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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1259
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    49

    ए꣣ष꣢ दे꣣वो꣡ र꣢थर्यति꣣ प꣡व꣢मानो दिशस्यति । आ꣣वि꣡ष्कृ꣢णोति वग्व꣣नु꣢म् ॥१२५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एषः꣢ । दे꣣वः꣢ । र꣣थर्यति । प꣡व꣢꣯मानः । दि꣣शस्यति । आविः꣢ । आ꣣ । विः꣢ । कृ꣣णोति । वग्वनु꣢म् ॥१२५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष देवो रथर्यति पवमानो दिशस्यति । आविष्कृणोति वग्वनुम् ॥१२५९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । देवः । रथर्यति । पवमानः । दिशस्यति । आविः । आ । विः । कृणोति । वग्वनुम् ॥१२५९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1259
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर जीवात्मा के विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (एषः) यह (देवः) कर्मफलों का भोक्ता जीव, कर्मफल भोगने के लिए (रथर्यति) शरीररूप रथ की इच्छा करता है। (पवमानः) शरीररूप रथ में जाता हुआ यह (दिशस्यति) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदियों को दिशा-निर्देश करता है और (वग्वनुम्) व्यक्त वाणी को (आविष्कृणोति) प्रकट करता अर्थात् उच्चारण करता है ॥४॥

    भावार्थ

    जीवात्मा मानव-देह पाकर ज्ञान का सञ्चय, सत्कर्मों का आचरण और व्यक्त वाणी से दूसरों को उपदेश यदि करता है तो उसका मनुष्य-जन्म पाना सफल हो जाता है ॥४॥

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    पदार्थ

    (एषः-पवमानः-देवः) यह आनन्दधारा में आता हुआ द्योतमान सोम परमात्मा (रथर्यति) उपासक को रथ-रमणस्थान बनाना चाहता है (दिशस्यति) उसे अपना आनन्दरस देना चाहता है (वग्वनुम्-आविष्कृणोति) मधुरवाणी५ आशीर्वाद-रूप को प्रकट करता है या उपासक की स्तुति वाणी को सफल करता है॥४॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु भक्त के सारथि बनते हैं

    पदार्थ

    १. (एषः) = यह (देवः) = पूर्ण ज्ञान से द्योतमान [द्युति], सब व्यवहारों के साधक [व्यवहार] प्रभु (रथर्यति) = [रथं कामयते]=भक्त के रथ को चाहते हैं, अर्थात् भक्त के रथ का वहन करने के लिए उसके सारथि बनते हैं । २. (पवमानः) = भक्त के जीवन को निरन्तर पवित्र करनेवाले प्रभु (दिशस्यति) = [दिशस्य=to direct] उसका ठीक मार्ग-प्रदर्शन करते हैं और उसे उन्नति के लिए सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कराना चाहते हैं [दिश् = अतिसर्जने] । ३. इसी उद्देश्य से प्रभु हृदयस्थरूप से (वग्वनुम्) = वेदवाणी को (आविष्कृणोति) = आविर्भूत करते हैं । यह वेदवाणी मार्ग-दर्शन तो करती ही है, साथ ही सब विज्ञानों को बताकर सब साधनों को जुटाने में सक्षम बनाती है ।

    भावार्थ

    प्रभु मेरे रथ के सारथि हों, मुझे उनका मार्ग दर्शन प्राप्त हो तथा मैं वेदवाणी को सुनूँ, जिसे प्रभु निरन्तर प्रकट कर रहे हैं ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (एषः) वह (देवः) प्रकाशमान, (पवमानः) समस्त शरीर और हृदय को पवित्र करता हुआ (रथर्यति) रथ के समान शरीर में रहता है और (दिशस्यति) उपदेश प्रदान करता और (वग्वनुम्) ज्ञानवाणी या स्तुति को (आविः कृणोति) प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनर्जीवात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    (एषः) अयम् (देवः) कर्मफलभोक्ता जीवः (रथर्यति२) कर्मफलानि भोक्तुं देहरथं कामयते। [रथर्यतीति सिद्धस्तत्प्रेप्सुः, रथं कामयत इति वा इति निरुक्तम् ६।२८। क्यचि रथीयति इति प्राप्ते छान्दसं रूपम्।] (पवमानः) देहरथं गच्छन् अयम् (दिशस्यति) मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादीनां दिङ्निर्देशं करोति। [दिश अतिसर्जने। दिशस् शब्दः कण्ड्वादिषु पठितव्यः।] किञ्च (वग्वनुम्) व्यक्तां वाचम् (आविष्कृणोति) प्रकटयति, उच्चारयति। [वच धातोर्नुप्रत्ययेन सिद्धः ‘वग्नु’ शब्दो वाङ्नामसु पठितः। निघं० १।११। वचेर्वनुच्प्रत्यये वग्वनुर्ज्ञेयः] ॥४॥

    भावार्थः

    जीवात्मा मानवदेहं प्राप्य ज्ञानसञ्चयं सत्कर्माचरणं व्यक्तया वाचा परोपदेशं च यदि करोति तदा तस्य मानवजन्मप्राप्तिः सफला जायते ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।३।५, ‘दशस्यति’ इति पाठः। २. रथर्यति रथं कामयते—इति सा०। रथैर्याति—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This brilliant soul, purifying the heart, resides in the body, as if it were a chariot. It preaches unto us, and lets its voice of knowledge be heard by all.

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    Meaning

    This spirit of divinity going forward like a chariot, pure, purifying, gives the gifts of life and reveals new and latest words of advance knowledge as it moves on. (Rg. 9-3-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषः पवमानः देवः) એ આનંદધારામાં આવીને પ્રકાશમાન પરમાત્મા (रथर्यति) ઉપાસકને ૨થ-૨મણ સ્થાન બનાવે છે. (दिशस्यति) તેને પોતાનો આનંદરસ આપવા ઇચ્છે છે. (वग्वनुम् आविष्कृणोति) મધુરવાણી આશીર્વાદ રૂપને પ્રકટ કરે છે અથવા ઉપાસકની સ્તુતિ વાણીને સફળ બનાવે છે. (૪)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा जेव्हा मानव-देह प्राप्त करून ज्ञानाचा संचय, सत्कर्मांचे आचरण व वाणीने दुसऱ्यांना उपदेश करतो तेव्हा त्याचा मनुष्य जन्म सफल होतो. ॥४॥

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