विभूवसुः) सर्वव्यापक होने से सब के भीतर वास करने और सबको वास कराने हारा, (स्वधयोः) अपनी सत्ता से देह और विद्या को धारण कराने वाले, जीवात्मा और प्रकृति इन दोनों के भीतर (अपीच्यम्) अति सूक्ष्म, सर्वत्र व्यापक (मदिन्तमः) सबसे अधिक आनन्दमय और (मत्सरः) सबके हृदयों में आनन्द को बढ़ाने वाला (इन्द्रियः) ऐश्वर्यमय, अथवा इन्द्ररूप जीव आत्माओं का हितकारी, (रसः) सर्वव्यापक, रसस्वरूप परमात्मा (रत्नं) समस्त ज्योतिर्मय पिण्ड, हिरण्यगर्भ को या अति रमण योग्य सुखमय मोक्ष को (दधाति) धारण करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमात्मानं तदीयं रसं च वर्णयति।

    पदार्थः

    (यज्ञस्य ज्योतिः) देवपूजासंगतिकरणदानाद्यात्मकस्य यज्ञस्य प्रकाशकः, (देवानाम्) प्रकाशकानां सूर्यचन्द्रादीनां विदुषां वा (पिता) पालकः, (जनिता) सर्वेषां जनयिता, (विभूवसुः) प्रभूतधनः व्यापकधनो वा पवमानः सोमः पावकः जगत्पतिः परमेश्वरः (प्रियं मधु) प्रीतिकरं मधुरं वृष्टिजलं ज्ञानरसम् आनन्दरसं वा (पवते) भूमौ उपासकस्यान्तरात्मनि वा प्रवाहयति, अपि च (स्वधयोः) द्यावापृथिव्योः। [स्वधे इति द्यावापृथिव्योर्नाम। निघं० ३।३०।] (अपीच्यम्) अन्तर्हितम्। [अपीच्यमिति निर्णीतान्तर्हितनाम। निघं० ३।२५।] (रत्नम्) रजतसुवर्णमणिमुक्तादिकम् (दधाति) पुष्णाति। अस्य (इन्द्रियः रसः) इन्द्रेण जीवात्मना जुष्टः ज्ञानरसः आनन्दरसो वा (मत्सरः) स्फूर्तिजनकः। [मदी हर्षे, ‘कृधूमदिभ्यः कित्’। उ० ३।७३ इत्यनेन सरन् प्रत्ययः।] (मदिन्तमः) अतिशयेन उत्साहप्रदश्च भवति ॥१॥

    भावार्थः

    यः सर्वान् भौतिकान् रसानाध्यात्मिकं रसं च प्रवाहयति, द्यावापृथिव्योर्गर्भे बहुमूल्यानि रत्नानि च निदधाति स खलु जगदीश्वरः कस्य न वन्द्यः ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८६।१०, ऋषयः अकृष्टा माषाः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Omnipresent God, the Illuminator of the entire universe. Most Excellent, Realizable through Yogic Samadhi (concentration), the Lord of the forces of Nature, the Creator, All-Pervading, subtly residing in soul and matter. Most Joyous, the Best of cheerers, the Well-Wisher of souls, grants us salvation.

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    Meaning

    Light of human and cosmic yajna, Soma vibrates pure, purifying and omnipresent, dearest most delicious honeyed spirit of life, creator and sustainer of divinities and master of infinite wealth and power. It holds and commands the jewel wealth of its own power and potential hidden in earth and heaven and vibrates in the mysteries of nature and humanity -- divinity most joyous, ecstatic, glorious, pure bliss that it is. (Rg. 9- 86-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (मदिन्तमः) અત્યંત હર્ષ સ્વરૂપ-અત્યાનંદ સ્વરૂપ (मत्सरः) હર્ષપ્રદ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (यज्ञस्य ज्योतिः) અધ્યાત્મયજ્ઞના પ્રકાશક (प्रियं मधु पवते) ઉપાસકને પ્રિય મધુરમય રૂપમાં પ્રાપ્ત થાય છે. (देवानां पिता जनिता) દિવ્ય ગુણના રક્ષક અને ઉત્પન્ન કરનાર (विभूवसुः) સર્વત્ર વાસ કરનાર મહાવ્યાપક છે. (स्वधयोः अपीच्यं रत्नं दधाति) દ્યુલોક અને પૃથિવીલોકની અંદર-અન્તર્હિત પોતાની વિભૂતિરૂપ રમણીય ધનને ધારણ કરાવે છે. (इन्द्रियः रसः) તે એવો પરમાત્મા ઇન્દ્ર-ઉપાસક આત્માનો હિતકર રસ છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सर्व भौतिक रसांना व आध्यात्मिक रसांना प्रवाहित करतो, तो जगदीश्वर कुणाला वंदनीय नाही? ॥१॥

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