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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1161
    ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    9

    स꣢ वा꣣꣬ज्य꣢꣯क्षाः स꣣ह꣡स्र꣢रेता अ꣣द्भि꣡र्मृ꣢जा꣣नो꣡ गोभिः꣢꣯ श्रीणा꣣नः꣢ ॥११६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वा꣣जी꣢ । अ꣣क्षारि꣡ति꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢रेताः । स꣣ह꣡स्र꣢ । रे꣣ताः । अद्भिः꣢ । मृ꣣जानः꣢ । गो꣡भिः꣢꣯ । श्री꣣णानः꣢ ॥११६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स वाज्यक्षाः सहस्ररेता अद्भिर्मृजानो गोभिः श्रीणानः ॥११६१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । वाजी । अक्षारिति । सहस्ररेताः । सहस्र । रेताः । अद्भिः । मृजानः । गोभिः । श्रीणानः ॥११६१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1161
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर उसी विषय को कहा गया है।

    पदार्थ

    (वाजी) वेगवान्, (सहस्ररेताः) सहस्र वीर्यवाला, (अद्भिः) शुभकर्मों से (मृजानः) जीवात्मा को अलंकृत करता हुआ, (गोभिः) विवेक के प्रकाशों से (श्रीणानः) जीवात्मा को परिपक्व करता हुआ (सः) वह सोम अर्थात् ज्ञान-रस (अक्षाः) आचार्य के पास से क्षरित होता है ॥२॥

    भावार्थ

    आचार्य के पास से जो ज्ञान-रस शिष्य द्वारा प्राप्त किया जाता है, वह उसके कर्मों को शुद्ध करता है और उसके अन्तरात्मा को परिपक्व करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (सः-वाजी) वह तेजवान् सोम—परमात्मा (सहस्ररेताः) बहुत शक्तिवाला*96 (अद्भिः-मृजानः) आप्तजनों*97 मनस्वी उपासकों द्वारा चिन्त्यमान हुआ, तथा (गोभिः-श्रीणानः) स्तुतिवाणियों से संयुक्त हुआ (अक्षाः) हृदय में प्राप्त होता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*96. “कामस्तदग्रे समवर्तते मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्” [अथर्व॰ १९.५२.१]।] [*97. “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श॰ ७.३.१.२०]।]

    विशेष

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    विषय

    कर्म से शुद्धि-ज्ञान से परिपाक

    पदार्थ

    (सः) = वह (वाजी) = बलवाला (सहस्ररेताः) = आनन्दमय शक्तिवाला— अर्थात् वीर्य की ऊर्ध्वगति से आनन्दमय जीवनवाला (अद्भिः) = कर्मों से [आप:-कर्माणि] (मृजान:) = अपने जीवन को शुद्ध करता हुआ और (गोभी:) = ज्ञान-वाणियों से (श्रीणानः) = अपना परिपाक करता हुआ (अक्षाः) = उस प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है [अश् व्याप्तौ]।

    प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु-प्राप्ति के लिए निम्न बातों का संकेत किया है – १. (वाजी) = मनुष्य बल का सम्पादन करे, २. (सहस्ररेता:) = वीर्य की ऊर्ध्वगति से उल्लासमय जीवनवाला हो, ३. वासनाओं का शिकार न हो, ४. ज्ञानपूर्वक कर्मों में लगा रहकर अपने जीवन को परिपक्व बनाने का प्रयत्न करे । ऐसा जीवन बनाने से हम [अग्नयः] आगे बढ़नेवाले होते हैं, ‘धिष्ण्याः' उच्च स्थान में [Worthy of a high place] पहुँचने के योग्य होते हैं, ‘ऐश्वराः ' हम ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर चल रहे होते हैं और ‘ऋषय:' तत्त्वदर्शी बनते हैं । इस प्रकार इन मन्त्रों के ऋषि होते हैं।

    भावार्थ

    हम अपने जीवनों को कर्मों द्वारा शुद्ध करें और ज्ञान द्वारा परिपक्व बनाएँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (सः) वह सोम योगी का आत्मा या आनन्दरस (वाजी) ज्ञानवान्, बलवान्, (सहस्ररेताः) सहस्रों पदार्थों का मूलकारण, सहस्रों शक्तियों से युक्त (अद्भिः) कर्मों और प्रज्ञाओं से (मृजानः) पवित्र होता हुआ, अधिक विस्पष्ट होता हुआ (गोभिः) वाणियों द्वारा (श्रीणानः) परिपक्व होकर (अक्षाः) हृदय में प्रकट हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (वाजी) वेगवान् (सहस्ररेताः) सहस्रवीर्यः (अद्भिः) शुभैः कर्मभिः (मृजानः) जीवात्मानम् अलङ्कुर्वन् (गोभिः) विवेकप्रकाशैः (श्रीणानः) जीवात्मानं परिपक्वं कुर्वन् (सः) असौ सोमः ज्ञानरसः (अक्षाः) आचार्यसकाशात् क्षरति ॥२॥

    भावार्थः

    आचार्यसकाशात् यो ज्ञानरसः शिष्येण प्राप्यते स तस्य कर्माणि शोधयति तस्यान्तरात्मानं परिपक्वं च करोति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०९।१७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The strong sold of a Yogi, endowed with a thousand merits, purified through noble acts and intellect, ripened through beams of knowledge, manifests itself in the heart.

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    Meaning

    May that victor spirit of Soma divinity of infinite power, realised with meditative Karma and crystallized by perception and awareness, manifest in the heart and bless us. (Rg. 9-109-17)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः वाजी) તે તેજવાન સોમ-પરમાત્મા (सहस्ररेताः) બહુજ શક્તિમાન (अद्भिः मृजानः) આપ્તજનો મનસ્વી ઉપાસકો દ્વારા ચિત્યમાન થઈને, તથા (गोभिः श्रीणानः) સ્તુતિ વાણીઓથી સંયુક્ત થઈને (अक्षाः) હૃદયમાં પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शिष्याद्वारे जो ज्ञान-रस आचार्याकडून प्राप्त केला जातो, तो त्याचे कर्म शुद्ध करतो व त्याच्या अंतरात्म्याला परिपक्व करतो. ॥२॥

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