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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1127
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
11
अ꣣भि꣢ प्रि꣣यं꣢ दि꣣व꣢स्प꣣द꣡म꣢ध्व꣣र्यु꣢भि꣣र्गु꣡हा꣢ हि꣣त꣢म् । सू꣡रः꣢ पश्यति꣣ च꣡क्ष꣢सा ॥११२७॥
स्वर सहित पद पाठअभि꣢ । प्रि꣡य꣢म् । दि꣣वः꣢ । प꣣द꣢म् । अ꣣ध्वर्यु꣡भिः꣢ । गु꣡हा꣢꣯ । हि꣣त꣢म् । सू꣡रः꣢꣯ । प꣣श्यति । च꣡क्ष꣢꣯सा ॥११२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रियं दिवस्पदमध्वर्युभिर्गुहा हितम् । सूरः पश्यति चक्षसा ॥११२७॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । प्रियम् । दिवः । पदम् । अध्वर्युभिः । गुहा । हितम् । सूरः । पश्यति । चक्षसा ॥११२७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1127
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे पुनः परमात्मा के साक्षात्कार का वर्णन है।
पदार्थ
(प्रियम्) प्रिय, (दिवः) द्युलोक के (पदम्) प्रतिष्ठापक, (गुहा हितम्) गुफा में निहित अर्थात् गुह्य सोम नामक परमात्मा को (अध्वर्युभिः) योग-यज्ञ के अध्वर्यु-रूप योगप्रशिक्षक गुरुओं के द्वारा शिक्षा दिया हुआ (सूरः) विद्वान् उपासक (चक्षसा) अन्तर्दृष्टि से (अभि पश्यति) साक्षात्कार कर लेता है ॥१२॥
भावार्थ
सुयोग्य योगप्रशिक्षक गुरुओं से योग का अभ्यास करके उपासक जन चर्म-चक्षुओं से अदृश्य, सर्वान्तर्यामी परमात्मा की अनुभूति पाने में समर्थ हो जाते हैं ॥१२॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य के विषय का तथा गुरु द्वारा प्रदर्शित मार्ग से परमात्मा के साक्षात्कार का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ अष्टम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(दिवः पदं प्रियम्) द्यौ—मोक्ष जिससे प्राप्त किया जावे उस के प्राप्तिनिमित्त सोम—शान्तस्वरूप प्रिय परमात्मा को (अध्वर्युभिः) मनोभावनाओं से*34 (गुहा हितम्) गुहा निहित कर दिये जैसे (सूरः-चक्षसा-अभि पश्यति) सेवन करनेवाला उपासक अपनी ज्ञानदृष्टि से सम्मुख देखता है—साक्षात् करता है॥१२॥
टिप्पणी
[*34. “मनो वा अध्वर्युः” [श॰ १२.३.१.५]।]
विशेष
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विषय
सूर का 'सूर्य' दर्शन
पदार्थ
(सूरः) = विद्वान् (चक्षसा) = ज्ञान की दृष्टि से (अभिपश्यति) = अन्दर और बाहर देखता हुआ अनुभव करता है कि ('तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः') वे प्रभु इस शरीर के अन्दर भी हैं और ब्रह्माण्ड के सब पदार्थों में भी हैं। उनकी महिमा शरीर में भी अनुभव होती है और सूर्य-चन्द्रनक्षत्रादि में भी। किस प्रभु की ? १. (प्रियम्) = जो प्रभु तृप्त करनेवाले हैं और अत्यन्त कान्ति-सम्पन्न हैं । संसार का कोई भी पदार्थ अनन्त तृप्ति नहीं दे पाता। प्रभु का दर्शन ही उस अविनश्वर तृप्ति का देनेवाला है, २. (दिवस्पदम्) = वे प्रभु सम्पूर्ण ज्योति का आधार है। सूर्यादि उसी की ज्योति से चमक रहे हैं, ३. (अध्वर्युभिः) = हिंसारहित जीवनवाले लोगों से वह प्रभु (गुहा हितम्) = बुद्धिरूपी गुहा में निहित होते हैं। हम अपना जीवन हिंसाशून्य बनाते हैं तो हमारी बुद्धि निर्मल होकर प्रभु का आभास पाती है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का दर्शन ज्ञानी ही करता है ।
विषय
missing
भावार्थ
(सूरः) सूर्य के समान आदित्य योगी, उत्तम योगबल से सम्पन्न होकर (चक्षसा) दिव्य चक्षु द्वारा (अभिप्रियं) अत्यन्त मनोहर (अध्वर्युभिः) जीवन यज्ञ के सम्पादक, इन्द्रियों के सूक्ष्म सामर्थ्यों सहित (गुहा हितम्) हृदयाकाश रूप गुहा, या गुह्यरूप परमात्मा के भीतर (दिवः) दीप्त तेजःस्वरूप आत्मा के (पदं) स्वरूप को (पश्यति) देखता है।
टिप्पणी
दिवस्पदं तस्यात्मनः पदम् (सा०)। ‘अभिप्रिया दिवस्पदं’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनः परमात्मसाक्षात्कारं वर्णयति।
पदार्थः
(प्रियम्) प्रीतिपात्रम्, (दिवः) द्युलोकस्य (पदम्) प्रतिष्ठापकम्, (गुहा हितम्) गुहायां निहितम्, गुह्यं सोमं परमात्मानम् (अध्वर्युभिः) योगयज्ञस्य अध्वर्युभूतैः योगप्रशिक्षकैः गुरुभिः शिक्षितः सन् (सूरः) प्राज्ञः उपासकः (चक्षसा) अन्तर्दृष्ट्या (अभिपश्यति) साक्षात्करोति ॥१२॥
भावार्थः
सुयोग्यैर्योगप्रशिक्षकैर्गुरुभिर्योगमभ्यस्योपासक-जनाश्चर्मचक्षुर्भ्याम् अदृश्यं सर्वान्तर्यामिनं परमात्मानमनुभवितुं समर्था जायन्ते ॥१२॥ अस्मिन् खण्डे गुरशिष्यविषयस्य गुरुप्रदर्शितमार्गेण परमात्मसाक्षात्कारस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०।९ ‘प्रियं’ इत्यत्र ‘प्रि॒या’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
An expert Yogi, beholds with divine eye, the true nature of the dear, lustrous soul, hidden in the inmost recesses of the heart, coupled with the subtle forces of the organs of senses.
Translator Comment
Griffith describes this verse to be very obscure. I see do obscurity in the verse. The significance is clear like day light. Griffith has adopted Benfey's explanation. He takes it as meaning that the sun looks towards the place where the Soma lies while it is pressed. Sayana seems to interpret this verse as meaning that Indra views the Soma with affection even after it has been drunk by the priests. Both the interpretations don’t appeal to me. They don’t look so logical and rational.
Meaning
The brave visionary of soma creativity sees the dear heavenly light and the vision of the light giver, distilled, concentrated and treasured in the core of the heart by the performers of soma yajna. (Rg. 9-10-9)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दिवः पदं प्रियम्) દ્યૌ-જેનાથી મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવામાં આવે છે. તેની પ્રાપ્તિ માટે સોમશાન્તસ્વરૂપ પરમાત્માને (अध्वर्युभिः) મનોભાવનાઓથી (गुहाहितम्) ગુહા નિહિત કરેલ જેમ (सूरः चक्षसा अभि पश्यति) સેવન કરનાર ઉપાસક પોતાની જ્ઞાન દ્રષ્ટિથી સન્મુખ નિહાળે છે-સાક્ષાત્ કરે છે. (૧૨)
मराठी (1)
भावार्थ
सुयोग्य योग प्रशिक्षक, गुरूंकडून योगाचा अभ्यास करून उपासक लोक चर्म-चक्षूंपासून अदृश्य, सर्वांतर्यामी परमात्म्याची अनुभूती प्राप्त करण्यास समर्थ होतात ॥१२॥ या खंडात गुरू-शिष्याचा विषय व गुरुद्वारे प्रदर्शित मार्गाने परमात्म्याच्या साक्षात्काराचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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