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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1506
    ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णः, त्रसदस्युः पौरुकुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ऊर्ध्वा बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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    त्वे꣡ सो꣢म प्रथ꣣मा꣢ वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषो म꣣हे꣡ वाजा꣢꣯य श्र꣡व꣢से꣣ धि꣡यं꣢ दधुः । स꣡ त्वं नो꣢꣯ वीर वी꣣꣬र्या꣢꣯य चोदय ॥१५०६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे꣡इति꣢ । सो꣣म । प्रथमाः꣢ । वृ꣣क्त꣢ब꣢र्हिषः । वृ꣣क्त꣢ । ब꣣र्हिषः । महे꣢ । वा꣡जा꣢꣯य । श्र꣡व꣢꣯से । धि꣡य꣢꣯म् । द꣣धुः । सः꣢ । त्वम् । नः꣣ । वीर । वीर्या꣢य । चो꣣दय ॥१५०६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे सोम प्रथमा वृक्तबर्हिषो महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः । स त्वं नो वीर वीर्याय चोदय ॥१५०६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेइति । सोम । प्रथमाः । वृक्तबर्हिषः । वृक्त । बर्हिषः । महे । वाजाय । श्रवसे । धियम् । दधुः । सः । त्वम् । नः । वीर । वीर्याय । चोदय ॥१५०६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1506
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में सोम नाम से जगत्पति से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (सोम) जगत् के उत्पादक, शुभ गुण-कर्म-स्वाभाव के प्रेरक, सबको आह्लाद देनेवाले परमात्मन् ! (प्रथमाः) श्रेष्ठ (वृक्तबर्हिषः) उपासना-यज्ञ में कुशाओं का आसन बिछाये हुए यजमान (महे वाजाय) महान् बल के लिए और (श्रवसे) यश के लिए (त्वे) आपमें (धियं दधुः) ध्यान लगाते हैं। (सः त्वम्) वह सब श्रेष्ठ जनों से ध्यान किये गये आप (नः) हम ध्यानकर्ताओं को (वीर्याय) वीर कर्म के लिए (चोदय) प्रेरित कीजिए ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा के ध्यानकर्ता लोग बली होकर शुभ्र, लोकहितकारी कर्मों को करते हुए यशस्वी होते हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (वीर सोम) हे पाप—पापियों पर विजय पाने वाले सोम—परमात्मन्! (प्रथमाः-वृक्तबर्हिषः) प्रमुख या पूर्वकालीन त्यक्त—त्याग दी है प्रजा—सन्तति जिन्होंने ऐसे वनस्थ या संन्यासी योगी जन१० (त्वं) तेरे अन्दर (महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः) महान् अमृत अन्नभोग११ श्रवणीय यश१२ के लिये अपनी धारणा को धरते हैं (यः-त्वम्) वह तू (वीर्याय चोदय) ओज के लिये१ प्रेरित कर॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—त्र्यरुणत्रसदस्यू ऋषी (तीन ज्योतियों वाला और त्रास को क्षीण करने वाला)॥ देवता—पवमानः सोमः (धारारूप में प्राप्त होने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—ऊर्ध्व बृहती॥<br>

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    विषय

    महत्त्व, वाज व श्रवस्

    पदार्थ

    हे (सोम) = सब ऐश्वर्यों को जन्म देनेवाले प्रभो ! (प्रथमाः) = [प्रथ विस्तारे] अपना विस्तार करनेवाले, हृदय की संकुचितता [Narrowness] को अपने से दूर करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) = अपने हृदय से कृपणता [meanness] के घास-फूँस [बर्हि] को उखाड़ देनेवाले [वृक्त] –घास-फूस को उखाड़कर अपने हृदयान्तरिक्ष को पवित्र बनानेवाले लोग – (त्वे) = आपमें ही (धियं दधुः) = अपनी बुद्धियों को धारण करते हैं, अर्थात् सदा आपका ही चिन्तन करते हैं, जिससे १. (महे) = ये अपने हृदय को महान् बना पाएँ। प्रभु के स्मरण से प्राणिमात्र के प्रति बन्धुत्व उत्पन्न होता है और हम अपने में ही रमे नहीं रह जाते— हममें सभी के हित की भावना उत्पन्न होती है २. (वाजाय) = वाज के लिए वे आपमें अपनी बुद्धियों को धारण करते हैं। आपके चिन्तन से त्याग की भावना उत्पन्न होती है, शक्ति मिलती है और आवश्यक धन भी प्राप्त होता है । ३. (श्रवसे) = ये 'प्रथम-वृक्तबर्हिष्' इसलिए भी आपका चिन्तन करते हैं कि इनका जीवन यशस्वी हो [glory ], इन्हें धन की प्राप्ति हो [wealth], सदा इनका जीवन-स्तोत्रमय बन जाए [hymn] और इनके हाथों से सदा प्रशस्त कर्म ही होते रहें [praiseworthy action]।

    ये ‘प्रथम’ लोग प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि (सः त्वं वीर) = वे आप वीर प्रभु - हमारे सब कामक्रोधादि शत्रुओं को कम्पित करके दूर भगा देनेवाले प्रभो [वि + ईर] ! (न:) = हमें (वीर्याय) = शक्तियुक्त कर्मों के लिए (चोदय) = प्रेरित कीजिए | हम 'निर्वीर्य' न हो जाएँ - हमारा जीवन आराम-पसन्द न हो जाए। हम कामादि शत्रुओं को दूर भगानेवाले हों- ये शत्रु हमसे भयभीत हों । हम ' त्रसदस्यु' बनें और इस प्रकार इस मन्त्र के ऋषि हो सकें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे सोम ! सब के प्रेरक परमात्मन् ! (प्रथमाः) उत्कृष्ट, प्रथम श्रेणी के (वृक्तबर्हिषः) देहबन्धन को काटने हारे, मुक्त पुरुष वे हैं जो (महे) बड़े (वाजाय) ज्ञानस्वरूप (श्रवसे) यशस्वरूप महामहिम तुझे प्राप्त करने के लिये (धियं) अपनी धारणावती बुद्धि, चित्तवृत्ति को (दधुः) स्थापित या स्थिर करते हैं। हे (वीर) सर्वशक्तिमन् ! (सः त्वं) वह तू (नः) हमें भी (वीर्याय) बल, सामर्थ्य, शक्ति प्राप्त करने के लिये (चोदय) प्रारत कर, मार्ग दर्शा।

    टिप्पणी

    ‘अमृत मर्त्येष्वाँ ऋतस्य” इति पाठभेदः ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ सोमनाम्ना जगत्पतिः प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे (सोम) जगदुत्पादक शुभगुणकर्मस्वभावप्रेरक सर्वाह्लादक परमात्मन् ! (प्रथमाः) श्रेष्ठाः (वृक्तबर्हिषः) उपासनायज्ञे छिन्नकुशाः आस्तीर्णदर्भासना यजमानाः (महे वाजाय) महते बलाय (श्रवसे) यशसे च (त्वे) त्वयि (धियं दधुः) ध्यानं सम्पादयन्ति। (सः त्वम्) असौ सर्वैः श्रेष्ठजनैर्ध्यातः त्वम् (नः) ध्यानिनः अस्मान् (वीर्याय) वीरकर्मणे (चोदय) प्रेरय ॥१॥

    भावार्थः

    परमात्मनो ध्यातारो बलिनो भूत्वा शुभानि लोकहितावहानि कर्माणि कुर्वन्तो यशस्विनो जायन्ते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the emancipated souls of the first order, are they, who concentrate their mind on Thee, the Repository of knowledge and glory. O Omnipotent God, urge us also to acquire heroic power !

    Translator Comment

    See verse 386. Bounteous gifts : The lightning dries the Soma juice and sends it back in the shape of the gift of rain.

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    Meaning

    Into you, O Soma, did ancient sages of uninvolved mind with yajnic dedication concentrate and focus their mind and senses for the attainment of a high order of spiritual enlightenment. O Soma spirit of divinity that enlightened the sages, pray inspire and enlighten us too with that same divine manliness of vision and action. (Rg. 9-110-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वीर सोम) હે પાપ-પાપીઓ પર વિજય પ્રાપ્ત કરનારા સોમ-પરમાત્મન્ ! (प्रथमा वृक्तबर्हिषः) પ્રમુખ અથવા પૂર્વકાલીન ત્યક્ત-ત્યાગી દીધેલ છે પ્રજા-સંતતિ જેને એવા વાનપ્રસ્થી અથવા સંન્યાસી યોગીજન (त्वम्) તારી અંદર (महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः) મહાન અમૃત અન્નભોગ શ્રવણીય યશને માટે પોતાની ધારણાને ધરે છે. (यः त्वम्) તે તું (वीर्याय चोदय) ઓજને માટે પ્રેરિત કર. (૧)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराचे ध्यान करणारे लोक बलवान बनून शुभ, लोकहितकारी कर्म करत यशस्वी होतात. ॥१॥

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