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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1703
    ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    प्र꣡ वा꣢मर्चन्त्यु꣣क्थि꣡नो꣢ नीथाविदो जरितारः । इन्द्राग्नी इष आ वृणे ॥१७०३

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । वा꣣म् । अर्चन्ति । उक्थि꣡नः꣢ । नी꣣थावि꣡दः꣢ । नी꣣थ । वि꣡दः꣢꣯ । ज꣣रिता꣡रः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नी꣢इति꣢ । इ꣡षः꣢꣯ । आ । वृ꣣णे ॥१७०३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वामर्चन्त्युक्थिनो नीथाविदो जरितारः । इन्द्राग्नी इष आ वृणे ॥१७०३


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । वाम् । अर्चन्ति । उक्थिनः । नीथाविदः । नीथ । विदः । जरितारः । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । इषः । आ । वृणे ॥१७०३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1703
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    द्वितीय ऋचा उत्तरार्चिक में १५७५ क्रमाङ्क पर परमात्मा और जीवात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ ब्रह्म-क्षत्र का विषय वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मण-क्षत्रियो ! (उक्थिनः) गुणों के प्रशंसक, (नीथाविदः) नीतिज्ञ, (जरितारः) ज्ञानवृद्ध लोग (वाम्) तुम्हारी (प्र अर्चन्ति) प्रशंसा करते हैं। मैं तुमसे (इषः) अभीष्ट लाभों को (आवृणे) ग्रहण करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के चाहिए कि उत्कृष्ट ब्राह्मणों और क्षत्रियों को एकत्र करके राष्ट्र को उन्नत करें ॥२॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १५७५)

    विशेष

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    विषय

    प्राणापान की अर्चना

    पदार्थ

    गत मन्त्र में प्राणापान के लाभों का उल्लेख हो गया है, उनका ध्यान करते हुए 'विश्वामित्र' लोग हे प्राणापानो ! (वाम्) = आप दोनों की (प्र अर्चन्ति) = खूब अर्चना करते हैं। आप दोनों की अर्चना करनेवाले ये लोग

    १. (उक्थिन:) = [वागुक्थम् – षड्० १.५] उत्तम वाणीवाले होते हैं । इनके मुख से कभी अशुभ शब्दों का उच्चारण नहीं होता 

    [अन्नम् उक्थानि–कौ० ११.८] सात्त्विक अन्नों के सेवन की वृत्तिवाले होते हैं। प्रजा वा उक्थानि—तै० १.८.७.२] ये उत्तम सन्तानवाले होते हैं। पशव [उक्थानि–ए० ४.१.१२] ये अपने घरों में उत्तम गाय आदि पशुओं के रखनेवाले
    होते हैं । [उक्थमिति बवृचा उपासते – श० १०.५.२.२०] ये ऋग्वेद के द्वारा - विज्ञान के द्वारा प्रभु के उपासक होते हैं ।

    २. (नीथाविदः) = [नीथान् विनयान् विन्दन्ति – दयानन्द] ये प्राणोपासक लोग जीवन-यात्रा के मार्ग [नय] को ठीक-ठीक समझते हुए बड़ी विनीतता से जीवन यापन करते हैं और इस प्रकार अपने उत्तम कर्मों के द्वारा [यजुर्वेद - कर्मवेद], अर्थात् यज्ञों के द्वारा प्रभु के उपासक बनते हैं ।

    ३. (जरितार:) = [जरते-स्तौति] ये सामों के द्वारा प्रभु का स्तवन करनेवाले होते हैं। इस प्रकार इनके जीवन में ऋग्, यजुः व साम तीनों ही का समावेश होता है, इसलिए विश्वामित्र कहता है कि हे (इन्द्राग्नी) = प्राणापानो ! मैं आपके द्वारा (इषः) = प्रभु की प्रेरणाओं का (आवृणे) = सर्वथा वरण करता हूँ । वेदों में उस परम अक्षर से दी गयी प्रेरणाओं को यह प्राणोपासक सुनता है। दूसरे शब्दों में इसे

    भावार्थ

    मैं प्राणोपासक बनकर प्रभु की वाणी को सुननेवाला बनूँ । 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    “प्रवामर्चन्त्युक्थिनः०” और “इन्द्राग्नी नवतिंपुरः” यह दोनों प्रतीकमात्र हैं। व्याख्या देखो अवि० सं० [१५७५, १५७६] पृ० ६७१।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    द्वितीया ऋक् उत्तरार्चिके १५७५ क्रमाङ्के परमात्मजीवात्मविषये व्याख्यातपूर्वा। अत्र ब्रह्मक्षत्रविषय उच्यते।

    पदार्थः

    हे इद्राग्नी ब्राह्मणक्षत्रियौ ! (उक्थिनः) गुणप्रशंसकाः, (नीथाविदः) नीतिवेत्तारः, (जरितारः) ज्ञानवृद्धाः जनाः (वाम्) युवाम् (प्र अर्चन्ति) प्रशंसन्ति। अहम् युवयोः (इषः) एष्टव्यान् लाभान् (आवृणे) स्वीकरोमि ॥२॥२

    भावार्थः

    मनुष्यैरुत्कृष्टान् ब्राह्मणान् क्षत्रियांश्च संगृह्य राष्ट्रमुन्नेतव्यम् ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God and soul, singers skilled in Sama melody, hymn Ye, bringing lauds. I choose Ye both to bring me strength!

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    Meaning

    Indra and Agni, the singers of hymns, pioneers of highways and celebrants honour and worship you. I choose to celebrate you for the sake of sustenance, support and energy. (Rg. 3-12-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન અને જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (वाम्) તારા બન્ને રૂપોવાળાને (उक्थिनः) સ્તુતિવાણી વાળા (नीथाविदः) અધ્યાત્મ દૃષ્ટિના વિદ્વાનો (जरितारः) સ્તોતા ઉપાસકજન (प्र अर्चन्ति) પ્રકૃષ્ટ રૂપે અર્ચન-સેવન કર્યા કરે છે, (इषे आवृणे) મારી કામના પૂર્તિને માટે સમગ્રરૂપથી તને વરણ કરું છું. (૧)

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी उत्कृष्ट ब्राह्मण व क्षत्रियांना एकत्र करून राष्ट्राची उन्नती करावी. ॥२॥

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