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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1606
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
8
स꣣व्या꣡मनु꣢꣯ स्फि꣣꣬ग्यं꣢꣯ वावसे꣣ वृ꣢षा꣣ न꣢ दा꣣नो꣡ अ꣢स्य रोषति । म꣢ध्वा꣣ सं꣡पृ꣢क्ताः सार꣣घे꣡ण꣢ धे꣣न꣢व꣣स्तू꣢य꣣मे꣢हि꣣ द्र꣢वा꣣ पि꣡ब꣢ ॥१६०६॥
स्वर सहित पद पाठस꣣व्या꣡म् । अ꣡नु꣢꣯ । स्फि꣡ग्य꣢꣯म् । वा꣣वसे । वृ꣡षा꣢꣯ । न । दा꣣नः꣢ । अ꣣स्य । रोषति । म꣡ध्वा꣢꣯ । सं꣡पृ꣢꣯क्ताः । सम् । पृ꣣क्ताः । सारघे꣡ण꣢ । धे꣣न꣡वः꣢ । तू꣡य꣢꣯म् । आ । इ꣣हि । द्र꣡व꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥१६०६॥
स्वर रहित मन्त्र
सव्यामनु स्फिग्यं वावसे वृषा न दानो अस्य रोषति । मध्वा संपृक्ताः सारघेण धेनवस्तूयमेहि द्रवा पिब ॥१६०६॥
स्वर रहित पद पाठ
सव्याम् । अनु । स्फिग्यम् । वावसे । वृषा । न । दानः । अस्य । रोषति । मध्वा । संपृक्ताः । सम् । पृक्ताः । सारघेण । धेनवः । तूयम् । आ । इहि । द्रव । पिब ॥१६०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1606
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा के उपासक को कहते हैं।
पदार्थ
हे परमात्मा के उपासक ! (वृषा) बलवान् तू (सव्याम्) बायीं (स्फिग्यम्) टाँग को आगे करके और दाहिनी टाँग को पीछे करके (वावसे) दौड़ लगाने के लिए खड़ा रह, अर्थात् सदा विक्रमशील रह। (अस्य) ऐसे विक्रमशील तेरी(दानः) कोई भी हिंसक (न रोषति) हिंसा नहीं कर सकेगा। हे उपासक ! (सारघेण मध्वा) मधुमक्खियों से प्राप्त मधु से (संपृक्ताः) संयुक्त (धेनवः) गोदुग्ध आदि तैयार हैं। तू (तूयम्) शीघ्र (एहि) आ, (द्रव) क्रियाशील हो, (पिब) पान कर ॥२॥
भावार्थ
जैसे दोड़ की प्रतिस्पर्धा में प्रतिस्पर्धी लोग घुटने पर मुड़ी हुई बायीं टाँग को आगे करके और दाहिनी को पीछे करके आकृति-विशेष में दौड़ने के लिए तैयार खड़े रहते हैं, वैसे ही परमेश्वर का उपासक सदा ही पुरुषार्थ के लिए तैयार रहता है। इसलिए उसके रास्ते में कोई बाधा नहीं डाल सकता, प्रत्युत उसका सभी अभिनन्दन करते हैं ॥२॥
पदार्थ
(वृषा) सुखवर्षक परमात्मा (सव्यां स्फिग्यम्-अनु वावसे) वाम जङ्घा के साथ सारे संसार को आच्छादित करता है परमात्मा की विभुता के सम्मुख एकदेशी तुच्छ है पाद मात्र सो भी वाम पाद मात्र है११ (दानः-अस्य न रोषति) इसका खण्डयिता—खण्डन करने वाला१२ नास्तिकजन उसे हिंसित नहीं कर सकता किन्तु अपनी हिंसा है—बार बार जन्म लेकर मृत्यु का ग्रास बनता है (सारघेण मध्वा सम्पृक्ताः-धेनवः) ब्राह्मणों—ब्रह्मवेत्ता उपासकों के१३ आत्मा१४ से सम्पृक्त—सङ्गत हुई स्तुति वाणियाँ१५ समर्पित की जा रही हैं उनके रस को पान करने (तूयम्-एहि) शीघ्र आ (द्रव पिब) हम उपासकों के प्रति द्रवित हों—पास आ और पान कर स्वीकार कर॥२॥
विशेष
<br>
विषय
दूध व शहद
पदार्थ
कटिप्रदेश में स्थित ‘गर्भधानी' को 'सव्या स्फिग्य' कहा गया है। (सव्यां स्फिग्यं अनु) = गर्भधानी में निवास के पश्चात् जब जीव गर्भ से बाहर आता है तब १. (वृषा) = शक्तिशाली होता हुआ (वावसे) = निवास करता है तथा २. (अस्य) = इसके (दान:) = त्याग की भावना, (न रोषति) = नष्ट नहीं होती [दान का अभिप्राय ‘बुराई का खण्डन' तथा 'शोधन' भी है], अतः इस व्यक्ति की बुराई भी सदा दूर होती रहती है तथा इसका शोधन भी होता रहता है, परन्तु यह सब कब और कैसे हो सकता है ? इसके लिए प्रभु का निर्देश है कि (सारघेण मध्वा) = मधु-मक्षिका से संचित किये हुए शहद से (धेनवः) = नवसूतिका गौवों के दूध (संपृक्ताः) = मिलाये गये हैं। (तूयम् एहि) = शीघ्रता से आओ (द्रव) = गतिशील बनो और (पिब) = इनका पान करो ।
मनुष्य आलस्य छोड़कर कार्यों में लगे, कुछ व्यायाम करे और फिर शहद मिश्रित दुग्ध का पान करे। ये उपाय हैं ऐसी सन्तान को जन्म देने के जो सदा स्वस्थ, सबल, सुन्दर शरीरवाली रहे तथा शुद्ध मनोवृत्तिवाली बने । ऐसी सन्तानों को प्राप्त करना कौन न चाहेगा, परन्तु उसके निर्दिष्ट उपाय का भी ध्यान रखना चाहिए। दूध और शहद ही सर्वोत्तम भोज्य द्रव्य हैं। ताज़े दूध को तो संस्कृत में 'पीयूषोऽभिनवं पयः'=अमृत कहा गया है तथा शहद अश्विनी देवताओं की प्रिय औषध है— यह शरीर को न अधिक बोझल होने देती है, न अधिक पतला [emaciated] । एवं, दूध व शहद के प्रयोग से हम उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाले होते हैं । गर्भावस्था में सामान्यतः प्रभु की व्यवस्था से ही बच्चा सरदी-गरमी व कब्ज आदि से बचा रहता है और नीरोग रहता है। बाहर आकर भी वह स्वस्थ ही रहेगा - यदि हम दूध व शहद का उचित प्रयोग करेंगे ।
स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनवाले ये हमारे सन्तान क्यों न देवातिथि बनेंगे ? क्यों न प्रभु को प्राप्त करेंगे ।
विषय
missing
भावार्थ
(वृषा) वर्षण करने हारा, वीर्य का सेचक पुरुष (दानः) समस्त प्राणियों को जीवन दान करते हुए मेघ के समान वीर्य दान करता हुआ (सव्यां) उत्पादनशील भूमि के समान (स्फिग्यां) कटिप्रदेश में स्थित गर्भधानी में (अनुवावसे) जीव के रूप में स्वयं वास करता है। आत्मा वै जायते पुत्रः। वह (अस्य) इस गर्भगत जीव के प्रति (न रोषति)। कभी कोप नहीं करता, वहां (सारघेण) प्रसरणशील, सारवान् (मध्वा) अमृत जीव (Sperm) से (सम्पृक्ताः) संसक्त हुई (धेनवः) शुक्र धाराएं (protoplasm) हैं। हे जीव ! तू (तूयम्) शीघ्र ही (एहि) आ और (द्रव) शीघ्र आ और (पिब) उस पोषक रस का पान कर। (वृषा सव्यं वावसे) जलों का वर्षक इन्द्र वीर्य कटिभाग में सब प्राणियों को ढक लेता है (दानो न अस्य रोषति) वह दानशील यजमान इन्द्र पर रोष नहीं करता (सारघेण मध्वा सम्पृक्ताः) मधुमक्खी के शहद के समान रसीले दूध आदि से मिलित (धेनवः) धेनु=हमारे पान करने योग्य सोम है। (तूयम् एहि द्रव पिब) हे इन्द्र तुम शीघ्र शीघ्र आओ पान करो। यह अर्थ सायणकृत है। यहां वस्तुतः गर्भ में बीज के आने, जमने, जोव के प्रवेश और पालन का वर्णन है। यज्ञकाण्ड के अनुसार इन्द्र को उत्तरवेदि स्थान में बुलाया जाता है वहां ही सोम तैयार करके रक्खे जाते हैं। और उत्तर वेदि योषा और योनि का प्रतिनिधि है। योषा वै उत्तरवेदिः (शत०)। इस यज्ञार्थ पर विचार करने से वे सब रहस्य स्पष्ट होते हैं। पुरुष का वीर्य प्रोटोप्लाज़म और स्पर्म अर्थात् जीव का भोज्य पदार्थ और बीज कीट से बना होता है। गर्भ में आहित होकर वह वहां उसी के आधार पर जाकर गर्भधानी या छत्रक या कमल (प्लेसेन्टा) नामक स्थान जिसको वास्तविक योनि कहना चाहिये, उस पर जनता है और वहां ही पुष्टि को प्राप्त होकर १० वें मास में बाहर आता है, यह जीवन-उत्पत्ति का रहस्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मोपासकमाह।
पदार्थः
हे परमात्मोपासक ! (वृषा) बलवान् त्वम् (सव्याम्) वामाम्(स्फिग्यम्) कटिप्रोथोपलक्षितां पादयष्टिम् (अनु) अन्वाश्रित्य, दक्षिणां च पश्चाद् विधाय (वावसे) तिष्ठ। [वसतेर्लोडर्थे लिटि छान्दसं रूपम्।] कस्याञ्चिद् धावनस्पर्धायां भागग्रहीतॄणामेषा भङ्गिर्भवति। सदैव विक्रमशीलस्तिष्ठेति भावः। (अस्य) एवंविधस्य विक्रमशीलस्य तव (दानः) अखण्डयिता हिंसकः कश्चित्। [दान खण्डने भ्वादिः पचाद्यच्।] (न रोषति) हिंसां कर्तुं न शक्ष्यति [रुष हिंसार्थः, भ्वादिः।] हे उपासक ! (सारघेण मध्वा) मधुमक्षिकाजनितेन मधुना (सम्पृक्ताः) संयुक्ताः (धेनवः) गोदुग्धादयः सज्जिताः सन्ति। [अथाप्यस्यां ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति ‘गोभिः श्रीणीत मत्सरम्’ (ऋ० ९।४६।४) इति पयसः। निरु० २।५।] (तूयम्) शीघ्रम् (एहि) आगच्छ, (द्रव) धाव, (पिब) आस्वादय ॥२॥
भावार्थः
यथा धावनप्रतिस्पर्धायां प्रतिस्पर्द्धिनो जानुन्याकुञ्चितं वामं पादमग्रे कृत्वा दक्षिणं च पश्चात् कृत्वा भङ्गिविशेषेण धावनसन्नद्धास्तिष्ठन्ति तथा परमेश्वरोपासकः सदैव पुरुषार्थाय सज्जस्तिष्ठति। अतस्तन्मार्गे कोऽपि बाधां जनयितुं न शक्नोति,प्रत्युत तस्य सर्वे स्वागतमभिनन्दनं च कुर्वन्ति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O man, God approveth of your friendly and favourable attitude. His charity does not injure man. Drinkable Soma blended with the honey of the bee is ready. Quickly come hither, hasten, and drink it.
Meaning
The joyous world of soma in relation to the earth, you illuminate and rule with a fraction of your prowess. Whoever plays his part well and renders his share to the refulgent ruler never regrets nor displeases the ruler ever. Come fast, O lord, rush in and drink the soma mixed with sweets of honey and seasoned with milk. (Rg. 8-4-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वृषा) સુખવર્ષક પરમાત્મા (सव्यां स्फियम् अनु वावसे) ડાબી જાંઘની સાથે સમસ્ત સંસારન આચ્છાદિત કરે છે. પરમાત્માની વિભુતા-વ્યાપકતાની સામે એકદેશી તુચ્છ છે. પાદ માત્ર તે પણ ડાબો પગ માત્ર છે. (दानः अस्य न रोषति) તેનું ખંડન કરનાર નાસ્તિકજન તેને હિંસિત કરી શકતો નથી, પરંતુ પોતાની હિંસાથી વારંવાર જન્મ લઈને મૃત્યુનો કોળિયો બને છે. (सारघेण मध्वा सम्पृक्ताः धेनवः) બ્રાહ્મણો-બ્રહ્મને જાણનારા ઉપાસકોના આત્માથી સંપુક્ત-સંગત થયેલી સ્તુતિ વાણીઓ સમર્પિત કરવામાં આવી રહી છે તેના રસનું પાન કરવા (तूयम् एहि) તુરત જ આવ (द्रव पिब) અમારા-ઉપાસકો પ્રત્યે દ્રવિત બન-પાસે આવ અને પાનનો સ્વીકાર કર. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे पळण्याच्या शर्यतीत प्रतिस्पर्धी लोक डाव्या पायाला पुढे करून उजवा पाय मागे करून पळण्यासाठी तयार असतात, तसेच परमेश्वराचा उपासक सदैव पुरुषार्थासाठी तयार असतो. त्यासाठी त्याच्या मार्गात कोणी बाधा घालू शकत नाही तर त्याचे सर्वजण अभिनंदन करतात. ॥२॥
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