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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1307
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    19

    म꣣हा꣢꣫ꣳ इन्द्रो꣣ य꣡ ओज꣢꣯सा प꣣र्ज꣡न्यो꣢ वृष्टि꣣मा꣡ꣳ इ꣢व । स्तो꣡मै꣢र्व꣣त्स꣡स्य꣢ वावृधे ॥१३०७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म꣣हा꣢न् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । यः । ओ꣡ज꣢꣯सा । प꣣र्ज꣡न्यः꣢ । वृ꣣ष्टिमा꣢न् । इ꣣व । स्तो꣡मैः꣢꣯ । व꣣त्स꣡स्य꣢ । वा꣣वृधे ॥१३०७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महाꣳ इन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाꣳ इव । स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे ॥१३०७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । इन्द्रः । यः । ओजसा । पर्जन्यः । वृष्टिमान् । इव । स्तोमैः । वत्सस्य । वावृधे ॥१३०७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1307
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमात्मा का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    (यः इन्द्रः) जो परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर (वृष्टिमान् पर्यन्यः इव) वृष्टिजल से परिपूर्ण मेघ के समान (ओजसा) बल से (महान्) महान् है, वह (वत्सस्य) अपने पुत्र मानव की (स्तोमैः) प्रशस्तियों से (वावृधे) बढ़ता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे पुत्र की प्रशस्तियों से पिता प्रशस्त होता है, वैसे ही पहले से ही बादल के समान महान् परमेश्वर भी मानव की प्रशस्तियों से और अधिक महान् हो जाता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (ओजसा महान्) निज ऐश्वर्यबल से महान् (वृष्टिमान् पर्जन्यः-इव) वृष्टि करने वाले मेघ के समान सुख वृष्टि करने वाला (वत्सस्य स्तोमैः-वावृधे) वक्ता—स्तुतिकर्ता के स्तुतिवचनों से अधिकाधिक साक्षात् होता जाता है वह उपासनीय है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—वत्सः (स्तुतिवचन बोलने वाला)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    वत्स के स्तोम

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली, सर्वशक्तिमान् प्रभु (ओजसा) = अपने ओज के द्वारा (महान्) = बड़े हैं, पूजनीय हैं। प्रभु की शक्ति अनन्त है । जब कभी एक वैज्ञानिक प्रभु से निर्मित सूर्यादि पिण्डों का अध्ययन करता है तब उसका उनके निर्माता के प्रति नतमस्तक हो जाना स्वाभाविक ही है । २. वे प्रभु (वृष्टिमान् पर्जन्यः इव) = वृष्टिवाले बादल की भाँति हैं। जैसे एक वृष्टिवाला बादल चारों ओर शान्ति का विस्तार करके [परां तृप्तिं जनयति] एक उत्कृष्ट सन्तोष उत्पन्न करता है उसी प्रकार प्रभु भी स्तोता के हृदय में एक अद्भुत शान्ति उत्पन्न करते हैं । ३. ये प्रभु (वत्सस्य) = वेदमन्त्रों का उच्चारण करनेवाले [वदतीति वत्सः] के (स्तोमैः) = स्तोत्रों से (वावृधे) = निरन्तर बढ़ाये जाते हैं । प्रभु का स्तोता प्रभु की महिमा को उच्चारण द्वारा प्रकाशित करता है । उच्चारण द्वारा ही नहीं, यह अपने जीवन के द्वारा प्रभु की महिमा को बढ़ाता है। लोग जब इसके शान्त, दिव्य जीवन को देखते हैं तब उनका प्रभु के प्रति विश्वास बढ़ता है।

    भावार्थ

    हमारा जीवन प्रभु की महिमा का प्रकाश करनेवाला हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (वृष्टिमान्) वृष्टि करने वाला (पर्जन्यः इत्र) मेघ जिस प्रकार अपने सामर्थ्य से सर्वत्र फैल कर स्वयं वृष्टि करता है उसी प्रकार (यः) जो (इन्द्रः) इन्द्र (ओजसा) अपने बल से (महान्) बड़ा होकर (वत्सस्य) वत्स के समान अपने आश्रय पर रहने वाले समस्त संसार की (स्तोमैः) स्तुतियों द्वारा (वावृधे) बड़ा कीर्तिमान्, प्रसिद्ध होता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    (यः इन्द्रः) यः परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (वृष्टिमान् पर्जन्यः इव) वृष्टिजलयुक्तो मेघ इव (ओजसा) बलेन (महान्) महिमोपेतः अस्ति सः (वत्सस्य२) स्वपुत्रस्य मानवस्य (स्तोमैः) प्रशस्तिभिः (वावृधे) वर्धते ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    यथा पुत्रस्य प्रशस्तिभिः पिता प्रशस्तो जायते, तथैव पूर्वमेव पर्जन्यवन्महानपि परमेश्वरो मानवस्य प्रशस्तिभिर्महत्तरो जायते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like a cloud rich in rain , God is great in His power. He is glorified with the Vedic hymns sung by a Vedic scholar.

    Translator Comment

    $ 'Learned persons should try to become ऊर्ध्वरेतः i.e., live in perpetual celibacy.

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    Meaning

    Great is Indra by his power and splendour like the cloud charged with rain and waxes with pleasure in the dear devotees awareness by his child like hymns of adoration. (Rg. 8-6-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यः) જે (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (ओजसा महान्) નિજ ઐશ્વર્યબળથી મહાન (वृष्टिमान् पर्जन्यः इव) વૃષ્ટિ કરનાર મેઘની સમાન સુખવૃષ્ટિ કરનાર (वत्सस्य स्तोमैः वावृधे) વક્તા - સ્તુતિકર્તાનાં સ્તુતિ વચનોથી અધિકાધિક સાક્ષાત્ થઈ જાય છે , તે ઉપાસનીય છે. (૧)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे पुत्राच्या प्रशंसेने पिता प्रशंसनीय बनतो तसेच प्रथमपासूनच मेघाप्रमाणे महान परमेश्वरही मानवाच्या प्रशंसेने अधिक महान होतो. ॥१॥

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