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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1206
    ऋषिः - उचथ्य आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    23

    प्र꣣सवे꣢ त꣣ उ꣡दी꣢रते ति꣣स्रो꣡ वाचो꣢꣯ मख꣣स्यु꣡वः꣢ । य꣢꣫दव्य꣣ ए꣢षि꣣ सा꣡न꣢वि ॥१२०६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣣सवे । प्र꣣ । सवे꣢ । ते꣣ । उ꣣त् । ई꣢रते । तिस्रः꣢ । वा꣡चः꣢꣯ । म꣣खस्यु꣡वः꣢ । यत् । अ꣡व्ये꣢꣯ । ए꣡षि꣢꣯ । सा꣡न꣢꣯वि ॥१२०६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रसवे त उदीरते तिस्रो वाचो मखस्युवः । यदव्य एषि सानवि ॥१२०६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रसवे । प्र । सवे । ते । उत् । ईरते । तिस्रः । वाचः । मखस्युवः । यत् । अव्ये । एषि । सानवि ॥१२०६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1206
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा के आविर्भाव का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे सोम अर्थात् रस के भण्डार परमात्मन् ! (ते प्रसवे) ध्यान द्वारा आपका आविर्भाव होने पर (मखस्युवः) उपासना-यज्ञ की पूर्ति चाहनेवाले उपासक लोग (तिस्रः वाचः) ऋग्, यजुः, साम रूप तीनों वाणियों को (उदीरते) उच्चारित करते हैं, (यत्) जबकि, आप (अव्ये सानवि) जीवात्मा के उन्नत धाम में (एषि) पहुँचते हो ॥२॥

    भावार्थ

    सबके अन्तरात्मा में पहले से ही विद्यमान परमात्मा को ध्यान द्वारा और वेदमन्त्रों के गान द्वारा प्रकट करना चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (प्रसवे) सृष्टि के उत्पत्ति समय में (ते) तेरी (तिस्रः-वाचः) ऋग्यजुः सामरूप या स्तुति प्रार्थना उपासना तीन वाणियाँ (मखस्युवः) अध्यात्मयज्ञ को चाहती हुईं४ (उदीरते) उद्भूत होती हैं (यद्) जब कि तू परमात्मन् (अव्यः सानवि) पृथिवी के५ ऊँचे स्थान—त्रिविष्टप्—तिब्बत पर तथा पार्थिव देह के सम्भजनीय हृदय या अन्तःकरण में प्राप्त होता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    उचथ्य का उदीरण

    पदार्थ

    उसी उचथ्य से कहते हैं कि १. तू जब (सानवि) = सर्वोच्च [सा काष्ठा सा परागतिः– प्रभु ही तो अन्तिम शरण हैं । वे परमेष्ठी हैं – सर्वोच्च स्थान में स्थित हैं], (अव्ये) = रक्षण में उत्तम [प्रभुस्मरण ही हमें वासनाओं से बचानेवाला है] प्रभु में (एषि) = गति करता है - अपने को प्रभु में स्थित होकर कार्य करनेवाला मानता है, तब २. (मखस्युव:) = यज्ञों के करनेवाले (ते प्रसवे) = तेरे प्रकृष्ट यज्ञों में (तिस्रः वाच:) = ऋग्, यजुः, सामरूप तीन वाणियाँ (उदीरते) = उच्चरित होती हैं । उचथ्य बड़े-बड़े यज्ञों में सदा प्रवृत्त रहता है, और उन यज्ञों में वेदवाणियों का उच्चारण करता है। इन सब यज्ञों का उसे गर्व नहीं होता, क्योंकि वह अनुभव करता है कि मेरी तो सारी गति उस प्रभु में ही हो रही है। सर्वोच्च स्थान में स्थित प्रभु में सुरक्षित होकर ही तो मैं इन कार्यों को कर पा रहा हूँ । 

    भावार्थ

    १. हम सदा प्रभु में स्थित हों २. उत्कृष्ट यज्ञों में लगे रहें ३. वेदवाणियों का उच्चारण करें।

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    विषय

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    भावार्थ

    (ते) तेरे (प्रसवे) प्रकट होने पर (मखस्युवः) तेरी अर्चना के इच्छुक भक्तजन की (तिस्रः वाचः) तीनों प्रकार की वेदवाणियां ज्ञानमय, गानमय और कर्ममय, ऋक्, साम, यजुः स्वरूप उस समय (उत् ईरते) उठती हैं, प्रकट होती हैं। जब तू (अव्ये) चितिशक्ति या प्राण के बने (सानौ) उन्नत मस्तक देश या आनन्द प्रकट करने वाले अन्तःकरण में (एषि) धारणा द्वारा प्रकट होता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्माविर्भावविषयमाह।

    पदार्थः

    हे सोम रसागार परमात्मन् ! (ते प्रसवे) ध्यानद्वारा तव आविर्भावे सति (मखस्युवः) उपासनायज्ञपूर्तिकामाः उपासकाः। [मखशब्दात् क्यचि उ प्रत्ययः। क्यचि सुग् वक्तव्यः। अ० ७।१।५१ इति वार्तिकेन सुगागमः।] (तिस्रः वाचः) ऋग्यजुःसामलक्षणाः तिस्रो गिरः (उदीरते) उच्चारयन्ति, (यत्) यदा, त्वम् (अव्ये सानवि) जीवात्मनः उन्नते धाम्नि (एषि) प्राप्नोषि। [अविः रक्षकः आत्मा, तस्येदम् अव्यम् तस्मिन्। सानवि सानौ। अत्र बाहुलकाद् ‘अच्च घेः’ अ० ७।३।११९ इति न प्रवर्तते, ततो गुणेऽवादेशे च ‘सानवि’ इति रूपनिष्पत्तिः] ॥२॥

    भावार्थः

    सर्वेषामन्तरात्मनि पूर्वमेव विद्यमानः परमात्मा ध्यानेन वेदमन्त्राणां गानेन च प्रकटीकरणीयः ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।५०।२।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    On Thy realisation, upward rise three voices of Thy worshipper, when Thou manifestest Thyself in the heart elevated through mental abstraction.

    Translator Comment

    Thy and Thou' refer to God. Three voices refer to Rig, Sama and Yajur, pertaining to knowledge, meditation and action.

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    Meaning

    When you rise and reach the pinnacle of yajna which deserves to be protected and promoted, then as you rise in intensity, the priests chant of the three voices of Rks, Samans and Yajus also swells to the climax. (Rg. 9-50-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (प्रसवे) સૃષ્ટિની ઉત્પત્તિ સમયે (ते) તારી (तिस्रः वाचः) ઋગ્, યજુ, સામરૂપ અથવા સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનારૂપ ત્રણ વાણીઓ (मखस्युवः) અધ્યાત્મયજ્ઞને ચાહતી (उदीरते) ઉદ્ભૂત થાય છે. (यद्) જ્યારે તું પરમાત્મન્ (अव्यः सानवि) પૃથિવીના ઉચ્ચ સ્થાન-તિબેટ પર તથા પાર્થિવ દેહનાં સંભજનીય હૃદય અથવા અન્તઃકરણમાં પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वांच्या अंतरात्म्यात पूर्वीच विद्यमान असलेल्या परमेश्वराला ध्यानाद्वारे व वेदमंत्रांच्या गानाद्वारे प्रकट केले पाहिजे ॥२॥

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