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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1363
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    23

    क꣡ण्वा꣢ इव꣣ भृ꣡ग꣢वः꣣ सू꣡र्या꣢ इव꣣ वि꣢श्व꣣मि꣢द्धी꣣त꣡मा꣢शत । इ꣢न्द्र꣣ꣳ स्तो꣡मे꣢भिर्म꣣ह꣡य꣢न्त आ꣣य꣡वः꣢ प्रि꣣य꣡मे꣢धासो अस्वरन् ॥१३६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क꣡ण्वाः꣢꣯ । इ꣣व । भृ꣡गवः꣢꣯ । सू꣡र्याः꣢꣯ । इ꣣व । वि꣡श्व꣢꣯म् । इत् । धी꣣त꣢म् । आ꣣शत । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स्तो꣡मे꣢꣯भिः । म꣣ह꣡य꣢न्तः । आ꣣य꣡वः꣢ । प्रि꣣य꣡मे꣢धासः । प्रि꣣य꣢ । मे꣣धासः । अस्वरन् ॥१३६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वमिद्धीतमाशत । इन्द्रꣳ स्तोमेभिर्महयन्त आयवः प्रियमेधासो अस्वरन् ॥१३६३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कण्वाः । इव । भृगवः । सूर्याः । इव । विश्वम् । इत् । धीतम् । आशत । इन्द्रम् । स्तोमेभिः । महयन्तः । आयवः । प्रियमेधासः । प्रिय । मेधासः । अस्वरन् ॥१३६३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1363
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में स्तोताओं की उपलब्धि वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    (प्रियमेधासः) जिन्हें मेधा प्रिय है, ऐसे (आयवः) मनुष्य (इन्द्रम्) परमेश्वर की (महयन्तः) पूजा करते हुए (स्तोमेभिः) साम के स्तोत्रों से (अस्वरन्) उसकी स्तुति करते हैं। उसके अनन्तर वे (कण्वाः इव) मेधावी ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मणों के समान और (सूर्याः इव) सूर्यों के समान (भृगवः) तेजस्वी होते हुए (विश्वम् इत्) सभी (धीतम्) सोचे हुए अभीष्ट को (आशत्) प्राप्त कर लेते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा के उपासक लोग तेजस्विता और आत्मविश्वास प्राप्त करके पुरुषार्थ करते हुए सब अभीष्ट को पा लेते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (कण्वाः-इव) मेधावी२ (भृगवः) तेजस्वी (सूर्याः-इव) योग्य परमात्मा की ओर सरण—गमन करने वाले उपासक (धीतं विश्वमित्-आशत) ध्यान करने ध्यान में आने योग्य विश्व व्यापक को प्राप्त होते हैं (प्रियमेधासः-आयवः) प्रिय बुद्धि वाले जन (स्तोमेभिः) स्तुतिसमूहों से (इन्द्रं महयन्तः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा को प्रशंसित करते हुए (अस्वरन्) अर्चित३ करते हैं—श्रद्धापूर्वक अपने अन्दर बिठाते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    कण्व, भृगु व सूर्य

    पदार्थ

    उस (विश्वम्) = सम्पूर्ण संसार में, पदार्थमात्र में प्रविष्ट (धीतम्) =[आध्यातम्] सभी से जिसका ध्यान किया गया है, क्योंकि पापात्मा भी कष्ट आने पर प्रभु के आर्तभक्त बनते हैं— सुख में न सही दुःख में तो उसका स्मरण करते ही हैं— अत: सबसे ध्यात उस प्रभु को (इत्) = सचमुच (आशात) = प्राप्त करते हैं। कौन ? १. (कण्वाः इव) = जो पुरुष मेधावियों के समान बनते हैं । २. (भृगवः) = [भ्रस्ज् पाके] जो तपस्या के द्वारा अपना पूर्ण परिपाक करते हैं, तथा ३. (सूर्या: इव) = निरन्तर सरणशील सूर्य के समान जो सदा गतिशील रहते हैं – कभी अकर्मा नहीं बनते । एवं, प्रभु को वे प्राप्त करते हैं जिन्होंने मस्तिष्क, मन व शरीर की साधना ठीक प्रकार से की है। जिनके मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि दीप्त हो रही है, जिनका मानस तपःसंचय से पूर्ण पवित्र हो रहा है और जिनका शरीर सूर्य की भाँति निरन्तर कर्मशील बनकर श्रीसम्पन्न बना है [पश्य सूर्यस्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन् ] । ।

    ये (आयवः) = गति को अपनानेवाले मनुष्य एक भी क्षण अकर्मण्यता को धारण न करनेवाले (प्रियमेधासः) = जिनको बुद्धि ही प्रिय लगती है, ये उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली, सर्वशक्तिमान् प्रभु को (स्तोमेभिः) = स्तुतिसमूहों से (महयन्त:) = पूजित करते हुए (अस्वरन्) = वेदमन्त्रों का सुन्दर स्वर में गायन करते हैं । प्रभु की वाणी का इस प्रकार प्रेम से उच्चारण करते हुए ये क्यों उस प्रभु को न प्राप्त करेंगे ? 

    भावार्थ

    हम 'कण्व, भृगु व सूर्य' बनकर उस सर्वव्यापक, सबसे ध्यातव्य प्रभु को प्राप्त करें। मस्तिष्क, हृदय व हाथ [Head, Heart and Hands] सभी का ठीक विकास करके हम उस पवित्र प्रभु को प्राप्त कर 'मेध्यातिथि' इस अन्वर्थक नामवाले हों ।
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (भृगवः) पाप को भून डालने हारे, तपस्वी, (कण्वाः) विद्वान् पुरुष (सूर्या इव) सूर्य की किरणों के समान (विश्वम् इत्) इस समस्त संसार को (धीतम्) ज्ञान योग और ध्यान योग से प्राप्त कर के (आशत) भोग करते हैं। और वे (प्रियमेधासः) सूक्ष्म तत्वदर्शिनी, धारणावती बुद्धियों और ज्ञानधाराओं के प्रेमी (आयवः) मनुष्य (स्तोमेभिः) नाना प्रकार के स्तुति-वचनों से (इन्द्रं) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर की (महयन्तः) अर्चना करते हुए (अस्वरन्) वेद की स्तुतियों का गान करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘विश्वमिद्धीतमानशुः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ६ मेधातिथिः काण्वः। १० वसिष्ठः। ३ प्रगाथः काण्वः। ४ पराशरः। ५ प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ८ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा। ९ हिरण्यस्तूपः। ११ सार्पराज्ञी। देवता—१ इध्मः समिद्धो वाग्निः तनूनपात् नराशंसः इन्द्रश्चः क्रमेण। २ आदित्याः। ३, ५, ६ इन्द्रः। ४,७-९ पवमानः सोमः। १० अग्निः। ११ सार्पराज्ञी ॥ छन्दः-३-४, ११ गायत्री। ४ त्रिष्टुप। ५ बृहती। ६ प्रागाथं। ७ अनुष्टुप्। ४ द्विपदा पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ स्वरः—१,३, ११ षड्जः। ४ धैवतः। ५, ९ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८ पञ्चमः। ९, १० निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्तोतॄणामुपलब्धिमाह।

    पदार्थः

    (प्रियमेधासः) प्रियप्रज्ञाः। [प्रियमेधः प्रिया अस्य मेधा। निरु० ३।१७।] (आयवः) मनुष्याः (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (महयन्तः) पूजयन्तः (स्तोमेभिः) सामस्तोत्रैः (अस्वरन्) स्तुवन्ति। [स्वृ शब्दोपतापयोः, भ्वादिः।] ततश्च (कण्वाः इव) मेधाविनो ब्रह्मवर्चस्विनो ब्राह्मणाः इव, (सूर्याः इव) आदित्याः इव च (भृगवः२) तेजस्विनः सन्तः। [भ्रस्ज पाके। प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च। उ० १।२८ इत्यनेन कुः प्रत्ययः सम्प्रसारणं सलोपश्च।] (विश्वम् इत्) सर्वमेव (धीतम्) आध्यातम्, अभीष्टम् (आशत) प्राप्नुवन्ति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    परमात्मोपासकास्तेजस्वितामात्मविश्वासं च प्राप्य पुरुषार्थं कुर्वाणाः सर्वं समीहितं लभन्ते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The austere, learned persons, like the rays of the sun, enjoy the whole world through the force of knowledge and meditation. Persons, who are lovers of refined intellect, recite Vedic verses, worshipping God with songs of praise.

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    Meaning

    Brilliant scholars and sages as well as brave heroes of the human nation and loving and intelligent citizens of the land, praising and exalting Indra in one vaulting voice, rise and reach the presence of the lord in a world their own like rays of the sun filling the world of space they know. (Rg. 8-3-16)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (कण्वाः इव) મેધાવી (भृगवः) તેજસ્વી (सूर्याः इव) યોગ્ય પરમાત્માની તરફ સરણ-ગમન કરનારા ઉપાસકો (धीतं विश्वमित् आशत) ધ્યાન કરવામાં ધ્યાનમાં આવવા યોગ્ય વિશ્વ વ્યાપકને પ્રાપ્ત થાય છે. (प्रियमेधासः आयवः) પ્રિય બુદ્ધિવાળા જનો (स्तोमेभिः) સ્તુતિ સમૂહોથી (इन्द्रं महयन्तः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને પ્રશંસિત કરીને (अस्वरन्) અર્ચિત કરે છે-શ્રદ્ધાપૂર્વક અંદર બેસાડે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याचे उपासक लोक तेजस्विता व आत्मविश्वास प्राप्त करून पुरुषार्थ करत संपूर्ण अभीष्ट प्राप्त करून घेतात ॥२॥

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