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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1397
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
80
ग꣡र्भे꣢ मा꣣तुः꣢ पि꣣तु꣢ष्पि꣣ता꣡ वि꣢दिद्युता꣣नो꣢ अ꣣क्ष꣡रे꣢ । सी꣡द꣢न्नृ꣣त꣢स्य꣣ यो꣢नि꣣मा꣢ ॥१३९७॥
स्वर सहित पद पाठग꣡र्भे꣢꣯ । मा꣣तुः꣢ । पि꣣तुः꣢ । पि꣣ता꣢ । वि꣣दिद्युतानः꣢ । वि꣣ । दिद्युतानः꣢ । अ꣣क्ष꣡रे꣢ । सी꣡द꣢꣯न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । आ ॥१३९७॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भे मातुः पितुष्पिता विदिद्युतानो अक्षरे । सीदन्नृतस्य योनिमा ॥१३९७॥
स्वर रहित पद पाठ
गर्भे । मातुः । पितुः । पिता । विदिद्युतानः । वि । दिद्युतानः । अक्षरे । सीदन् । ऋतस्य । योनिम् । आ ॥१३९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1397
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर आचार्य का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ
जो (मातुः) माता सावित्री के (गर्भे) गर्भ में स्थित हो चुका है, जो (पितुः) मेरे पिता का भी (पिता) द्वितीय जन्म देनेवाला है, जो (अक्षरे) अक्षर परब्रह्म में (विदिद्युतानः) विशेषरूप से प्रकाशमान है और जो (ऋतस्य) सत्य ज्ञान के (योनिम्) कारणभूत वेद के (आसीदन्) निकट स्थित है, वह (अग्निः) विद्या से प्रकाशित आचार्य, मेरे (वृत्राणि) दोषों को (जङ्घनत्) अतिशयरूप से नष्ट करे। [यहाँ अग्निः वृत्राणि, जङ्घनत् पद पूर्वमन्त्र से लाये गए हैं] ॥२॥
भावार्थ
जो स्वयं सावित्री और आचार्य के गर्भ में रहकर द्विज हो चुका है, वही विद्वान् सच्चरित्र आचार्य शिष्यों को विद्वान् बनाने तथा उनके दोषों को दूर करने में समर्थ होता है ॥२॥
पदार्थ
(मातुः-पितुः-अक्षरे गर्भे) पृथिवी के द्युलोक के२ अविनाशी गर्भ—गर्भरूप प्रकृतिनामक अव्यक्त उपादान कारण में व्यापक (पिता विदिद्युतानः) पालक—उपादान कारण का पालक एवं सब का पालक परमात्मा विशेष प्रकाशमान है (ऋतस्य योनिम्-आसीदन्) सत्यज्ञान के आधार वेद को आस्थापित—प्रकाशित करता हुआ ‘वृत्राणि जङ्घनत्’ अज्ञानान्धकार पाप को नष्ट करता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
'अग्नि' का निर्माण मातृगर्भ में
पदार्थ
यह सिद्धान्त अब सुज्ञात है कि बालक का वास्तविक निर्माण मातृगर्भ में ही होता है । उस समय माता की एक-एक क्रिया बच्चे को प्रभावित कर रही होती है । 'दिवास्वपन्त्याः स्वापशीलः ' इत्यादि ब्राह्मणग्रन्थों के वाक्य इस सिद्धान्त को पुष्ट कर रहे हैं। मन्त्र कहता है कि (मातुः गर्भे) = माता के गर्भ में ही बालक (पितुः पिता) = पिता का पिता, अर्थात् ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी बन सकता है । वहाँ इसकी शिक्षा के ठीक होने पर यह संसार में आ-आता है, कैसा बनकर ? १. (अक्षरे विदिद्युतानः) = अक्षरों में विशेषरूप से देदीप्यमान, अर्थात् अनक्षर [Illiterate नहीं, साक्षर literate] = विद्वान् तथा २. (ऋतस्य योनिम् आसीदन्) = ऋत के स्थान में निवास करता हुआ ।
इस कथन से स्पष्ट है कि माता चाहे तो बालक को ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी तथा संयमी बना सकती है। संस्कृत साहित्य में ज्ञानी को 'पिता' कहते हैं । यह बालक ज्ञानियों का भी ज्ञानी बनने से ‘पितुः पिता' कहा गया है। ‘ऋत' का अभिप्राय 'ठीक स्थान पर तथा ठीक समय पर' है। माता चाहे तो बालक को इस प्रकार बड़ा मर्यादामय जीवनवाला बना सकती है । एवं, ज्ञानी और संयमी पुरुष का निर्माण तो मातृगर्भ में ही होता है। जिस प्रकार दो अरणियों के सम्पर्क से भौतिक अग्नि की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार माता-पितारूप अरणियों से सन्तानरूप अग्नि का उद्भावन होता है। मातृरूप अरणि ने इस सन्तानाग्नि को बड़ा देदीप्यमान तथा ॠत की योनि में स्थित होनेवाला बनाना है ।
भावार्थ
माताएँ चाहें तो बच्चों को ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी व संयमी बना सकती हैं।
विषय
missing
भावार्थ
(पितुः पिता) सब पालकों का पालक, पिता का भी पिता, (अग्निः) ज्ञानवान् परमात्मा (अक्षरे) अविच्युत, स्थिर (मातुः) प्रमाता आत्मा के (गर्भे) अन्तःकरण में (विदिद्युतानः) प्रकाश करता हुआ (ऋतस्य) सत्य ज्ञान के (योनिं) मूल आश्रय ईश्वरीय ज्ञान, वेद को (आसीदन्) स्थापना करता हुआ समस्त आवरणरूप अज्ञानान्धकारों का नाश करता है। अथवा सूर्य आदि पालकों का उत्पादक ज्ञानी एवं सबका अग्रणी, अनादि सिद्ध परमेश्वर (मातुः गर्भे) जगत् को रचाने वाली प्रकृति के गर्भ में, उसके बीच (विदिद्युतानः) अपने प्रकाश को स्थापित करता हुआ (ऋतस्य योनिम्) अव्यक्त जगत् के मूल कारण रूप तत्व को (आसीदन्) अपने वश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनराचार्यविषयमाह।
पदार्थः
यः (मातुः) सावित्र्याः (गर्भे) उदरे स्थितः, यः (पितुः) मम पितुरपि (पिता) द्वितीयजन्मप्रदाता अस्ति यः (अक्षरे)अविनश्वरे परब्रह्मणि (विदिद्युतानः) विशेषेण प्रकाशमानो विद्यते, यश्च (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य (योनिम्)कारणभूतम् वेदम् (आसीदन्) आसन्नो वर्तते, स मम वृत्राणि दोषान् जङ्घनत् भृशं हन्यादिति पूर्वेण सम्बन्धः ॥२॥२
भावार्थः
यः स्वयं सावित्र्या आचार्यस्य च गर्भे स्थित्वा द्विजन्मा जातः स एव विद्वान् सच्चरित्र आचार्यः शिष्यान् विदुषः कर्तुं तेषां दोषांश्चापहर्तुं क्षमते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
God, the Father of fathers, shining inside the everlasting soul, banishes all ignorance by revealing the Vedas, the source of true knowledge.
Meaning
Agni, life of life and light of the universe, present in the interior of mother earth, sustainer of the sun, father of earth and her children, shining in his own eternal self, in the individual soul and in the world of imperishable Prakrti, the spirit of the universe, pervades and inspires the ruling laws of eternal truth and the world of existence. (Rg. 6-16-35)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (मातुः पितुः अक्षरे गर्भे) પૃથિવીના દ્યુલોકના અવિનાશી ગર્ભ-ગર્ભરૂપ પ્રકૃતિ નામક અવ્યક્ત ઉપાદાન કારણમાં વ્યાપક (पिता विदिद्युतानः) પાલક-ઉપાદાન કારણનો પાલક અને સર્વનો પાલક પરમાત્મા વિશેષ પ્રકાશમાન છે. (ऋतस्य योनिम् आसीदन्) સત્ય જ્ઞાનના આધાર વેદને આસ્થાપિત-પ્રકાશિત કરીને (वृत्राणि जङ्घनत) અજ્ઞાન અંધકાર પાપને નષ્ટ કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जो स्वत: सावित्री व आचार्याच्या गर्भात राहून द्विज बनलेला आहे, तोच विद्वान सच्चरित्र आचार्य शिष्यांना विद्वान बनविण्यासाठी व त्यांचे दोष दूर करण्यास समर्थ असतो. ॥२॥
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