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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1158
    ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ शिखण्डिन्यावप्सरसौ काश्यपौ वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    11

    स꣡मी꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न मा꣣तृ꣡भिः꣢ सृ꣢ज꣡ता꣢ गय꣣सा꣡ध꣢नम् । दे꣣वाव्यां꣣꣬३꣱म꣡द꣢म꣣भि꣡ द्विश꣢꣯वसम् ॥११५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ई꣣ । वत्स꣢म् । न । मा꣣तृ꣡भिः꣢ । सृ꣣ज꣢त꣢ । ग꣣यसा꣡ध꣢नम् । ग꣣य । सा꣡ध꣢꣯नम् । देवाव्य꣣꣬म् । दे꣣व । अव्य꣣꣬म् । म꣡द꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । द्वि꣡श꣢꣯वसम् ॥११५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समी वत्सं न मातृभिः सृजता गयसाधनम् । देवाव्यां३मदमभि द्विशवसम् ॥११५८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । ई । वत्सम् । न । मातृभिः । सृजत । गयसाधनम् । गय । साधनम् । देवाव्यम् । देव । अव्यम् । मदम् । अभि । द्विशवसम् ॥११५८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1158
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे पुनः उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे साथियो ! तुम (गयसाधनम्) शरीर-रूप घर के परिष्कर्ता, (देवाव्यम्) प्रकाशक मन, बुद्धि व ज्ञानेन्द्रियों के रक्षक, (मदम्) ब्रह्मानन्द का अनुभव करनेवाले, (द्विशवसम्) आत्मिक और शारीरिक दो प्रकार के बल से युक्त (ई) इस सोम नामक जीवात्मा को (मातृभिः) माताओं के समान हितकारिणी श्रद्धाओं से (अभि सं सृजत) चारों ओर से संयुक्त करो, (वत्सं न) जैसे बछड़े को (मातृभिः) गायों से संयुक्त करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    विविध गुणों से विभूषित भी आत्मा में माता के समान हित करनेवाली श्रद्धा यदि नहीं है, तो वह कुछ नहीं कर सकता। गाय से संयुक्त किया हुआ बछड़ा जैसे उसका दूध पीकर पुष्ट हो जाता है, वैसे ही श्रद्धा से संयुक्त जीवात्मा ब्रह्मानन्द के पान से परिपुष्ट होता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (गयसाधनम्) प्राणों*93 के साधने—उन्नत करने वाले—(देवाव्यम्) मुमुक्षुजनों द्वारा कमनीय—(मदम्) हर्ष आनन्द के देनेवाले—(द्विशवसम्) दो बलोंवाले सृष्टिरचन और जीवों के कर्मफल देने का बल रखने वाले, ऐसे (तम्) उस सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को (वत्सं न मातृभिः-अभि सं सृजत) बछड़े को जैसे माताओं—गौओं से मिलाते हैं ऐसे मान करनेवाली देववृत्तियों से मिलाओ॥२॥

    टिप्पणी

    [*93. “प्राणा वै गयाः” [श॰ १४.८.१५.७]।]

    विशेष

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    विषय

    प्रभु के प्रिय पुत्र

    पदार्थ

    गत मन्त्र में प्रभु-गायन के द्वारा अपने जीवनों को ‘शिशुं न'=एक बच्चे की भाँति [childlike] निश्छल व निष्कपट बनाने का संकेत था । इस मन्त्र में 'शिशुं न' के स्थान पर 'वत्सं न' शब्द हैं। एक निष्कपट बालक माता-पिता को बड़ा प्रिय [= वत्सम्] प्रतीत होता है। हम भी अपने जीवनों को पवित्र बनाकर प्रभु का प्रिय बनने का प्रयत्न करें। ऐसा तभी हो सकता है जब हम अपने अन्दर ‘निर्माणात्मक तथा ज्ञानपूर्ण विचारों को उत्पन्न करें'। 'मातृ' शब्द के दोनों ही अर्थ हैं—१. निर्माता - maker, २. ज्ञाता knower । (मातृभि:) = इन निर्माण व ज्ञान के साधक विचारों से हम अपने को (वत्सं न) = प्रभु के प्रिय पुत्र के समान (संसृजत) = बनाएँ | ई-निश्चय से हम अपने को निम्न गुणों से युक्त कर लें – १. (गयसाधनम्) = [गया: प्राणा:] प्राणशक्ति की साधनावाला । हम अपनी नैत्यिक चर्या में प्राणायाम को अवश्य स्थान दें। प्राणसाधना मनोनिरोध का मूल है और इस प्रकार उन्नति की नींव है। २. (देवाव्याम्) = दिव्य गुणों की रक्षा करनेवाला । प्राणसाधना से ही आसुर वृत्तियों का संहार होकर हममें दिव्य गुणों का वर्धन होगा। आसुर वृत्तियों का आक्रमण व्यर्थ हो जाएगा तो जीवन में ३. (मदम्) = उल्लास आएगा ही । ४. (अभिद्विशवसम्) = हम दोनों बलों की ओर चलें । मनुष्य की दो शक्तियाँ ‘ज्ञान और कर्म' हैं । हम अपने जीवन में ज्ञान और कर्म का समन्वय करनेवाले बनें । ज्ञानपूर्वक किये गये कर्म ही पवित्र होते हैं, और कर्मों में लगे रहना ही ज्ञान के आवरण 'काम' को नष्ट करने का मुख्य साधन है।

    भावार्थ

    हमारा जीवन प्राणसाधनावाला, दिव्य गुणों का रक्षक, उल्लासमय, ज्ञान व कर्मशक्तिसम्पन्न हो, जिससे हम प्रभु के प्रिय पुत्र बन सकें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (मातृभिः) माताओं से जिस प्रकार (वत्सं न) बच्चे या बछड़े को उनका दूध प्राप्त करने के लिये मिलाया जाता है उसी प्रकार (ईं) इस (सोमं) सोम रूप शुक्र को (मातृभिः) ज्ञान के साधन इन्द्रियों और मनन शक्तियों से और (सोमं मातृभिः) जिज्ञासु शिष्य को ज्ञान कराने वाले गुरुओं से (अभि सं सृजत) साक्षात् रूप से संयोजित करो। उस (गयसाधनम्) समस्त प्राणों को वश करने हारे, (देवाव्यं) दिव्य कान्ति, सामर्थ्य और बल के प्रेरक प्रकाशक या रक्षक (मदम्) हर्षकारक और (द्विशवसं) ज्ञान और कर्म दोनों प्रकार के बल को धारण करनेहारे वीर्य तथा शिष्य को (अभि) उत्तम रूप से सम्पादन करो, शिक्षित करो।

    टिप्पणी

    ‘अभि प्रिद्विशवसम्’ इति क्वचित् प्रामादिकः सायणादिव्याख्यातृभिरनादृतत्वात्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

    पदार्थः

    हे सखायः ! यूयम् (गयसाधनम्) देहगृहस्य परिष्कर्तारम्। [गय इति गृहनामसु पठितम्। निघं० ३।४।] (देवाव्यम्) देवानां प्रकाशकानां मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियाणाम् अवितारं रक्षकम्, (मदम्) ब्रह्मानन्दमनुभवितारम् (द्विशवसम्) आत्मिकदैहिकद्विविधबलयुक्तम् (ई) ईम् एनम् सोमं जीवात्मानम् (मातृभिः) जननीभिरिव हितकरीभिः श्रद्धाभिः२ (अभि सं सृजत) अभिसंयोजयत, (वत्सं न) वत्सं यथा (मातृभिः) गोभिः अभिसंसृजन्ति तद्वत् ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    विविधगुणगणविभूषितेऽप्यात्मनि जननीव हितकरी श्रद्धा चेन्नास्ति तर्हि सोऽकिञ्चित्कर एव। धेन्वा संसृष्टो वत्सो यथा तत्पयःपानेन पुष्टो भवति तथैव श्रद्धया संसृष्टो जीवात्मा ब्रह्मानन्दपानेन परिपुष्टो जायते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०४।२। २. श्रद्धा चेतसः सम्प्रसादः। सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति इति योग० १।२० भाष्ये व्यासः। श्रद्धा माता—साम० ९०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as a calf is associated with the lane to drink milk, so should a pupil, seeker after knowledge, be associated with learned teachers. Instruct fully the disciple, who controls his breaths, is the master of loveliness and physical strength, full of joy, and possesses both knowledge and action.

    Translator Comment

    $ In the text printed in the Vedic Press Ajmer प्र is unnecessarily printed after अभि by mistake.

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    Meaning

    As mothers love, adore and adorn a child with beauty and ornaments, so energise and exalt Soma as versatile beauty and grace of life, protector of divinities, source of ecstasy and doubly strong both physically and spiritually. (Rg. 9-104-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (गयसाधनम्) પ્રાણોને સાધનારા-ઉન્નત કરનારા, (देव्याव्यम्) મુમુક્ષુજનો દ્વારા કમનીય, (मदम्)  હર્ષ-આનંદને આપનારા, (द्विशवसम्) બે બળવાળા સૃષ્ટિ રચન અને જીવોને કર્મફળ આપવાનો બળ રાખનાર એવા (तम्) તે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (वत्सं न मातृभिः अभि सं सृजत) જેમ વાછરડાઓને માતાઓ-ગાયો સાથે રાખવામાં આવે છે-જોડાય છે, તેમ માન કરનારી દેવવૃત્તિઓથી મેળવો-જોડો. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विविध गुणांनी बिभूषित आत्म्यामध्ये मातेसमान हित करणारी श्रद्धा नसेल तर तो काहीच करू शकत नाही. गायीशी संलग्न असलेले वासरू जसे तिचे दूध पिऊन पुष्ट होते, तसेच श्रद्धेने संप्रयुक्त जीवात्मा ब्रह्मानंदाच्या पानाने परिपुष्ट होतो. ॥२॥

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