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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1626
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - विष्णुः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
7
प्र꣡ तत्ते꣢꣯ अ꣣द्य꣡ शि꣢पिविष्ट ह꣣व्य꣢म꣣र्यः꣡ श꣢ꣳसामि व꣣यु꣡ना꣢नि वि꣣द्वा꣢न् । तं꣡ त्वा꣢ गृणामि त꣣व꣢स꣣म꣡त꣢व्या꣣न्क्ष꣡य꣢न्तम꣣स्य꣡ रज꣢꣯सः परा꣣के꣢ ॥१६२६॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तत् । ते꣣ । अद्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । शि꣣पिविष्ट । शिपि । विष्ट । हव्य꣢म् । अ꣣र्यः꣢ । श꣣ꣳसामि । व꣡युना꣢नि । वि꣣द्वा꣢न् । तम् । त्वा꣣ । गृणामि । तव꣡स꣢म् । अ꣡त꣢꣯व्यान् । अ । त꣣व्यान् । क्ष꣡य꣢꣯न्तम् । अ꣣स्य꣢ । र꣡ज꣢꣯सः । प꣣राके꣢ ॥१६२६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तत्ते अद्य शिपिविष्ट हव्यमर्यः शꣳसामि वयुनानि विद्वान् । तं त्वा गृणामि तवसमतव्यान्क्षयन्तमस्य रजसः पराके ॥१६२६॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । तत् । ते । अद्य । अ । द्य । शिपिविष्ट । शिपि । विष्ट । हव्यम् । अर्यः । शꣳसामि । वयुनानि । विद्वान् । तम् । त्वा । गृणामि । तवसम् । अतव्यान् । अ । तव्यान् । क्षयन्तम् । अस्य । रजसः । पराके ॥१६२६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1626
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति है।
पदार्थ
हे (शिपिविष्ट) तेज की किरणों से घिरे हुए अर्थात् तेजस्वी सर्वव्यापक विष्णु जगदीश्वर ! (अर्यः) स्तुतियों का ईश्वर और(वयुनानि विद्वान्) कर्तव्य कर्मों को जाननेवाला मैं (अद्य) आज(ते) आपके (तत्) उस प्रसिद्ध (हव्यम्) दान की (प्र शंसामि)प्रशंसा करता हूँ। (अतव्यान्) अमहान् मैं (तवसम्) महान् और(अस्य रजसः) इस रजोगुण के (पराके) परे (क्षयन्तम्) निवास करनेवाले (तम्) उस प्रसिद्ध (त्वा) आपकी (गृणामि) स्तुति करता हूँ ॥२॥
भावार्थ
अल्पशक्तिवाला मनुष्य महाशक्तिवाले परमात्मा के गुणों के स्मरण से निरभिमान होकर महान् कार्यों को करने के लिए अपने आत्मा में बल सञ्चित करे ॥२॥
पदार्थ
(शिपिविष्ट) हे ज्ञानरश्मियों से पूर्ण व्यापक परमात्मन्! (अद्य) आज इस जन्म में (ते तत्) तेरे उस (हव्यम्) हृदय ग्राह्यस्वरूप को (वयुनानि विद्वान्) जोकि तू हमारे प्रज्ञानों—विचारों को या कमनीय अभिप्रायों को जानने वाला है३ उसे (अर्यः शंसामि) मैं अभ्यास वैराग्य से चित्तवृत्तियों का स्वामी बना प्रशंसित करता हूँ (अस्य रजसः पराके क्षयन्तम्) इस लोक समूह—जगत् के पराक्रान्त४—द्युलोक मोक्षधाम में रहते हुए—(तं त्वा तवसम्) उस तुझ महान्५ परमात्मा को (अतव्यान्-गृणामि) मैं अल्पस्थानी अणु आत्मा स्तुत करता हूँ—स्तुति में लाता हूँ॥२॥
विशेष
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विषय
कर्तृत्व में भी अकर्तृत्व
पदार्थ
हे (शिपिविष्ट) = किरणों में प्रविष्ट, अर्थात् ज्ञानमय प्रभो! (अद्य) = आज (वयुनानि) = तेरे सृष्टि के उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयादि कर्मों का (विद्वान्) = विचार करनेवाला (अर्यः) = इन्द्रियों को वश में करनेवाला मैं (ते) = तेरे (तत्) = उस (हव्यम्) =[आह्वातव्यम्] पुकारने योग्य रूप का (प्रशंसामि) = खूब उच्चारण करता हूँ, अर्थात् मैं आपका खूब स्मरण करता हूँ।
(अतव्यान्) = निर्बल मैं (तम्) = उस (तवसम्) = बल के पुञ्ज (त्वाम्) = आपको (गृणामि) = स्तुत करता हूँ । आपकी स्तुति से मुझमें भी बल का संचार होता है। आप (अस्य रजस:) = इस सम्पूर्ण रजस् के (पराके) = परे – दूर देश में (क्षयन्तम्) = निवास कर रहे हैं । प्रभु इस सारे निर्माणादि कार्यों को करते हैं, परन्तु इन कार्यों को करते हुए भी वे इनसे परे हैं—इनमें वे फँसे हुए नहीं हैं । कर्त्ता होते हुए भी वे अकर्त्ता ही हैं। इस रजोगुण में न उलझने से ही वे शक्तिशाली बने हैं । रजोगुण में न उलझने का कारण उनका ‘शिपिविष्ट' होना है। वे ज्ञानपुञ्ज हैं, अतः आसक्ति से परे हैं ।
इस रूप में प्रभु का स्तवन करनेवाला व्यक्ति भी कर्त्ता होते हुए अकर्त्ता बन पाता है। आसक्ति को जीतकर मन पर प्रभुत्व स्थापित करनेवाला यह इस मन्त्र का ऋषि ‘वसिष्ठ' होता है । प्रभु का स्तोता बनने के लिए आवश्यक है कि हम -
१. प्रभु के सृष्टि- निर्माणादि कार्यों पर विचार करें तथा २. जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करें। विचारक और संयमी ही प्रभु का स्तोता बन पाता है।
भावार्थ
प्रभु के तेजोमय रूप का चिन्तन कर हम भी तेजस्वी बनें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (शिपिविष्ट) रश्मियों से आविष्ट, अथवा तेजोमय लोकों में व्यापक परमात्मन् ! मैं (अर्यः) अपनी इन्द्रियों का स्वामी जितेन्द्रिय होकर (वयुनानि) तेरे समस्त सृष्टि, स्थिति, प्रलय आदि महान् कार्यों को (जानन्) जानता हुआ (तत्) वह अति प्राचीन (हव्यं) पुकारने, नित्य ग्रहण और शरण करने योग्य नाम (शंसामि) कहता हूं और (अस्य) इस (रजसः) प्राकृत लोकों के भी (पराके) दूर, परे मोक्ष में भी (क्षयन्तं) निवास करने हारे (तवसं) महान् (तं त्वा) उस सनातन तेरी में (अतव्यान्) तुच्छ व्यक्ति (गृणामि) स्तुति करता हूं।
टिप्पणी
‘प्रतजे अद्यशिपिविष्टना मार्यः’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मानं स्तौति।
पदार्थः
हे (शिपिविष्ट) तेजःकिरणैरावृत विष्णो सर्वव्यापक जगदीश! (अर्यः) स्तुतीनामीश्वरः। [अर्य इतीश्वरनाम। निघं० २।२२।] (वयुनानि विद्वान्) कर्तव्यकर्माणि जानानः अहम् (अद्य) अस्मिन् दिने (ते) तव (तत्) प्रसिद्धम् (हव्यम्) दानम् (प्र शंसामि) प्रकर्षेण स्तौमि। (अतव्यान्) अतवीयान्, अवृद्धतरः अहम् (तवसम्) प्रवृद्धम्, (अस्य रजसः) अस्य रजोगुणस्य(पराके) दूरे (क्षयन्तम्) क्षियन्तं निवसन्तम् (तम्) प्रसिद्धम्(त्वा) त्वाम्, (गृणामि) स्तौमि ॥२॥
भावार्थः
अल्पशक्तिर्मानवो महाशक्तेः परमात्मनो गुणानां स्मरणेन निरभिमानो भूत्वा महान्ति कार्याणि कर्तुं स्वात्मनि बलं सञ्चिनुयात् ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O All-pervading God, I, a skilled devotee, knowing Thy acts of the creation, sustenance and dissolution of the universe, ever praise Thee, worthy of invocation. Yea, I, poor and weak, praise Thee, the Mighty, Who dwellest in the realm beyond this region!
Meaning
O lord self-refulgent, you that have made this wide world, I adore today, celebrate and glorify your name: You are the master, lord omniscient of the ways and laws of existence. You are the mighty power, all pervasive far and wide in the moving world, and you are transcendent even beyond. (Rg. 7-100-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (शिपिविष्ट) હે જ્ઞાન રશ્મિઓથી પૂર્ણ વ્યાપક પરમાત્મન્ ! (अद्य) આજ આ જન્મમાં (ते तत्) તારા એ (हव्यम्) હૃદય ગ્રાહ્ય સ્વરૂપને (वयुनानि विद्वान्) જે કે તું અમારા પ્રજ્ઞાનો-વિચારોને અથવા શ્રેષ્ઠ અભિપ્રાયોને જાણનાર છે. તેને (अर्यः संशामि) હું અભ્યાસ અને વૈરાગ્યથી ચિત્તવૃત્તિઓનો સ્વામી બનાવીને પ્રશંસિત કરું છું. (अस्य रजसः पराके क्षयन्तम्) આ લોક સમૂહ-જગતના પરાક્રાંત-દ્યુલોક મોક્ષધામમાં રહીને, (तं त्वा तवसम्) તું મહાન પરમાત્માને (अतव्यान् गृणामि) હું અલ્પ સ્થાનમાં રહેલ અણુ રૂપ આત્મા સ્તુત કરું છું-સ્તુતિમાં લાવું છું. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
अल्पशक्तिवान माणसाने महाशक्तिवान परमात्म्याच्या गुणांचे स्मरण करून निरभिमान बनून महान कार्य करण्यासाठी आपल्या आत्म्यात बल संचित करावे. ॥२॥
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