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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1125
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    21

    स꣣मीचीना꣡स꣢ आशत꣣ हो꣡ता꣢रः स꣣प्त꣡जा꣢नयः । प꣣द꣡मे꣢꣯कस्य꣣ पि꣡प्र꣢तः ॥११२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स꣣मीचीना꣡सः꣢ । स꣣म् । ईचीना꣡सः꣢ । आ꣣शत । हो꣡ता꣢꣯रः । स꣣प्त꣡जा꣢नयः । स꣣प्त꣢ । जा꣣नयः । पद꣢म् । ए꣡क꣢꣯स्य । पि꣡प्र꣢꣯तः ॥११२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समीचीनास आशत होतारः सप्तजानयः । पदमेकस्य पिप्रतः ॥११२५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समीचीनासः । सम् । ईचीनासः । आशत । होतारः । सप्तजानयः । सप्त । जानयः । पदम् । एकस्य । पिप्रतः ॥११२५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1125
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर गुरु-शिष्य का विषय है।

    पदार्थ

    (समीचीनासः) भली-भाँति पढ़ाने आदि कर्म में तत्पर, (सप्तजानयः) अग्नि की सात ज्वालाएँ, जिन्हें पत्नी के समान प्रिय हैं अर्थात् जो अग्निहोत्री हैं, ऐसे (होतारः) विद्यायज्ञ के होता के समान विद्वान् गुरु लोग (एकस्य) एक परमेश्वर के (पदम्) स्वरूप को (पिप्रतः) छात्रों के अन्तःकरण में भरते हुए (आशत) विद्यागृह में कार्यरत रहते हैं ॥१०॥ अग्नि की सात ज्वालाएँ मु० उप० १।२।४ में प्रोक्त ‘काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, स्फुलिङ्गिनी और विश्वरुची’ समझनी चाहिएँ ॥१०॥

    भावार्थ

    गुरु-शिष्य आपस में मिलकर विद्या-यज्ञ को सिद्ध करेंऔर विविध विद्याओं के पढ़ने-पढ़ाने के साथ ब्रह्म के स्वरूप को भी साक्षात् करें तथा कराएँ ॥१०॥

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    पदार्थ

    (सप्त जानयः) सात जाया—पत्नियाँ*29—पत्नी की भाँति रक्षणीय तथा हित साधने वाली मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, श्रोत्र, नेत्र और वाणी। परमात्मा का मन से मनन, बुद्धि से विवेचन, चित्त से स्मरण, अहङ्कार से अपनाना, श्रोत्र से श्रवण, नेत्र से विभूतिदर्शन, वाणी से स्तवन हितकर होता है, ऐसे (समीचीनासः) परमात्मा को सम्यक् प्राप्त करने वाले या योगयुक्त (होतारः) परमात्मा को आमन्त्रित करने वाले मुमुक्षु उपासक जन (पिप्रतः-एकस्य) विश्व को पूर्ण करने वाले महान् व्यापक अकेले सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा के (पदम्-आशत) स्वरूप या प्रापणीय मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥१०॥

    टिप्पणी

    [*29. “पतिर्जनीनां पालयिता जायानाम्” [निरु॰ १०.२३] “ऋतुर्जनीनां कालो जायानाम्” [निरु॰ १२.४६] “देवानां वै पत्नीर्जनयः” [काठ॰ १९.७] ‘जानिः’ अकारस्य दीर्घत्वं छान्दसम्, लोकेऽपि भवति दीर्घप्रयोगः—युवतिर्जाया यस्य स युवजानिः।]

    विशेष

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    विषय

    समीचीन, होता, सप्तजानि

    पदार्थ

    (एकस्य) = उस अद्वैत [स एक एकवृदेक एव] (पिप्रतः) = सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त प्रभु के (पदम्) = स्थान को (आशत) = प्राप्त करते हैं। कौन ? १. (समीचीनास:) = [सम् अञ्च्] उत्तम गतिवाले= प्रत्येक कार्य
    को सदा सद्भाव से सम्यक्तया करनेवाले, ३. (होतार:) = दान देनेवाले- दानपूर्वक अदन करनेवाले, यज्ञशेष खानेवाले ३. (सप्तजानय:) = पाँच इन्द्रियशक्तियाँ तथा मन और बुद्धि जिनकी जाया के समान हैं। पत्नी शक्ति का प्रतीक समझी जाती हैं, जैसे इन्द्राणी इन्द्र की शक्ति है । इसी प्रकार प्रभु के पद को वे पाते हैं, जो इन इन्द्रियों, मन व बुद्धि की शक्ति से युक्त । 

    भावार्थ

    उत्तम गतिवाले, दाता, सातों शक्तियों का विकास करनेवाले प्रभु को पाते हैं ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    जिस प्रकार यज्ञ में एक यजमान का कार्य सम्पादन करने के लिये सात होता लोग बैठते हैं उसी प्रकार (समीचीनासः) उत्तमरूप से गति या ज्ञान सम्पादन करने हारे, शान्तस्वरूप, सोमस्वरूप (सप्त) सात, या प्रसर्पणशील प्राण (होतार) आत्मा का अनुसन्धान करनेहारे (जानयः) ज्ञानोत्पादक इन्द्रियगण और विद्वान्जन (एकस्य) एक ही आत्मा के (पदं) स्थान, स्वरूप, ज्ञान या सामर्थ्य को (पिप्रतः) पूर्ण करते हुए (आशत) विराजते हैं, आनन्द का भोग करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘आसते होतारः’, ‘सप्त जामयः’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनर्गुरुशिष्यविषयमाह।

    पदार्थः

    (समीचीनासः) सम्यग् अध्यापनादिकर्मणि व्यापृताः, (सप्तजानयः) अग्नेः सप्त ज्वालाःजायाः जायावत् प्रियाः येषां ते अग्निहोत्रिणः इत्यर्थः। [जायाया निङ्। अ० ५।४।१३४ इत्यनेन जायाशब्दान्तस्य निङादेशः।] (होतारः) विद्यायज्ञस्य होतृतुल्याः सोमाः। विद्वांसो गुरवः (एकस्य) अद्वितीयस्य परमेश्वरस्य (पदम्) स्वरूपम् (पिप्रतः) छात्राणामन्तःकरणे पूरयन्तः (आशत) विद्यागृहे व्याप्नुवन्ति ॥१०॥

    भावार्थः

    गुरुशिष्याः परस्परं मिलित्वा विद्यायज्ञं साध्नुवन्तु। विविधविद्यानामध्ययनाध्यापनेन सह ब्रह्मणः स्वरूपमपि साक्षात् कुर्वन्तु कारयन्तु च ॥१०॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०।७, ‘आशत’, ‘सप्तजानयः’ इत्यत्र ‘आसते॒’, ‘स॒प्तजा॑मयः’।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The truthful people acting as seven priests, sit in a Yajna, fulfilling the task of the sacrificer.

    Translator Comment

    $ Sacrificer is he who perform. the Yajna. Seven priest are (1) Hota, होता (2) Maitra-Varuna मैत्रावरुणः (3) Brahman-Achhansi ब्राह्मणाच्छंसी (4) Pota पोता (5) Neshtha नेष्ठा (6) Achhavaka अच्छावाकः 0) Agnidhra आग्नीध्रः I

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    Meaning

    Seven priests in unison as brothers, happy and dedicated with peace at heart, sit on the vedi and fulfil the yajna in honour of one sole divinity for one sole purpose in the service of humanity and divinity. (Rg. 9-10-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सप्त जानयः) સાત જાયા-પત્નીઓ-પત્નીની સમાન રક્ષણીય તથા હિત સાધનારા-મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર, શ્રોત, નેત્ર અને વાણી. પરમાત્માનું મનથી મનન, બુદ્ધિથી વિવેચન, ચિત્તથી સ્મરણ, અહંકારથી અપનાવવું, શ્રોતથી શ્રવણ, નેત્રથી વિભૂતિદર્શન અને વાણીથી સ્તવન હિતકર બને છે, તેમ (समीचीनासः) પરમાત્માને સમ્યક્ પ્રાપ્ત કરનારા યોગયુક્ત (होतारः) પરમાત્માને આમંત્રિત કરનારા મુમુક્ષુ ઉપાસકજનો (पिप्रतः एकस्य) વિશ્વને પૂર્ણ કરનાર મહાન એકલા સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માનું (पदम् आशत) સ્વરૂપ અથવા પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. (૧૦)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गुरू-शिष्यांनी आपापसात मिळून विद्या-यज्ञ सिद्ध करावा व विविध विद्या शिकणे-शिकविणे याबरोबरच ब्रह्माच्या स्वरूपाचा साक्षात्कारही करावा व करवावा. ॥१०॥

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