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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1406
    ऋषिः - सुतंभर आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    30

    अ꣣ग्नि꣡र्जु꣢षत नो꣣ गि꣢रो꣣ हो꣢ता꣣ यो꣡ मानु꣢꣯षे꣣ष्वा꣢ । स꣡ य꣢क्ष꣣द्दै꣢व्यं꣣ ज꣡न꣢म् ॥१४०६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣ग्निः꣢ । जु꣣षत । नः । गि꣡रः꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । यः । मा꣡नु꣢꣯षेषु । आ । सः । य꣣क्षत् । दै꣡व्य꣢꣯म् । ज꣡न꣢꣯म् ॥१४०६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्जुषत नो गिरो होता यो मानुषेष्वा । स यक्षद्दैव्यं जनम् ॥१४०६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । जुषत । नः । गिरः । होता । यः । मानुषेषु । आ । सः । यक्षत् । दैव्यम् । जनम् ॥१४०६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1406
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह कथन है कि परमेश्वर हमारे लिए क्या करे।

    पदार्थ

    (अग्निः) अग्रनायक परमेश्वर (नः) हमारी (गिरः) स्तुति वा प्रार्थना की वाणियों को (जुषत) स्वीकार करे, (यः) जो परमेश्वर (मानुषेषु) मनुष्यों में (होता) उनके जीवन-यज्ञ का होता बनकर (आ) निवास कर रहा है। (सः) वह (दैव्यम्) दिव्यगुणों में निष्णात (जनम्) विद्वान् जन को (यक्षत्) हमें प्रदान करे ॥२॥

    भावार्थ

    जिस राष्ट्र में दिव्य गुणों से युक्त विद्वान् मनुष्य होते हैं, वह राष्ट्र अत्यन्त उन्नत होता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (अग्निः) परमात्मा (नः-गिरः-जुषत) हमारी स्तुतियों को सेवन करे—स्वीकार करे (यः-होता मानुषेषु-आ) जो कि अपनानेवाला, मननशील उपासकों के अन्दर आभासित—साक्षात् होता है (सः-दैव्य जनं यक्षत्) वह मुमुक्षुजन को अपनी सङ्गति में लेता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    हमें सत्सङ्ग प्राप्त हो

    पदार्थ

    (अग्निः) = हमारी उन्नति का साधक प्रभु (यः) = जो मानुषेषु मानवहित करनेवालों को (आहोता) = समन्तात् सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करानेवाला है (नः गिरः) = हमारी वाणियों का (जुषत) = प्रीतिपूर्वक सेवन करे, अर्थात् प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनें । (सः) = वे प्रभु (दैव्यं जनम्) = दिव्य गुणयुक्त मनुष्यों को यक्षत् [यजत्]=हमारे साथ सङ्गत करें, जिससे हमारे आचार-विचार सदा शुद्ध बने रहें । सङ्ग का प्रभाव सुव्यक्त है। सत्सङ्ग से जीवन सुन्दर बनता है तो कुसङ्ग से वह विनष्ट हो जाता है । सबकुछ देनेवाले तो प्रभु ही हैं, वे ही सर्वमहान्, मानवहित-साधक हैं - वे प्रभु हमें तो सत्सङ्ग ही प्राप्त कराएँ 'सतां सङ्गो हि भेषजम् = सज्जनसङ्ग सब आसुरवृत्तिरूप रोगों का औषध है। सत्सङ्ग से हमारा जीवन यज्ञशील होगा- हम 'सुतम्भर' होंगे । सुतम्भर ही प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है। यज्ञों को करता हुआ यह ‘काम, क्रोध, लोभ' से ऊपर उठा रहता है, अत: 'आत्रेय' कहलाता है। [नहीं है 'काम, क्रोध, लोभ' जिसमें] ।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हम सदा सत्सङ्ग को प्राप्त करें । हमारी रुचि मानवहितकारी कर्मों में हो— हम उसी में धनों का व्यय करें – प्रभु हमें और देंगे ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (यः) जो (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वर (होता) समस्त संसार का आदान और विसर्ग, प्रलय और सर्ग करने हारा (मानुषेषु) समस्त मननशील पुरुषों के हृदयों में (आ) साक्षात् रूप से विद्यमान होकर (नः) हमारी (गिरः) समस्त वाणियों को (जुषते) श्रवण करता है (सः) वही (दैव्यम्) दिव्यगुणयुक्त, ज्ञानप्रकाश वाले (जनं) दिव्य पदार्थ और मोक्षस्थ आत्मा को (यक्षत्) आनन्द सुख प्रदान करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरोऽस्मभ्यं किं कुर्यादित्याशास्यते।

    पदार्थः

    (अग्निः) अग्रनायकः परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (गिरः) स्तुतिवाचः प्रार्थनावाचो वा (जुषत) सेवेत, स्वीकुर्यात्। [जुषी प्रीतिसेवनयोः तुदादिः, विध्यर्थे लङि अडागमाभावः।] (यः) परमेश्वरः (मानुषेषु) मनुष्येषु (होता) तेषां जीवनयज्ञस्य निष्पादकः सन् (आ) आवसति। [उपसर्गश्रुत्या योग्यक्रियाध्याहारः।] (सः) असौ (दैव्यम्) दिव्येषु गुणेषु निष्णातम् (जनम्) विद्वांसम् (यक्षत्) अस्मभ्यं प्रदद्यात्। [यज दानार्थः, सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४ इति सिबागमे रूपम्] ॥२॥२

    भावार्थः

    यस्मिन् राष्ट्रे दिव्यगुणा विद्वांसो जना भवन्ति तद् राष्ट्रं समुन्नतं जायते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Who is the Creator and Dissolver of the Universe, Who resides in the hearts of all contemplative persons, listens to our praise-songs. He alone bestoweth joy on, the divine emancipated soul.

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    Meaning

    May Agni, life and light and fire of the world, yajaka, creator and giver of wealth among the people, hear and accept our prayer, come and join the brilliant creative geniuses and bless us with wealth. (Rg. 5-13-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्निः) પરમાત્મા (नः गिरः जुषत) અમારી સ્તુતિઓનું સેવન કરે-સ્વીકાર કરે (यः होता मानुषेषु आ) જે અપનાવનારા, મનનશીલ ઉપાસકોની અંદર આભાસિત-સાક્ષાત્ થાય છે. (सः  दैव्य जनं यक्षत्) તે મુમુક્ષુજનને પોતાની સંગતિમાં લાવે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या राष्ट्रात दिव्य गुणांनी युक्त विद्वान माणसे असतात, ते राष्ट्र अत्यंत उन्नत होत. ॥२॥

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