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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1514
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - अग्निः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    18

    त꣡ꣳ होता꣢꣯रमध्व꣣र꣢स्य꣣ प्र꣡चे꣢तसं꣣ व꣡ह्निं꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢कृण्वत । द꣡धा꣢ति꣣ र꣡त्नं꣢ विध꣣ते꣢ सु꣣वी꣡र्य꣢म꣣ग्नि꣡र्जना꣢꣯य दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१५१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣢म् । हो꣡ता꣢꣯रम् । अ꣣ध्वर꣡स्य꣢ । प्र꣡चे꣢꣯तसम् । प्र । चे꣣तसम् । व꣡ह्नि꣢꣯म् । दे꣣वाः꣢ । अ꣣कृण्वत । द꣡धा꣢꣯ति । र꣡त्न꣢꣯म् । वि꣣धते꣢ । सु꣣वी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् । अ꣣ग्निः꣢ । ज꣡ना꣢꣯य । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१५१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तꣳ होतारमध्वरस्य प्रचेतसं वह्निं देवा अकृण्वत । दधाति रत्नं विधते सुवीर्यमग्निर्जनाय दाशुषे ॥१५१४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । होतारम् । अध्वरस्य । प्रचेतसम् । प्र । चेतसम् । वह्निम् । देवाः । अकृण्वत । दधाति । रत्नम् । विधते । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् । अग्निः । जनाय । दाशुषे ॥१५१४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1514
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर अग्निहोत्र का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    (प्रचेतसम्) चेतानेवाले (वह्निम्) अग्नि को (देवाः) विद्वान् अग्निहोत्री लोग (अध्वरस्य) हिंसारहित यज्ञ का (होतारम्) निष्पादक (अकृण्वत) करते हैं। वह (अग्निः) यज्ञाग्नि (विधते) परमेश्वर-पूजक, (दाशुषे जनाय) हवि देनेवाले अग्निहोत्री को (सुवीर्यम्) सुवीर्य से युक्त (रत्नम्) आरोग्य आदि रत्न (दधाति) प्रदान करता है ॥२॥

    भावार्थ

    यज्ञाग्नि में रोग हरनेवाले सुगन्धित द्रव्यों की जो आहुति दी जाती है, वह अग्नि-ज्वालाओं द्वारा विच्छिन्न और सूक्ष्म की जाकर वायु के माध्यम से इधर-उधर फैलकर श्वास द्वारा प्राणियों के फेफड़ों में पहुँच कर वहाँ रक्तवाहिनी पतली-पतली केशिकाओं में खून से सम्बद्ध होकर खून में औषध को प्रविष्ट करा देती है और खून की मलिनता को हरकर साँस से बाहर निकाल देती है। इस प्रकार प्राणियों को स्वास्थ्य देती है। अग्निज्वालाओं की दीप्ति, उर्ध्वगति, दोष-दाहकता इत्यादि गुणों को देखकर यज्ञकर्ता अपने अन्दर भी इन गुणों को धारण करने का यत्न करता है। इस प्रकार अग्निहोत्र से बाह्य तथा आन्तरिक दोनों प्रकार के लाभ होते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (देवाः) मुमुक्षु उपासकजन (अध्वरस्य होतारं प्रचेतसम्) अध्यात्मयज्ञ के आधार प्रकृष्ट चेतन—प्रसिद्ध करने वाले—(तं वह्निम्) उस वहनकर्ता परमात्मा को (अकृण्वत) साक्षात् करते हैं, जो (अग्निः) ज्ञान—प्रकाशमान परमात्मा (विधते रत्नं दधाति) उपासना करते हुए के लिये रमणीय वस्तु धारण कराता है (दाशुषे जनाय सुवीर्यम्) आत्मसमर्पी के लिये उत्तम आत्मिक बल देता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    देव क्या करते हैं

    पदार्थ

    (तम्) = इस प्रभु को जो १. (अध्वरस्य) = हिंसारहित यज्ञ के (होतारम्) = होता हैं तथा (प्रचेतसम्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले हैं और इस प्रकार जिन प्रभु में कर्म तथा ज्ञान का सुन्दर समन्वय है— उस प्रभु को (देवा:) = देव लोग – दिव्य प्रवृत्तिवाले लोग (वह्निम्) = [वह to carry] अपने शरीररूप रथ का सारथि – वाहक, अर्थात् जीवन-यात्रा का संचालक [सूत्रधार] (अकृण्वत) = बनाते हैं।

    अपनी जीवन-यात्रा का सूत्र प्रभु को सौंप देना-अपने रथ का सारथित्व प्रभु के अर्पण कर देना ही प्रभु की महान् अर्चना है। इस (विधते) = अर्चना करनेवाले के लिए वे (अग्निः) = रथ को आगे और आगे ले-चलनेवाले प्रभु (रत्नम्) = रमणीय ज्ञानरूप धन को (दधाति) = धारण करते हैं तथा इस (दाशुषे) = दान देनेवाले अथवा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले (जनाय) = विकासशील मनुष्य के लिए (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को (दधाति) = वे प्रभु धारण करते हैं ।

    इस प्रकार प्रभु के हाथों में अपने जीवन-सूत्र को सौंपनेवाला यह व्यक्ति रत्नों को व सुवीर्य को, ज्ञानरूप धनों को तथा शक्ति को – ब्रह्म व क्षेत्र को धारण करके' वसिष्ठ'=सर्वोत्तम निवासवाला इस मन्त्र का ऋषि बनता है ।

    भावार्थ

    देव प्रभु के प्रति अपनी अर्चना करते हैं— तभी उत्तम ज्ञान व शक्ति का लाभ करते -हैं।

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    विषय

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    भावार्थ

    जो (अग्निः) ज्ञानवान् आचार्य, परमेश्वर (दाशुषे) दानशील, आत्मसमर्पक (विधते) परिचर्या करते हुए, शिष्य के समान उपासक को (सुवीर्यम्) उत्तम सामर्थ्ययुक्त (रत्नं) रमणयोग्य, ज्ञान और ऐश्वर्य को (दधाति) धारण कराता है (तं) उस (प्रचेतसे) उत्तम ज्ञानवान् परम पुरुष को (देवाः) विद्वान् पुरुष (अध्वरस्य) हिंसारहित ज्ञानयज्ञ का (होतारं) सम्पादक और (वह्निम्) कार्यनिर्वाहक (अकृण्वत) नियत करते जानते, और मानते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरप्यग्निहोत्रविषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (प्रचेतसम्) प्रचेतयति जागरयति यस्तम् (वह्निम्) अग्निम् (देवाः) विद्वांसः अग्निहोत्रिणः (अध्वरस्य) हिंसारहितस्य यज्ञस्य (होतारम्) निष्पादनसाधनम् (अकृण्वत) कुर्वन्ति। असौ (अग्निः) यज्ञाग्निः (विधते) परमेश्वरं परिचरते। [विधतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५।] (दाशुषे जनाय) हवींषि दत्तवते अग्निहोत्रिणे (सुवीर्यम्) सुवीर्योपेतम् (रत्नम्) आरोग्यादिकं रमणीयं धनम् (दधाति) प्रयच्छति ॥२॥२

    भावार्थः

    यज्ञाग्नौ रोगहराणां सुगन्धिद्रव्याणां याऽऽहुतिः प्रदीयते साऽग्निज्वालाभिर्विच्छिन्ना सूक्ष्मीकृता च वायुमाध्यमेनेतस्ततः प्रसृता सती श्वासद्वारा प्राणिनां फुफ्फुसान्तर्गता तत्र रक्तवाहिनीषु सूक्ष्मासु केशिकासु रक्तेन सम्बद्धा तत्रौषधं समावेशयति रक्तस्य मालिन्यं चापहृत्य श्वासद्वारेण बहिर्निस्सारयति। एवं प्राणिनां स्वास्थ्यं जनयति। अग्निज्वालानां दीप्तिमूर्ध्वगामित्वं दोषदाहकत्वमित्यादिगुणानवलोक्य यज्ञकर्ता स्वात्मन्यप्येतान् गुणान् धारयितुं यतते। तदेवमग्निहोत्रेणान्तरिका बाह्याश्चोभयेऽपि लाभाः सम्पद्यन्ते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God gives to a charitable person and the worshipper excellent knowledge and wealth. The learned deem the passing Wise God, the Accomplisher of the non-violent Yajna of knowledge, and the Consummator of all enterprises.

    Translator Comment

    Griffith following Sayana has translated Asva as a Rishi. The word means active soul that reaps the fruit of its actions. The Vedas are free from history, hence I reject Griffith's interpretation.

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    Meaning

    Let the brilliant, noble and generous leaders of humanity choose, sanctify and anoint that intelligent all-aware person as Agni, leader, ruler and high-priest of the yajnic social order of love, peace and non- violence, who would create and bear the jewel wealth and values of life and high power and prestige of the noblest order for generous self-sacrificing people dedicated to the yajna of the social system. (Rg. 7-16-12)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (देवाः) મુમુક્ષુ ઉપાસકજન (अध्वरस्य होतारं प्रचेतसम्) અધ્યાત્મયજ્ઞના આધાર પ્રકૃષ્ટ ચેતનપ્રસિદ્ધ કરનારા, (तं वह्निम्) તે વહનકર્તા પરમાત્માનો (अकृण्वत्) સાક્ષાત્ કરે છે, જે (अग्निः) જ્ઞાન-પ્રકાશમાન પરમાત્મા (विधते रत्नं दधाति) ઉપાસના કરી રહેલાંને માટે સુંદર વસ્તુ ધારણ કરાવે છે, (दाशुषे जनाय सुवीर्यम्) આત્મ સમર્પણ કરનારને ઉત્તમ આત્મિકબળ પ્રદાન કરે છે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यज्ञाग्नीमध्ये रोग नाहीसे करणारी सुगंधित आहुती दिली जाते, ती अग्नीज्वालाद्वारे पसरते व सूक्ष्म होते व वायूच्या माध्यमाने इकडे तिकडे पसरून श्वासाद्वारे प्राण्यांच्या फुप्फुसात जाते व तेथे बारीक बारीक रक्तवाहिन्यातील कोशिकांमध्ये रक्तात औषध प्रविष्ट करते व रक्तातील मलिनता नष्ट करून श्वासातून बाहेर काढते. या प्रकारे प्राण्यांच्या स्वास्थ्याचे रक्षण होते. अग्निज्वालाची दीप्ती, उर्ध्वगती, दोष दाहकता इत्यादी गुणांना यज्ञकर्ता धारण करण्याचा प्रयत्न करतो. या प्रकारे अग्निहोत्राचे बाह्य व आंतरिक दोन्ही प्रकारचे लाभ होतात. ॥२॥

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