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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1438
    ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    29

    स꣡ न꣢ ऊ꣣र्जे꣢ व्य꣣꣬३꣱व्य꣡यं꣢ प꣣वि꣡त्रं꣢ धाव꣣ धा꣡र꣢या । दे꣣वा꣡सः꣢ शृ꣣ण꣢व꣣न्हि꣡ क꣢म् ॥१४३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः꣢ । नः꣣ । ऊर्जे꣢ । वि । अ꣣व्य꣡य꣢म् । प꣣वि꣡त्र꣢म् । धा꣣व । धा꣡र꣢꣯या । दे꣣वा꣡सः꣢ । शृ꣣ण꣡व꣢न् । हि । क꣣म् ॥१४३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स न ऊर्जे व्य३व्ययं पवित्रं धाव धारया । देवासः शृणवन्हि कम् ॥१४३८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । ऊर्जे । वि । अव्ययम् । पवित्रम् । धाव । धारया । देवासः । शृणवन् । हि । कम् ॥१४३८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1438
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे पुनः उसी विषय में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे भक्तवत्सल देव ! (सः) वह प्रसिद्ध आप (नः) हमें (ऊर्जे) बल और प्राणशक्ति देने के लिए हमारे (पवित्रम्) पवित्र (अव्ययम्) अविनाशी अन्तरात्मा को (धारया) आनन्द की धारा के साथ (वि धाव) शीघ्रता से प्राप्त होवो। (देवासः) विद्वान् उपासक लोग (हि) अवश्य (कम्) सुख से (शृणवन्)आपके सन्देशों को सुनें ॥४॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर की मैत्री में निवास करते हुए स्तोता जन बल, प्राणशक्ति, आनन्द और दिव्य सन्देश प्राप्त करके धार्मिक जीवन व्यतीत करते हैं ॥४॥

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    पदार्थ

    (सः) वह तू सोम—परमात्मन्! (नः-ऊर्जे) हमारे आनन्दरस के लिये (अव्ययं पवित्रं धारया विधाव) अवि—पृथिवी—पृथिवीमय६ पार्थिव हृदय—प्राप्तिस्थान के प्रति धारण शक्ति से विशेषरूप में प्राप्त हो७ (देवासः-हि कम्-शृण्वन्) इन्द्रियाँ भी तेरे सुख को अनुभव करें या स्वीकार करें—अपनावें॥४॥

    विशेष

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    विषय

    सोमों की श्रृंखला

    पदार्थ

    चन्द्र ओषधीश है— इस सोम नामवाले चन्द्र से ओषधियों में रस का सञ्चार होता है। ओषधियों का राजा भी ‘सोम' कहलाता है । यह जब यज्ञ में आहुत होता है तब वृष्टि होकर सात्त्विक सौम्य अन्न उत्पन्न होता है। इस सौम्य अन्न से शरीर में 'सोम' की उत्पत्ति होती है । एवं, आधिदैविक सोम [चन्द्र] से पार्थिव सोम [लता] की उत्पत्ति होती है, उससे अध्यात्म सोम [semen] बनता है। इस सोम की ऊर्ध्वगति होने पर सोम [परमात्मा] के दर्शन होते हैं । एवं, इन सोमों में कार्यकारणभाव चलता है।

    शरीर में उत्पन्न सोम से 'कविर्भार्गव' कहता है कि (सः) = वह तू (न:) = हमारी (ऊर्जे) = बल और प्राणशक्ति के लिए अपनी (धारया) = धारक शक्ति के साथ (पवित्रम्) = पवित्र तथा (अव्ययम्) = [अ-वि अय] विविध विषय-वासनाओं की ओर न जानेवाले हृदय की ओर (विधाव) = विशेषरूप से गतिवाला हो । वीर्य की ऊर्ध्वगति का ही परिणाम है कि १. शरीर बल व प्राणशक्ति-सम्पन्न बनता है, २. हृदय पवित्र होता है और ३. यह चञ्चलचित्त विषय-वासनाओं की ओर न जाकर स्थिर होने लगता है।

    हे सोम! तू ऊर्ध्वगतिवाला ही हो, जिससे (देवासः) = लोग पवित्र हृदय व दिव्य गुणोंवाले बनकर (हि) = निश्चय से (कम्) = उस आनन्दमय प्रभु को (शृणवन्) = सुनें । पवित्र हृदय में प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है। एवं, सोम की ऊर्ध्वगति के अगले परिणाम हैं- ४. मनुष्य दिव्य गुणोंवाला बनता है ५. हृदयस्थ प्रभु की आनन्दमयी वाणी को सुनता है ।

    भावार्थ

    वृष्टिजलों से उत्पन्न सात्त्विक अन्न हममें उस सोम को जन्म दे जो ऊर्ध्वगतिवाला होकर १. हमें बल व प्राणशक्तिसम्पन्न करे, २. हमारे हृदयों को पवित्र बनाये, ३. हमारे चित्तों को शान्त करे, ४. दिव्य गुणसम्पन्न बनानेवाला हो और ५. हमें प्रभुवाणी श्रवण में प्रवृत्त करे ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे सोम ! (सः) वह तू (नः) हमारे (ऊर्जे) बल सम्पादन के निमित्त (धारया) अपनी धारण पोषण करने हारी शक्ति (अव्ययं) सूर्य, प्राण, आत्मारूप (पवित्रं) पवन करने हारे वायु, अन्तःकरण या धारणा देश के प्रति (विधाव) विशेष रूप से गति कर। (देवा सः) समस्त विद्वान् और द्विव्य जल, अग्नि आदि तत्व पदार्थ और इन्द्रियां (कम्) आनन्दकारी तेरी ध्वनि को (शृणवत्) श्रवण करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे भक्तवत्सल देव ! (सः) प्रसिद्धः त्वम् (नः) अस्माकम् (ऊर्जे) बलाय प्राणशक्तये च। [ऊर्ज बलप्राणनयोः, चुरादिः।] अस्माकम् (पवित्रम्) परिपूतम् (अव्ययम्) अविनाशिनमन्तरात्मानम् (धारया) आनन्दधारया सह (वि धाव) प्रद्रव। (देवासः) विद्वांसः उपासकाः, (हि) निश्चयेन (कम्) सुखपूर्वकम् (शृणवन्) तव सन्देशान् शृण्वन्तु ॥४॥

    भावार्थः

    जगदीश्वरस्य सख्ये वसन्तः स्तोतारो बलं प्राणशक्तिमानन्दं च प्राप्य धार्मिकं जीवनं यापयन्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, to give us vigour with Thy power of sustenance and nourishment, come fast to our soul and heart. The learned listen to Thy joyful instruction !

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    Meaning

    For energy, give us showers in streams of imperishable purity of heart, and let the noble devotees hear the blissful music of the rain. (Rg. 9-49-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः) તે તું સોમ-પરમાત્મન્ ! (नः ऊर्जे) અમારા આનંદરસને માટે (अव्ययं पवित्रं धारया विधाव) અવિ = પૃથિવી-પૃથિવીમય પાર્થિવ હૃદય-પ્રાપ્તિસ્થાનના પ્રત્યે ધારણશક્તિથી વિશેષરૂપથી પ્રાપ્ત થા. (देवासः हि कम् श्रृण्वन्) ઇન્દ્રિયો પણ તારા સુખનો અનુભવ કરે અર્થાત્ સ્વીકાર કરે-અપનાવે. (૪)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वराच्या मैत्रीमुळे प्रशंसक, बल, प्राणशक्ती, आनंद व दिव्य संदेश प्राप्त करून धार्मिक जीवन व्यतीत करतात. ॥४॥

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