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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1556
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    14

    अ꣡दा꣢भ्यः पुरए꣣ता꣢ वि꣣शा꣢म꣣ग्नि꣡र्मानु꣢꣯षीणाम् । तू꣢र्णी꣣ र꣢थः꣣ स꣢दा꣣ न꣡वः꣢ ॥१५५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः । पुरएता꣢ । पु꣣रः । एता꣢ । वि꣣शा꣢म् । अ꣣ग्निः꣢ । मा꣡नु꣢꣯षीणाम् । तू꣡र्णिः꣢꣯ । र꣡थः꣢꣯ । स꣡दा꣣ । न꣡वः꣢꣯ ॥१५५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदाभ्यः पुरएता विशामग्निर्मानुषीणाम् । तूर्णी रथः सदा नवः ॥१५५६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदाभ्यः । अ । दाभ्यः । पुरएता । पुरः । एता । विशाम् । अग्निः । मानुषीणाम् । तूर्णिः । रथः । सदा । नवः ॥१५५६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1556
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमात्मा का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (अग्निः) जगन्नायक सर्वान्तर्यामी परमेश्वर (अदाभ्यः) किसी से दबाया या पराजित न किया जा सकनेवाला और (मानुषीणां विशाम्) मानवी प्रजाओं के (पुर एता) आगे पहुँचनेवाला है। (रथः) इससे रचा हुआ मानव-शरीर रूप रथ (तूर्णिः) शीघ्रगामी और (सदा नवः) सदा स्तुतियोग्य होता है ॥१॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर कैसा विलक्षण शिल्पकार है कि उससे रचा हुआ आत्मा से अधिष्ठित मानव-देह-रूप रथ चेतन होता हुआ स्वयं ही चलता है, स्वयं ही रुकता है और स्वयं ही कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक करता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (अदाभ्यः-अग्नि) अदम्भनीय—अबाध्यज्ञान प्रकाशस्वरूप परमात्मा (मानुषीणाम् विशाम्) मननशील प्रजाओं उपासकों का (पुरः-एता) अग्रगामी—अग्रणायक है (तूर्णिः-रथः) शीघ्रगामी रथ समान या उपासक के पाप को छिन्न-भिन्न करनेवाला२ रमणीय-रमण स्थान (सदा नवः) सदा अजर शरण या सदा स्तुतियोग्य३ है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सर्वमित्र उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाश-स्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    अदाभ्य -सदा नव

    पदार्थ

    जिस भी व्यक्ति में प्रभु का निवास होता है उसका जीवन निम्न गुणों से युक्त हो जाता है (अदाभ्यः) = यह आसुर वृत्तियों से अहिंसनीय जीवनवाला होकर 'अदाभ्य' बन जाता है, ‘हिंसितुमयोग्य' हो जाता है।

    २. (पुरः एता) = यह अपने जीवन में सदा आगे और आगे चलनेवाला होता है।

    ३. (मानुषीणां विशाम् अग्निः) = मननशील तथा मानव हितकारिणी प्रजाओं का यह प्रमुख होता है। इसका जीवन चिन्तनशील तो होता ही है साथ ही वह मानवमात्र का हित करने की वृत्तिवाला होता है, इसीलिए तो इसका नाम [विश्वामित्र] = सभी को मृत्यु व पाप से बचानेवाला तथा सभी के साथ स्नेह करनेवाला हो गया है । प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि यह [विश्वामित्र ] ही है । 

    ४. (तूर्णी रथः) = यह त्वरायुक्त रथवाला होता है । यह अपने शरीर को रथ समझता है और सब प्रकार से आलस्यशून्य होने के कारण यह तीव्र गति से अपनी यात्रा पर आगे और आगे बढ़ता चलता है। इसके जीवन में 'थकावट, तमोगुण, तन्द्रा व गपशप' का कोई स्थान नहीं है।

    । ५. (सदा नवः) = [नू स्तुतौ] यह उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते, श्वास-प्रश्वास लेते हुए भी सदा उस प्रभु का स्तवन करता है । प्रभु-स्मरण के साथ इसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ चलती हैं इसी से यह निरभिमान बना रहता है । 'अहं और मम' से ऊपर उठ जाने से यह पुण्य-पाप व सुखदुःख से भी ऊपर उठ जाता है । यही जीव के विकास की चरम सीमा है ।
     

    भावार्थ

    हम आसुरवृत्तियों से अहिंस्य बनकर ‘अदाभ्य' बनें। ‘अदाभ्य' बनने के लिए ही 'सदा नव' सदा प्रभु का स्तवन करनेवाले हों । 

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    विषय

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    भावार्थ

    (मानुषीणां) मननशील (विशां) प्रजाओं का (तूर्णी) अति शीघ्रगामी (रथः) रथ के समान देहेन्द्रियसंघात या कर्मवासनाओं को साथ ही लेकर चलने हारा या रमणशील (सदा) निरन्तर (नवः) नूतन, अजर (अग्निः) आत्मरूप यह अग्नि (अदाभ्यः) देह के नाश हो जाने पर भी न मरने हारा, (पुरः एता) प्राप्य या पालन करने योग्य देहों में प्राप्त हो जाता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अग्निः) जगन्नायकः सर्वान्तर्यामी परमेश्वरः (अदाभ्यः) केनापि दब्धुं पराजेतुम् अशक्यः, (मानुषीणां विशाम्) मानवीनां प्रजानाम् (पुरएता) अग्रगन्ता च भवति। (रथः) एतेन रचितो मानवदेहरूपो (रथः तूर्णिः) सद्यो गन्ता, (सदा नवः) सदा स्तुत्यश्च वर्तते ॥१॥२

    भावार्थः

    जगदीश्वरः खलु कीदृशो विलक्षणः शिल्पी यत्तेन रचित आत्माधिष्ठितो मानवदेहरूपो रथश्चेतनः सन् स्वयमेव याति स्वयमेव विरमति स्वयमेव च कर्तव्याकर्तव्यविवेकं कुरुते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Soul is invincible. It goes ahead of mortal men in the Yajna of life. It is ever new, and like a fast conveyance is a quick and convenient vehicle for the journey of life.

    Translator Comment

    See verse 111.

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    Meaning

    Irrepressible and indestructible, going forward in front of the people, fiery leader of the nation, instant starter, torch bearer of humanity and warrior, ever new: such is Agni, pioneer and leader. (Rg. 3-11-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अदाभ्यः अग्नि) અદંભનીય-અબાધ્ય જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મા (मानुषीणाम् विशाम्) મનનશીલ પ્રજાઓ ઉપાસકોના (पुरः एता) અગ્રગામી-અગ્રણાયક છે. (तूर्णिः रथः) શીઘ્રગામી રથ સમાન અથવા ઉપાસકના પાપને છિન્ન-ભિન્ન કરનાર રમણીય-સુંદર સ્થાન (सदा नवः) સદા અજર શરણ અથવા સદા સ્તુતિ યોગ્ય છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वर असा विलक्षण शिल्पकार आहे, की त्याने निर्मिलेला आत्म्याद्वारे अधिष्ठित मानव-देह-रूप रथ चेतन असून स्वत: चालतो, स्वत: थांबतो व स्वत:च कर्तव्य-अकर्तव्याचा विवेक करतो. ॥१॥

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