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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1146
    ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    8

    इ꣡न्द्रा या꣢꣯हि चित्रभानो सु꣣ता꣢ इ꣣मे꣢ त्वा꣣य꣡वः꣢ । अ꣡ण्वी꣢भि꣣स्त꣡ना꣢ पू꣣ता꣡सः꣢ ॥११४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्र꣢꣯ । आ । या꣣हि । चित्रभानो । चित्र । भानो । सुताः꣢ । इ꣣मे꣢ । त्वा꣣य꣡वः꣢ । अ꣡ण्वी꣢꣯भिः । त꣡ना꣢꣯ । पू꣣ता꣡सः꣢ ॥११४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः । अण्वीभिस्तना पूतासः ॥११४६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । आ । याहि । चित्रभानो । चित्र । भानो । सुताः । इमे । त्वायवः । अण्वीभिः । तना । पूतासः ॥११४६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1146
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से परमेश्वर का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यशाली परमात्मन् ! हे (चित्रभानो) अद्भुत दीप्तिवाले ! आप (आयाहि) आओ, (इमे)ये (सुताः) हमारे पुत्र (त्वायवः) आपकी कामना कर रहे हैं और (अण्वीभिः) सूक्ष्म धार्मिक वृत्तियों के कारण, (तना) धन से (पूतासः) पवित्र हैं ॥१॥

    भावार्थ

    हमें और हमारी सन्तानों को परमेश्वर का उपासक और पवित्र लक्ष्मीवाला होना चाहिए। पाप से कमाया गया धन धन नहीं, किन्तु साक्षात् पाप ही होता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (चित्रभानो-इन्द्र) हे अद्भुत दीप्ति वाले इन्द्र परमात्मन्! तू (आयाहि)(त्वायवः-इमे सुताः) तू जिन्हें चाहता है ऐसे ये निष्पन्न उपासनारस (अण्वीभि-तना) सूक्ष्म गहन आन्तरिक श्रद्धाओं से*66 (पूतासः) अध्येषित—प्रस्तुत हैं*67 इन्हें स्वीकार कर॥१॥

    टिप्पणी

    [*66. “तनु श्रद्धायाम्” [चुरादि॰] तनाभिः “सुपां सुलुक्” [अष्टा॰ ७.१.३९]।] [*67. “पवस्व अध्येषणाकर्मा” [निघं॰ ३.२१]।]

    विशेष

    ऋषिः—मधुच्छन्दाः (मीठी इच्छावाला)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    सूक्ष्म शक्तियों का विकास

    पदार्थ

    हे (चित्रभानो) = अद्भुत दीप्तिवाले – आश्चर्यकारक विज्ञानवाले, (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (आयाहि) = आप हमें प्राप्त होओ । १. जीवात्मा की सर्वोत्तम कामना यही है कि 'वह प्रभु को प्राप्त करे।’‘‘मधुच्छन्दाः’=अत्यन्त मधुर इच्छाओंवाला, वैश्वामित्र:=सभी के साथ स्नेह करनेवाला प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि यही कामना करता है कि मैं प्रभु को प्राप्त करूँ । प्रभु में अद्भुत ज्ञान है, वे परमैश्वर्य के निधान हैं। मधुच्छन्दा यही अनुभव करता है कि प्रभु-प्राप्ति में ही ज्ञान और ऐश्वर्य का लाभ है। 
    मधुच्छन्दा उस प्रभु की प्राप्ति के लिए कहता है कि (सुताः) = उत्पन्न हुए-हुए (इमे) = ये सोम २. (त्वायवः) = आपको प्राप्त करानेवाले हैं। इन सोमकणों की रक्षा प्रभु का दर्शन कराते हैं । ये सोम ३. (अण्वीभिः) = सूक्ष्म शक्तियों से तना- धनवाले हैं । [तना इति धननाम- नि० २.१०.१५]। इनकी रक्षा से जहाँ शरीर का स्वास्थ्य प्राप्त होता है, वहाँ मन व बुद्धि की शक्तियों का भी विकास होता है। ४. (पूतासः) = ये अत्यन्त पवित्रतावाले हैं। सोमरक्षा से जीवन अधिकाधिक पवित्र होता चलता है और पवित्र बनकर हम प्रभु को प्राप्त करते हैं ।

    भावार्थ

    सर्वोत्तम कामना यही है कि हम ‘प्रभु को प्राप्त करें ।' उसकी प्राप्ति के लिए शरीर में सोम का निर्माण हुआ है। ये सोमकण हमारी सूक्ष्म शक्तियों का विकास करनेवाले तथा पवित्रता पैदा करनेवाले हैं ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमात्मन् ! हे (चित्रभानो) आश्चर्यकारक ज्ञानों और प्रकाशों से सम्पन्न ! (आयाहि) हमें तू प्राप्त हो। (इमे) ये समस्त (सुताः) संसार के पदार्थ (त्वायवः) तेरे आश्रय पर हैं और (अण्वीभिः) कारणस्वरूप, सूक्ष्म प्रकाशावयवों द्वारारा (तना) विस्तृत विरचित और (पूतासः) पवित्र होने से ग्रहण करने योग्य हैं। अथवा (आवीभिः पूतासः) योगसाधनाओं से पवित्र (सुताः) ये ऐश्वर्यवान् योगीजन (त्वायवः) तेरी कामना करते हैं, तुझे चाहते हैं, तू इन्हें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रनाम्ना परमेश्वर आहूयते।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! हे (चित्रभानो) अद्भुतदीप्ते ! त्वम् (आयाहि) आगच्छ, (इमे) एते (सुताः) अस्मत्पुत्राः (त्वायवः) त्वां कामयमानाः सन्ति,किञ्च (अण्वीभिः) सूक्ष्माभिः धार्मिकवृत्तिभिः (तना) धनेन [तना इति धननामसु पठितम्। निरु० २।१०।] (पूतासः) पूताः पवित्राः सन्ति। [उक्तं चान्यत्र—‘रम॑न्तां॒ पुण्या ल॒क्ष्मीर्याः पा॒पीस्ता अ॑नीनशम्।’ अथ० ७।११५।४ इति] ॥१॥२

    भावार्थः

    अस्माभिरस्मत्सन्तानैश्च परमेश्वरोपासकैः पवित्रलक्ष्मीकैश्च भाव्यम्। पापेनार्जितं धनं धनं न किन्तु साक्षात् पापमेव भवति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।३।४, य० २०।८७, अथ० २०।८४।१। २. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये परमेश्वरसूर्ययोर्विषये यजुर्भाष्ये च सभेशविषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, marvellously bright, take us under Thy protection. All these objects of the world long for Thee. Thou art Worthy of acceptance, Pure and Vast as Thou art, through the threads of subtle knowledge !

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    Meaning

    Indra, Lord Supreme of wondrous light and power, come and bless us. All these sacred objects in existence, created, energised and extended over spaces from the subtlest causes by you are sustained in your divine power. (Rg. 1-3-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (चित्रभानो इन्द्र) હે અદ્ભુત દીપ્તિવાળા ઇન્દ્ર પરમાત્મન્ ! તું (आयाहि) આવ-પ્રાપ્ત થા. (त्वायवः इमे सुताः) તું જેને ચાહે છે એવો એ નિષ્પન્ન ઉપાસનારસ (अण्वीभि तना) સૂક્ષ્મ ગંભીર આન્તરિક શ્રદ્ધાઓ દ્વારા પૂતાસઃ-અધ્યેષિત-પ્રસ્તુત છે તેનો સ્વીકાર કર. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही व आमची संताने परमेश्वराचे उपासक बनावे व पवित्र लक्ष्मी प्राप्त करणारे बनावेत. पापाने कमावलेले धन हे धन नाही, तर साक्षात पापच असते. ॥१॥

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