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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1400
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
19
भ꣣द्रा꣡ वस्त्रा꣢꣯ सम꣣न्या꣢३꣱व꣡सा꣢नो म꣣हा꣢न्क꣣वि꣢र्नि꣣व꣡च꣢नानि꣣ श꣡ꣳस꣢न् । आ꣡ व꣢च्यस्व च꣣꣬म्वोः꣢꣯ पू꣣य꣡मा꣢नो विचक्ष꣣णो꣡ जागृ꣢꣯विर्दे꣣व꣡वी꣢तौ ॥१४००॥
स्वर सहित पद पाठभ꣣द्रा꣢ । व꣡स्त्रा꣢꣯ । स꣣मन्या꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । म꣣हा꣢न् । क꣣विः꣢ । नि꣣व꣡च꣢नानि । नि꣣ । व꣡च꣢꣯नानि । श꣡ꣳस꣢꣯न् । आ । व꣣च्यस्व । च꣣म्वोः꣢ । पू꣣य꣡मा꣢नः । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ । जा꣡गृ꣢꣯विः । दे꣣व꣡वी꣢तौ । दे꣣व꣢ । वी꣣तौ ॥१४००॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रा वस्त्रा समन्या३वसानो महान्कविर्निवचनानि शꣳसन् । आ वच्यस्व चम्वोः पूयमानो विचक्षणो जागृविर्देववीतौ ॥१४००॥
स्वर रहित पद पाठ
भद्रा । वस्त्रा । समन्या । वसानः । महान् । कविः । निवचनानि । नि । वचनानि । शꣳसन् । आ । वच्यस्व । चम्वोः । पूयमानः । विचक्षणः । वि । चक्षणः । जागृविः । देववीतौ । देव । वीतौ ॥१४००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1400
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में मानव को उद्बोधन दिया गया है।
पदार्थ
हे मानव ! (समन्या) सङ्ग्राम के योग्य, (भद्रा) उत्तम (वस्त्रा) वस्त्रों को (वसानः) पहनता हुआ, (महान्) महान् (कविः) विद्वान्, (निवचनानि) स्तोत्रों का (शंसन्) कीर्तन करता हुआ, (चम्वोः) आत्मा और मन में (पूयमानः) पवित्र किया जाता हुआ, (विचक्षणः) दूरद्रष्टा, (देववीतौ) परमात्मा की पूजा में (जागृविः) जागरूक तू (आवच्यस्व) चारों ओर प्रशंसा प्राप्त कर ॥२॥
भावार्थ
विघ्नों और विपदाओं से भरे होने के कारण सङ्ग्राम-तुल्य जीवन में मनुष्य हृदय में वीर-भाव रखकर, वीरोचित वेशभूषा आदि धारण कर, वीरोचित कार्यों को करता हुआ, जागरूक, पवित्र मनवाला परमेश्वर का पूजक होता हुआ यशस्वी बने ॥२॥
पदार्थ
(समन्या भद्रा वस्त्रा वसानः) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू उपासकों को सम्यक् जीवन देने योग्य७ तथा शान्तिप्रद आच्छादनों—अपनी आनन्दतरङ्गों को ओढ़ता हुआ (महान् कविः) महान् वक्ता ज्ञानी सर्वज्ञ (निवचनानि शंसन्) रहस्यमय वचनों को—प्रेमभरे उपदेशों को कथन करता हुआ (विचक्षणः) विशेष दर्शक (जागृविः) जागरूक—जागृतिप्रद (देववीतौ) देवों—मुमुक्षुओं की कामपूर्त्ति स्थली मुक्ति के निमित्त (चम्वोः पूयमानः) आनन्द का आचमन—आस्वादन कराने वाले मेरे मन और अहङ्कार पात्रों में धारारूप से प्राप्त होने को (आवच्यस्व) आगमन कर८॥२॥
विशेष
<br>
विषय
प्रभु के सात आदेश
पदार्थ
प्रभु कहते हैं कि हे जीव ! (देववीतौ) = दिव्य गुणों की (व्याप्ति) = प्राप्ति के निमित्त (आवच्यस्व) = तू समन्तात् गतिवाला हो । क्या करता हुआ ? १. (भद्रा) = कल्याणकर (समन्या) = संग्राम के योग्य [समन= संग्राम] अथवा व्याकुलता पैदा न करनेवाले [षम्-अवैक्लव्ये] (वस्त्रा वसानः) = वस्त्रों को धारण करता हुआ। वस्त्र ऐसे होने चाहिएँ जो [क] सरदी-गरमी से बचाकर कल्याण करें [ख] रोगों से मुक़ाबला करने के लिए उचित हों [ग] घबराहट को पदा करनेवाले न हों । एवं, शरीर की नीरोगता के दृष्टिकोण से ही वस्त्र-व्यवस्था होनी चाहिए । २. (महान्) = हृदय में महान् बनता हुआ, दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए हृदय की विशालता अत्यन्त आवश्यक है। संकुचित हृदय के साथ दिव्य गुणों का वास नहीं । ३. (कवि:) = तू क्रान्तदर्शी बन । वस्तुओं को ठीक रूप में देखनेवाले उनमें आसक्त नहीं होते और दिव्य गुणों की ओर बढ़ पाते हैं । ४. (निवचनानि) = प्रभु के गुणवर्णनात्मक वचनों का शंसन्=उच्चारण करता हुआ । ये वचन ही हमारे सामने एक उच्च लक्ष्यदृष्टि पैदा करते हैं । ५. (चम्वोः पूयमानः) = द्यावापृथिवी में, अर्थात् शरीर व मस्तिष्क में पवित्र होता हुआ । प्रभुगुण-वर्णन शरीर व मस्तिष्क दोनों को ही निर्मल बनाता है । ६. (विचक्षणः) = एक विशिष्ट दृष्टिकोणवाला । संसार में यदि हमारे जीवन का एक उत्कृष्ट दृष्टिकोण होगा तभी हम कुछ उन्नति कर पाएँगे, इसके बिना तो बहनामात्र [Drifting] होता है, उन्नति नहीं । ७. (जागृविः) = एक ऊँची लक्ष्यदृष्टि के साथ हमें सदा जागते हुए होना चाहिए, असावधानी से तो न जाने कब हम वासनाओं का शिकार हो जाएँ ?
भावार्थ
प्रभु उपदेश के अनुसार मन्त्र वर्णित सात बातों को हम अपने जीवनों में सप्त=समवेत करने के लिए यत्नशील हों ।
विषय
missing
भावार्थ
हे सोम ! महायोगिन् विद्वन् ! (भद्रा) कल्याणकारी (समन्या) परस्पर प्रेम पूर्वक सम्मिलन करने योग्य, या संग्राम योग्य, केसरिया, तेजस्वी या काषाय (वस्त्रा) वस्त्र (वसानः) धारण करता हुआ (महान्) बड़ा (कविः) मेधावी पुरुष होकर (निवचनानि) निरन्तर उपदेश करने योग्य वचनों को (शंसन्) उपदेश करता हुआ (विचक्षणः) भले बुरे, सत् असत् का विवेक करता हुआ (देववीतौ) परमेश्वर के प्राप्ति के मार्ग में (पूयमानः) अपने अन्तःकरण से पवित्र होकर (चम्वोः) द्यौलोक और पृथिवी ज्ञानवान् और अज्ञानी दोनों प्रकार के जनों में (आवच्यस्व) विचरण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मानवमुद्बोधयति।
पदार्थः
हे मानव ! (समन्या) समन्यानि संग्रामयोग्यानि। [समनम् इति संग्रामनाम। निघं० २।१७।] (भद्रा) भद्राणि (वस्त्रा) वस्त्राणि(वसानः) धारयन्, (महान्) महत्त्वशाली, (कविः) विद्वान्, (निवचनानि) स्तोत्राणि (शंसन्) कीर्तयन् (चम्वोः) आत्ममनसोः (पूयमानः) पवित्रीक्रियमाणः, (विचक्षणः) दूरद्रष्टा, (देववीतौ) परमात्मपूजायाम् (जागृविः) जागरूकः त्वम् (आ वच्यस्व) समन्ततः प्रशंसां प्राप्नुहि। [वचेः सम्प्रसारणाभावश्छान्दसः] ॥२॥
भावार्थः
विघ्नैर्विपद्भिश्च परिपूर्णत्वात् संग्रामकल्पे जीवने मानवो हृदि वीरभावान् निधाय वीरोचितं वेशभूषादिकं संधार्य वीरोचितानि कार्याणि कुर्वन् जागरूको मनसा पवित्रः परमेश्वरपूजकश्च सन् यशस्वी भवेत् ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Yogi, robed in fair raiment meet to wear in combat, pronouncing invocations as a mighty sage, distinguishing between virtue: and vice, truth and untruth, pure in heart, free from sloth, move amongst the learned and the ignorant, treading on the path of acquisition of God!
Meaning
O holy Soma power, pure, purified and purifying, wearing vestments of a fighting force, great and creative, expressive loud and bold, come, expand and resound between heaven and earth over all things material and spiritual, ever watchful, ever awake, in the service of divinities in yajna. (Rg. 9-97-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (समन्या भद्रा वस्त्रा वसानः) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું ઉપાસકોને સમ્યક્ જીવન આપવા યોગ્ય તથા શાન્તિપ્રદ આવરણો-પોતાના આનંદ તરંગોને ઓઢીને (महान् कविः) મહાન વક્તા, જ્ઞાની, સર્વજ્ઞ (निवचनानि शंसन्) રહસ્યમય વચનોનું-પ્રેમપૂર્ણ ઉપદેશોનું કથન કરતાં (विचक्षणः) વિશેષ દર્શક (जागृविः) જાગરુક-જાગૃતિપ્રદ (देववीतौ) દેવો-મુમુક્ષુઓની કામપૂર્તિ સ્થાન મોક્ષના માટે (चम्वोः पूयमानः) આનંદનું આચમન-આસ્વાદન કરાવનાર મારા મન અને અહંકાર પાત્રોમાં ધારારૂપથી પ્રાપ્ત થવા માટે (आवच्यस्व) આગમન કર-આવ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
विघ्न व विपदा युक्त या जीवनसंग्रामात माणसाने वीरभावयुक्त बनून, वीरोचित वेशभूषा इत्यादी धारण करावी व वीरोचित कार्य करून जागरूक, पवित्र मनाने परमेश्वराचा पूजारी बनून यशस्वी व्हावे. ॥२॥
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