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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1372
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    20

    उ꣣क्षा꣡ मि꣢मेति꣣ प्र꣡ति꣢ यन्ति धे꣣न꣡वो꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ दे꣣वी꣡रुप꣢꣯ यन्ति निष्कृ꣣त꣢म् । अ꣡त्य꣢क्रमी꣣द꣡र्जु꣢नं꣣ वा꣡र꣢म꣣व्य꣢य꣣म꣢त्कं꣣ न꣢ नि꣣क्तं꣢꣫ परि꣣ सो꣡मो꣢ अव्यत ॥१३७२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उक्षा꣢ । मि꣣मेति । प्र꣡ति꣢꣯ । य꣣न्ति । धेन꣡वः꣢ । दे꣣व꣡स्य꣢ । दे꣣वीः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । य꣣न्ति । निष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣣क्रमीत् । अ꣡र्जु꣢꣯नम् । वा꣡र꣢꣯म् । अ꣣व्यय꣢म् । अ꣡त्क꣢꣯म् । न । नि꣣क्त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । अ꣣व्यत ॥१३७२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षा मिमेति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवीरुप यन्ति निष्कृतम् । अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न निक्तं परि सोमो अव्यत ॥१३७२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षा । मिमेति । प्रति । यन्ति । धेनवः । देवस्य । देवीः । उप । यन्ति । निष्कृतम् । निः । कृतम् । अति । अक्रमीत् । अर्जुनम् । वारम् । अव्ययम् । अत्कम् । न । निक्तम् । परि । सोमः । अव्यत ॥१३७२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1372
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    (उक्षा) प्राणरूप बैल (मिमेति) डकरा रहा है, (धेनवः) इन्द्रियरूप गाएँ (प्रति यन्ति) बाह्य विषयों से लौट रही हैं। (देवीः) दिव्यगुणोंवाली मनोवृत्तियाँ (देवस्य) प्रकाशक जीवात्मा के (निष्कृतम्) आश्रय को (उप यन्ति) प्राप्त कर रही हैं। यह सब क्यों हो रहा है? क्योंकि (सोमः) जीवात्मा ने (अति) विघ्नों का अतिक्रमण करके (अर्जुनम्) श्वेत, निर्मल, (अव्ययम्) अविनश्वर (वारम्) वरणीय परमात्मा की ओर (अक्रमीत्) पग बढ़ाये हैं और (निक्तम्) शुद्ध (अत्कं न) कवच के समान, उसे (परि अव्यत) चारों और धारण कर लिया है ॥३॥ चतुर्थ चरण में उपमालङ्कार है, उत्तरार्धगत कारण से पूर्वार्धगत कार्य का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास भी है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा के प्राप्त हो जाने पर जीव कवचधारी के समान रक्षित हो जाता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (उक्षा मिमेति) जैसे साण्ड शब्द करता है८ (धेनवः प्रतियन्ति) गौवें उसके प्रति जाती हैं, ऐसे (देवस्य देवीः) सोम—परमात्मदेव की स्तुतिवाणियाँ९ (निष्कृतम्-उपयन्ति) उसी उपासित या उपासकों द्वारा उपासनीय सोम—परमात्मा के पास चली जाती हैं (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा (अर्जुनं-अव्ययं वारं-अत्यक्रमीत्) नित्य वरणीय शुद्ध—निर्मल आत्मा को अत्यन्त प्राप्त होता है (अत्कं न निक्तं परि-अव्यत) जैसे शुद्ध कवच को योद्धा परिप्राप्त होता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु बोलते हैं, हिरण्यस्तूप सुनता है

    पदार्थ

    १. (उक्षा) = वह महान् प्रभु [उक्षेति महन्नाम – नि० ३.३ उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः] (मिमेति) = शब्द करता है— सृष्टि के प्रारम्भ में ही वह वेदों का ज्ञान देता है । २. (धेनवः) = ये वेदवाणियाँ 'अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा' आदि ऋषियों की प्रतियन्ति ओर जाती हैं। प्रभु उच्चारण करते हैं और ये अग्नि आदि जो ‘हिरण्यस्तूप' हैं— ऊर्ध्वरेतस् हैं, वे इन वाणियों को सुनते हैं । ३. इस प्रकार (देवस्य) = दिव्य गुणोंवाले उस प्रभु की (देवी:) = ये दिव्य वेदवाणियाँ निष्कृतम्-अग्नि आदि के पवित्र हृदय को (उपयन्ति) = सम्यक् प्राप्त होती हैं। मलिन हृदय में इनका प्रकाश कैसे हो सकता है ? ४. इन दिव्य वाणियों को प्राप्त करके यह 'हिरण्यस्तूप' (अर्जुनम्) = सोने-चाँदी [Silver-gold] के (अव्ययम्) = सनातन – कभी क्षीण न होनेवाले (वारम्) = आक्रमण को अथवा आवरण को (अत्यक्रमीत्) = लाँघ जाता है। ज्ञान प्राप्त होने पर ये धन के लोभ से ऊपर उठ जाता है । ५. (सोमः) = यह सौम्य स्वभाववाला विद्वान् (अत्कम्) = [अत सातत्यगमने] निरन्तर गतिशील होने के (न) = समान (निक्तम्) = शुद्धस्वरूप प्रभु को (परि अव्यत) = अपने में (दोहने) = पूरण करने का प्रयत्न करता है ।

    नोट – १. (प्रतियन्ति) = प्रभु-वाणियाँ आती तो प्रत्येक की ओर हैं, परन्तु हमें फुरसत हो तब तो सुनें, हमें तो जीवन की उलझनें ही उलझाए रखती हैं। सरलता से चलेंगे तो अवश्य सुनेंगे । २. (निष्कृतम्) = हमारा हृदय परिमार्जित होगा तो हमें भी वे वाणियाँ अवश्य प्राप्त होंगी । ३. प्रभु पवित्र हैं, क्योंकि क्रियाशील हैं, मैं भी क्रियाशीलता के अनुपात में ही पवित्र बन पाऊँगा । ४. यह धन का आवरण-  हिरण्मयपात्र का आवरण तो अव्यय है, अपने आप नष्ट होनेवाला नहीं । इसे तो प्रयत्न करके ही दूर फेंकना पड़ेगा। ‘निष्कृतम्' का अर्थ [atonement] भी है, अतः जो भी परमेश्वर के साथ ऐक्य [at-one-ment] में होता है उसी को ये वाणियाँ प्राप्त होती हैं । 

    भावार्थ

    प्रभु बोलें – हम सुनें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    जैसे (उक्षा) वीर्य सेचन में समर्थ सांड (मिमेति) शब्द करता है और (धेनवः) गौएं (तं) उसकी तरफ (प्रति यन्ति) चलती हैं। इसी प्रकार (देवीः) दिव्यगुण वाली शक्तियां या बुद्धियां (देवस्य) दिव्यगुणयुक्त अन्तरात्मा के (निष्कृतं) गुप्त स्थान या विशुद्ध स्वरूप को भी (उपयन्ति) पहुंचती हैं। (सोमः) शुक्रस्वरूप सर्वप्रेरक शक्ति (अर्जुनम्*) शुभ्र या देह के उपचय अपचय करने में समर्थ (अव्ययम्) प्राणमय (वारम्) आवरणकारी कोष को (अति अक्रमीत्) अतिक्रमण करता है और (निक्रम्) शुद्ध (अत्कं) कवच के समान रक्षण करने हारे शरण योग्य पद को (अव्यत) प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    ‘उक्ष। मिमाति’ इति ऋ०। *ऋज गतिस्थानोपाजनेषु। ऋजी भृजी भर्जने। अर्ज वर्ज अर्जने,इति भ्वादयः। अर्ज प्रतियत्ने इति चुरादिः। एभ्यो बहुलमुण। अर्जुनः=गतिमान, स्दिरः, उपार्जनशीलः, भर्जनशीलः प्रतियत्नवान् इत्यर्थः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ६ मेधातिथिः काण्वः। १० वसिष्ठः। ३ प्रगाथः काण्वः। ४ पराशरः। ५ प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ८ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा। ९ हिरण्यस्तूपः। ११ सार्पराज्ञी। देवता—१ इध्मः समिद्धो वाग्निः तनूनपात् नराशंसः इन्द्रश्चः क्रमेण। २ आदित्याः। ३, ५, ६ इन्द्रः। ४,७-९ पवमानः सोमः। १० अग्निः। ११ सार्पराज्ञी ॥ छन्दः-३-४, ११ गायत्री। ४ त्रिष्टुप। ५ बृहती। ६ प्रागाथं। ७ अनुष्टुप्। ४ द्विपदा पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ स्वरः—१,३, ११ षड्जः। ४ धैवतः। ५, ९ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८ पञ्चमः। ९, १० निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (उक्षा) प्राणरूपो वृषभः। [अनड्वान् प्राण उच्यते। अथ० ११।४।] (मिमेति) शब्दायते। [माङ् माने शब्दे च जुहोत्यादिः। परस्मैपदं छान्दसम्।] (धेनवः) इन्द्रियरूपाः गावः (प्रति यन्ति) बाह्यविषयेभ्यो निवर्तन्ते। (देवीः) दिव्यगुणा मनोवृत्तयः (देवस्य) प्रकाशकस्य जीवात्मनः (निष्कृतम्) गृहम्, आश्रयम् (उप यन्ति) उपगच्छन्ति। एतत् सर्वं कुतो जायते ? यतः (सोमः) जीवात्मा (अति) विघ्नानतिक्रम्य (अर्जुनम्) श्वेतं, निष्कलुषम् (अव्ययम्) अविनश्वरम् (वारम्) वरणीयं परमात्मानं प्रति (अक्रमीत्) पादविक्षेपं कृतवान् अस्ति, अपि च (निक्तम्) शुद्धम्। [णिजिर् शौचपोषणयोः, निष्ठा।] (अत्कं न) कवचमिव तम्, (परि अव्यत) परि धारितवान् अस्ति। [व्येञ् संवरणे, भ्वादिः] ॥३॥ चतुर्थे पादे उपमालङ्कारः, उत्तरार्धगतेन कारणेन पूर्वार्धगतस्य कार्यस्य समर्थनादर्थान्तरन्यासश्च ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मनि प्राप्ते जीवः कवचधर इव रक्षितो जायते ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as the cows come nigh to the bellowing bull, so do divine forces approach the pure nature of the soul. The all-impelling power, competent to watch the decay and growth of the body, crossing the covering of physical vigour, attains to a pure stage where it protects us like an armour.

    Translator Comment

    All-impelling power means intellect.

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    Meaning

    The generous virile soul overflowing with soma joy vibrates with Infinity, the senses having returned inward like cows to the stall. The enlightened mind and thoughts of the holy soul unite with the hallowed centre of the spirit. The soul breaks through its existential cover, returns to its original imperishable purity, and Soma protects it as a pilgrim cleansed and redeemed. (Rg. 9-69-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उक्षा मिमेति) જેમ સાંઢ શબ્દ કરે છે. (धेनवः प्रतियन्ति) ગાયો તેની તરફ જાય છે, તેમ (देवस्य देवीः) સોમ-પરમાત્મદેવની સ્તુતિવાણીઓ (निष्कृतम् उपयन्ति) તે ઉપાસિત અથવા ઉપાસકો દ્વારા ઉપાસનીય સોમ-પરમાત્માની પાસે ચાલી જાય છે. (सोमः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (अर्जुनं अव्ययं वारम् अत्यक्रमीत्) નિત્ય વરણીય શુદ્ધ-નિર્મળ આત્માને અત્યંત પ્રાપ્ત થાય છે. (अत्कं न निक्तं परि अव्यत) જેમ નિર્મળ કવચને યોદ્ધાઓ પરિપ્રાપ્ત થાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा प्राप्त झाल्यावर जीव कवचधारी (व्यक्ती) प्रमाणे रक्षित होतो. ॥३॥

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