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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1591
ऋषिः - अनानतः पारुच्छेपिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
32
प्रा꣢ची꣣म꣡नु꣢ प्र꣣दि꣡शं꣢ याति꣣ चे꣡कि꣢त꣣त्स꣢ꣳ र꣣श्मि꣡भि꣢र्यतते दर्श꣣तो꣢꣫ रथो꣣ दै꣡व्यो꣢ दर्श꣣तो꣡ रथः꣢꣯ । अ꣡ग्म꣢न्नु꣣क्था꣢नि꣣ पौ꣢꣫ꣳस्येन्द्रं꣣ जै꣡त्रा꣢य हर्षयन् । व꣡ज्र꣢श्च꣣ य꣡द्भव꣢꣯थो꣣ अ꣡न꣢पच्युता स꣣म꣡त्स्वन꣢꣯पच्युता ॥१५९१॥
स्वर सहित पद पाठप्रा꣡ची꣢꣯म् । अ꣡नु꣢꣯ । प्र꣣दि꣡श꣢म् । प्र꣣ । दि꣡श꣢꣯म् । या꣣ति । चे꣡कि꣢꣯तत् । सम् । र꣣श्मि꣡भिः꣢ । य꣣तते । दर्शतः꣢ । र꣡थः꣢꣯ । दै꣡व्यः꣢꣯ । द꣣र्शतः꣢ । र꣡थः꣢꣯ । अ꣡ग्म꣢꣯न् । उ꣣क्था꣡नि꣢ । पौ꣡ꣳस्या꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । जै꣡त्रा꣢꣯य । ह꣣र्षयन् । व꣡ज्रः꣢꣯ । च꣣ । य꣢त् । भ꣡व꣢꣯थः । अ꣡न꣢꣯पच्युता । अन् । अ꣣पच्युता । सम꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु । अ꣡न꣢꣯पच्युता । अन् । अ꣣पच्युता ॥१५९१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राचीमनु प्रदिशं याति चेकितत्सꣳ रश्मिभिर्यतते दर्शतो रथो दैव्यो दर्शतो रथः । अग्मन्नुक्थानि पौꣳस्येन्द्रं जैत्राय हर्षयन् । वज्रश्च यद्भवथो अनपच्युता समत्स्वनपच्युता ॥१५९१॥
स्वर रहित पद पाठ
प्राचीम् । अनु । प्रदिशम् । प्र । दिशम् । याति । चेकितत् । सम् । रश्मिभिः । यतते । दर्शतः । रथः । दैव्यः । दर्शतः । रथः । अग्मन् । उक्थानि । पौꣳस्या । इन्द्रम् । जैत्राय । हर्षयन् । वज्रः । च । यत् । भवथः । अनपच्युता । अन् । अपच्युता । समत्सु । स । मत्सु । अनपच्युता । अन् । अपच्युता ॥१५९१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1591
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमात्मा की उपासना से जीव क्या प्राप्त करता है।
पदार्थ
परमेश्वर की मित्रता प्राप्त करके जीव (चेकितत्) विज्ञानवान् होता हुआ (प्राचीं प्रदिशम्) प्रकृष्ट दिशा की ओर (अनुधावति) अग्रसर होने लगता है। (दर्शतः) द्रष्टा वह (रथः) रथ के समान वेगवान् होता हुआ (रश्मिभिः) तेज की किरणों से (संयतते) संयुक्त हो जाता है। इसका (रथः) देहरूप रथ (दैव्यः) सज्जनों का हित करनेवाला और (दर्शतः) दर्शनीय हो जाता है। शुभगुणप्रेरक, सोम परमात्मा की उपासना से (उक्थानि) प्रशंसनीय (पौंस्या) बल (इन्द्रम्) जीवात्मा को (अग्मन्) प्राप्त होते हैं और उसे (जैत्राय) विजय के लिए (हर्षयन्) उत्साहित करते हैं, (यत्) क्योंकि, हे सद्गुणों की प्रेरणा करनेवाले जगदीश्वर ! आप (वज्रः च) और आपका व्रजतुल्य दण्ड देने का सामर्थ्य दोनों (अनपच्युता) अडिग होते हुए (समत्सु) देवासुरसङ्ग्रामों में (अनपच्युता) अटूट बलवाले (भवथः) होते हो ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर का सखा शत्रुओं से अपराजित होता हुआ सदा ही उत्कर्ष प्राप्त करता है ॥२॥
पदार्थ
(चेकितत् प्राचीं प्रदिशम्-अनुयाति) धारारूप में प्राप्त होनेवाला शान्तस्वरूप परमात्मा उपासक को चेताता हुआ उसके सामने की दिशा में अनुगत होता है—उसे सीधा साक्षात् होता है (रश्मिभिः-संयतते) अपनी ज्ञानज्योतियों के द्वारा उपासक में सङ्गत होता है—उससे मिलता है३ वह (दर्शतः-रथः) दर्शनीय अनुभवनीय रसरूप४ (दैव्यः-दर्शतः-रथः) वह लौकिक रस नहीं किन्तु दैव्य—देवों मुक्तों का अलौकिक अनुभवनीय रस है (पौंस्या-उक्थानिः-इन्द्रम्-अग्मन्) उपासक के बल प्रबल स्तुतिवचन उस ऐश्वर्यवान् सोम—शान्त परमात्मा के प्रति पहुँचते हैं (जैत्राय हर्षयन्) काम आदि पर विजय पाने के लिये५ उपासक को हर्षित करता हुआ (वज्रः-च) और वज्रवान् ओजस्वी६ (यद्-भवथः) और उपासक दोनों मिले हुए हो जाते हैं (अनपच्युता) पृथक् न होने वाले (समत्सु-अनपच्युता) कामादि से संघर्षों में सफल होते हैं॥२॥
विशेष
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विषय
अनानत पारुच्छेपिः
पदार्थ
मन्त्र का ऋषि ‘अनानत ' – शत्रुओं से न दबनेवाला, 'पारुच्छेपि'=अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्तिवाला है । १. यह (चेकितत्) = उत्तम ज्ञानवाला – सदा चेतना में रहनेवाला होता हुआ— अपने स्वरूप को न भूलता हुआ (प्राचीं प्रदिशम्) = प्रकृष्ट पूर्व दिशा के (अनुयाति) = पीछे चलनेवाला होता है। प्राची दिशा [प्र अञ्च् =अग्रगति] आगे बढ़ने की दिशा है। इसमें उदय होकर सूर्य आदि ज्योतिष्पिण्ड आगे और आगे बढ़ते चलते हैं । यह भी अपने स्वरूप का स्मरण रखता हुआ निरन्तर आगे बढ़ने का ध्यान करता है।
२. इस अनानत — विघ्नों से न दबनेवाले का (दर्शतः रथः) = रमणीय शरीररूप रथ (रश्मिभिः) = ज्ञानकिरणों के साथ, अर्थात् प्रकाशयुक्त हुआ (संयतते) = सम्यक्तया अग्रगति के लिए यत्नशील होता है। ३. इसका यह (दर्शतः रथः) = दर्शनीय स्वस्थ शरीर (दैव्यः) = उस देव प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है। अनानत अपने शरीर को स्वास्थ्य के द्वारा सदा सुन्दर बनाता है, उसे ज्ञान की रश्मियों से प्रकाशित करता है और आगे बढ़ता हुआ प्रभु तक पहुँचने के लिए यत्नशील होता है।
४. इस अनानत को (पौंस्या) = शक्तिशाली (उक्थानि) = स्तोत्र (अग्मन्) = प्राप्त होते हैं, अर्थात् यह सबल बनता है और प्रभु का स्तवन करता है ।
५. इस (इन्द्रम्) = शक्ति से शत्रुओं का द्रावण करनेवाले अनानत इन्द्र को (जैत्राय) = विजय के लिए (हर्षयन्) = वे प्रभु उत्साहित करते हैं । जिस प्रकार उत्तम कार्य में लगे सन्तान को माता-पिता उत्साहित करते हैं, उसी प्रकार इस अनानत को प्रभु से उत्साह मिलता है ।
६. बस अब तो (यत्) = जबकि इस अनानत को प्रभु का साहाय्य भी प्राप्त हो गया, (वज्रः च भवतः) = ये वज्र-तुल्य हो जाते हैं। अब तो (अनपच्युता) = ये किसी भी प्रकार शत्रुओं से नष्ट नहीं किये जा सकते। (समत्सु) = काम-क्रोधादि के साथ संग्रामों में (अनपच्युता) = ये नष्ट नहीं किये जा सकते। ये शत्रुओं के लिए अजय्य हो जाते हैं ।
भावार्थ
हम भी अपना जीवन 'अनानत पारुच्छेपि' के जीवन - जैसा ही बनाएँ ।
विषय
missing
भावार्थ
(यद्) जब जीव और परमात्मा (समत्सु) एकत्र आनन्द प्राप्त करके समाधि के अवसरों पर (अनपच्युता) अविचलित राजा और मन्त्री के समान (अनपच्युता) काम क्रोधादि शत्रुओं से कभी विचलित नहीं होते हैं तब (चेकितत्) ज्ञानवान् योगी (प्राचीं) प्रकृष्ट, उत्तम रूप से उपासना करने योग्य, सुप्राप्य, (प्रदिशं) उत्तमरूप से जानने योग्य दिशा-मार्ग के प्रकाश का (याति) प्राप्त कर लेता है और (दर्शतः) दर्शनीय (रथः) सूर्य के समान योगी का वह (दर्शतः) दर्शनीय (रथः) रमण करने हारा आत्मा (रश्मिभिः) ईश्वरप्रदत्त ज्ञानरश्मियों से और भी (यतते) आगे की ओर मुक्तिमार्ग पर बढ़ता है। तब ही (जैत्राय) अपनी इस मुक्ति मार्ग की विजय के लिये (इन्द्रं) आत्मा को (हर्षयन्) धन्यवाद और साधुवाद देता हुआ, उसे और अधिक हर्षित और प्रबल करता हुआ (पौंस्या) बलशाली या बलप्रद (उक्थानि) स्तुतियों का (अग्मन्) उच्चारण करता है और सब विघ्नों के नाशक (वज्रं च) अपवर्ग रूप वज्र को भी प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मोपासनया जीवः किं प्राप्नोतीत्युच्यते।
पदार्थः
परमेश्वरस्य सख्यं प्राप्य जीवः (चेकितत्) विज्ञानवान् सन् (प्राचीम् प्रदिशम्) प्रकृष्टां दिशम् (अनुयाति) अनुधावति। (दर्शतः) द्रष्टा, (रथः) रथ इव रंहणशीलः सः (रश्मिभिः) तेजःकिरणैः (संयतते) संगच्छते। अस्य (रथः) देहरूपः रथः (दैव्यः) देवेभ्यः सज्जनेभ्यो हितः, (दर्शतः) दर्शनीयश्च जायते। सोमस्य शुभगुणप्रेरकस्य परमात्मनः उपासनया (उक्थानि) प्रशंस्यानि (पौंस्या) पौंस्यानि बलानि (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (अग्मन्) प्राप्नुवन्ति, तं च (जैत्राय) विजयाय (हर्षयन्) हर्षयन्ति उत्साहयन्ति। [हृष तुष्टौ, णिचि लङि प्रथमबहुवचने रूपम्। अडागमाभावश्छान्दसः।] (यत्) यस्मात्, हे सोम सद्गुणप्रेरक जगदीश्वर ! त्वम् (वज्रः च) वज्रोपलक्षितं त्वदीयं दण्डप्रदानरूपं सामर्थ्यं च उभौ युवाम् (अनपच्युता) अनपच्युतौ अस्खलितौ (समत्सु) देवासुरसंग्रामेषु (अनपच्युता) अप्रतिहतवीर्यौ (भवथः) जायेथे ॥२॥
भावार्थः
परमेश्वरस्य सखा शत्रुभिरपराजितः सन् सदैवोत्कर्षं प्राप्नोति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When God and soul, on occasions of Samadhi, like a steady King and minister, remain unmoved by foes like passion and anger, then a learned Yogi attains to the light of a path worth contemplating and knowing. The beautiful divine soul of a Yogi, then marches forth on the path of salvation, and for his success in this path of salvation, the Yogi gladdening and magnifying the soul, recites life-infusing praise-songs, and achieves the thunderbolt of final beatitude.
Translator Comment
Samadhi means deep concentration. Final beatitude means salvation, which is that kind of thunderbolt that removes all sins and impediments.
Meaning
Intelligent and well aware, Soma warrior goes forward in the line and to the destination in consonance and continuation of living ancient tradition of law and custom, his glorious divine chariot is directed by rays of light and vibrant enthusiasm, thus the glorious chariot goes on. Songs of praise in honour of the brave resound, exalting Indra, the ruling soul of the order, for victory, when the ruling soul and the fighting force both become the one thunderbolt infallible in battles, verily one invincible power in battle. (Rg. 9-111-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (चेकिकत् प्राचीं प्रदीशम् अनुयाति) ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મા ઉપાસકને સદા ચેતનામાં રાખતાં તેની સામેની દિશામાં અનુગત થાય છે-તેનો સીધો સાક્ષાત્ થાય છે. (रश्मिभिः संयतते) પોતાની જ્ઞાન જ્યોતિઓ દ્વારા ઉપાસકમાં સંગત થાય છે-તેને મળે છે, તે (दर्शतः रथः) દર્શનીય અનુભવનીય રસરૂપ (दैव्यः दर्शतः रथः) તે લૌકિક રસ નહિ પરંતુ દૈવ્ય-દેવો-મુક્તોનો અલૌકિક અનુભવીય રસ છે. (पौंस्या उक्थानिः इन्द्रम् अग्मन्) ઉપાસકનાં બળ પ્રબળ સ્તુતિવચન તે ઐશ્વર્યવાન સોમ-શાન્ત સ્વરૂપની તરફ પહોંચે છે. (जैत्राय हर्षयन्) કામ આદિ પર વિજય પ્રાપ્ત કરવા માટે ઉપાસકને હર્ષિત કરતાં (वज्रः च) અને ઓજસ્વી (यद् भवथः) અને ઉપાસક બન્ને મળેલાં સમાન બની જાય છે. (अनपच्युता) પૃથક્ થનાર (समत्सु अनपच्युता) કામ આદિની સામેના સંઘર્ષમાં સફળ બને છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा सखा शत्रूंकडून अपराजित व सदैव उत्कर्ष प्राप्त करतो. ॥२॥
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