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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1719
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    18

    वृ꣣त्रखादो꣡ व꣢लꣳ रु꣣जः꣢ पु꣣रां꣢ द꣣र्मो꣢ अ꣣पा꣢म꣣जः꣢ । स्था꣢ता꣣ र꣡थ꣢स्य꣣ ह꣡र्यो꣢रभिस्व꣣र꣡ इन्द्रो꣢꣯ दृ꣣ढा꣡ चि꣢दारु꣣जः꣢ ॥१७१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ꣣त्रखादः꣢ । वृ꣣त्र । खादः꣢ । व꣣लꣳरुजः꣢ । व꣣लम् । रुजः꣢ । पु꣣रा꣢म् । द꣣र्मः꣢ । अ꣣पा꣢म् । अ꣣जः꣢ । स्था꣡ता꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯स्य । ह꣡र्योः꣢꣯ । अ꣣भिस्वरे꣢ । अ꣣भि । स्वरे꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । दृ꣣ढा꣢ । चि꣣त् । आरुजः꣢ । आ꣣ । रुजः꣢ ॥१७१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृत्रखादो वलꣳ रुजः पुरां दर्मो अपामजः । स्थाता रथस्य हर्योरभिस्वर इन्द्रो दृढा चिदारुजः ॥१७१९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वृत्रखादः । वृत्र । खादः । वलꣳरुजः । वलम् । रुजः । पुराम् । दर्मः । अपाम् । अजः । स्थाता । रथस्य । हर्योः । अभिस्वरे । अभि । स्वरे । इन्द्रः । दृढा । चित् । आरुजः । आ । रुजः ॥१७१९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1719
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब जीवात्मा का कर्तव्य बताते हैं।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) मनुष्य का आत्मा (वृत्रखादः) पापों का भक्षक, (वलंरुजः) धर्म पर पर्दा डालनेवाले काम, क्रोध आदि को चकनाचूर करनेवाला, (पुरां दर्मः) शत्रु की नगरियों को विदीर्ण करनेवाला, (अपाम् अजः) कर्मों को गति देनेवाला, (हर्योः) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों के (रथस्य) शरीररूप रथ का (स्थाता) अधिष्ठाता और (अभिस्वरे) देवासुरसङ्ग्राम में (दृढा चित्) दृढ से दृढ विघ्न आदि को (आ रुजः) चकनाचूर कर देनेवाला होवे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि वे अपने आत्मा की शक्ति को समझ कर, उसका प्रयोग करके, सब बाधाओं का उन्मूलन करके अभ्युदय और निःश्रेयसरूप लक्ष्य को प्राप्त करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (वृत्रखादः) पाप का भक्षकनाशक४ (वलं रुजः) वरण—वारक—अज्ञान भञ्जक५ (पुरां दर्मः) मन का विदीर्णकर्ता—मनोवृत्तिहर्त्ता६ (अपाम्-अजः) कामनाओं७ वासनाओं को निकाल फेंकनेवाला (रथस्य स्थाता) रमणीय८ मोक्षानन्द का स्थापक—प्राप्त कराने वाला (हर्योः-अभिस्वरः) ऋक् और साम९—स्तुति और उपासना के अर्चन—सेवन में१० (दृढाचित्-आरुजः) दृढ़ दुर्वृत्तियों का भी अस्तव्यस्त करने वाला है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    इन्द्र के मुख्य गुण [ Characteristics ]

    पदार्थ

    १. (वृत्रखादः) = वृत्र का यह खा-जानेवाला होता है। यह वासना को कुचल डालता है। वासना ज्ञान पर पर्दा डाल देती है, अत: यह वृत्र कहलाती है । इन्द्र इसको उसी प्रकार छिन्न-भिन्न कर देता है जैसे सूर्य मेघ को । सूर्य 'इन्द्र' है तो 'वृत्र' मेघ ।

    २. (वलं रुजः) = यह वल को नष्ट कर देता है । इन्द्र का एक नाम 'वलभित्' है । वस्तुतः 'वल' देवता है, जब तक कि यह निर्बलों के रक्षण में विनियुक्त होता है, परन्तु जब यह दूसरों के उत्पीड़न में विनियुक्त होता है तब यह राक्षस बन जाता है । इन्द्र इस राक्षस का विदारण करने के कारण ‘वलभित्' कहलाता है। मनुष्य को बल के गर्व में कभी भी न्याय का गला नहीं घोंटना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो वह 'वलभित्' नहीं, बल्कि बल के मद से पराजित हो जाता है ।

    ३. (पुरां दर्मः) = जीव को प्रभु ने निवास के लिए पाँच कोश व तीन शरीर दिये हैं—ये ही इसके पुर हैं। वस्तुत: यह इन पुरों के अन्दर बँधा हुआ है। इसने 'दमन, दान व दया' की साधना करके इन बन्धनों को तोड़ना है । इसी बात को यहाँ इस रूप में कहा गया है कि यह पुराम्=पुरों का दर्म:= विदारण करनेवाला होता है ।

    ४. (अपाम् अजः) = यह सदा व्यापक कर्मों में [आप् व्याप्तौ] गतिशील होता है। हमारे कर्म दो प्रकार के होते हैं—एक स्वार्थपूर्ण और दूसरे स्वार्थरहित । जो कर्म जितना जितना स्वार्थ से रहित होता है वह उतना उतना व्यापक होता है । यह इन्द्र सदा इन व्यापक कर्मों में ही व्याप्त रहता है ।

    ५. यह इन्द्र (रथस्य) = जीवन-यात्रा के लिए दिये गये शरीररूप रथ के (हर्यो:) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों पर (स्थाता) = अधिष्ठित होता है । यह सदा उनपर क़ाबू पाये रहता है, उनके क़ाबू नहीं हो जाता । जीवनन - यात्रा को पूर्ण करने के लिए यह आवश्यक है, अन्यथा यात्रा की पूर्ति सम्भव है ही नहीं । बेकाबू घोड़े तो किसी गड्ढे में ही गिरा देंगे ।

    ६. अभिस्वरः=यह इन्द्र अपने जीवन में उपर्युक्त पाँचों बातों को लाने के लिए सदा प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाला होता है, [ स्वृ शब्दे ] । यही प्रभु-नामोच्चारण उसे प्रेरणा व उत्साह प्राप्त कराता है। इसी से वह अपने में एक शक्ति अनुभव करता है ।

    ७. अब यह (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (दृढाचित्) = दृढ़-से-दढ़ विषय-बन्धनों को (आरुज:) = समन्तात् छिन्न-भिन्न कर डालता है, इनका ग़ुलाम नहीं बना रहता । विषय ‘ग्रह' हैं— इन्होंने जीव को बुरी तरह से जकड़ा हुआ है, यह उनकी जकड़ से छूट जाता है ।

    भावार्थ

    हमें चाहिए कि इन्द्र के उल्लिखित सात लक्षणों को अपने जीवन में अनूदित करने का प्रयत्न करें।

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    विषय

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    भावार्थ

    (वृत्रखादः) आवरणकारी अज्ञान का नाशक (बलं रुजः) बलन करने वाले, प्राण धारण करने वाले देह, या मोक्ष का अपरोध करने वाले तामस आवरण को तोड़ डालने हारे, (पुरां दर्मः) पंचकोश रूप पुरियों के विदारक, (रथस्य स्थाता) इस रथ या देह या विशाल ब्रह्माण्ड रूप रथ के अधिष्ठाता (अपाम् अजः) कर्मों और मनः संकल्पों के प्रेरणा करने वाले, (हर्योः अभिस्वरः) प्राणेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय अथवा प्राण और अपान इनका साक्षात् रूप से प्रेरक (इन्द्रः) आत्मा और परमात्मा (दृढ़ाचित्) दृढ़ से दृढ़, कठोर से कठोर बन्धनों या विघ्नों को भी (आरुजः) विनाश कर देता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जीवात्मनः कर्त्तव्यमाह।

    पदार्थः

    (इन्द्रः) मनुष्यस्यात्मा (वृत्रखादः) पापभक्षकः, (वलंरुजः) धर्माच्छादकस्य कामक्रोधादेः भङ्क्ता, (पुरां दर्मः) शत्रुनगरीणां विदारकः, (अपाम् अजः) कर्मणां गतिप्रदाता, (हर्योः) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपयोः अश्वयोः (रथस्य) देहरथस्य (स्थाता) अधिष्ठाता, (अभिस्वरे) देवासुरसंग्रामे च (दृढा चित्) दृढान्यपि विघ्नादीनि (आरुजः) आमर्दयिता भवेत् ॥२॥२

    भावार्थः

    मनुष्याः स्वात्मशक्तिं विभाव्य तां प्रयुज्य सर्वा बाधा उद्धूयाभ्युदयनिःश्रेयसरूपं लक्ष्यं प्राप्नुवन्तु ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, the Dispeller of nescience, the Annihilator of the covering of darkness, the Splitter of the citadels of five sheaths, the Lord of the chariot of the universe, the Urger to actions, the Impeller of the organs of action and cognition, shatters even things that stand most firm.

    Translator Comment

    Fire sheaths: the five cases which successively make the body, enshrining the soul.

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    Meaning

    Indra is the breaker of the clouds. He shatters the caverns of the demons, routs the cities of sin and releases the flow of waters. Sitting firm in the middle of the chariot behind the horses in the uproar like the sun on the back of the rays, he breaks even the unbreakables. (Rg. 3-45-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (वृत्रखादः) પાપના ભક્ષક-નાશક, (वलं रुजः) વરણ-વારક અજ્ઞાન ભંજક, (पुरां दर्मः) મનને વિદીર્ણ કરનાર-મનોવૃત્તિહર્તા, (अपाम् अजः) કામનાઓ, વાસનાઓને કાઢીને ફેંકનાર, (रथस्य स्थाता) રમણીય મોક્ષાનંદના સ્થાપક-પ્રાપ્ત કરાવનાર, (हर्योः अभिस्वरः) ઋક્ અને સામ-સ્તુતિ અને ઉપાસનાના અર્ચન-સેવનમાં (दृढाचित् आरुजः) દઢ દુવૃત્તિઓને પણ અસ્ત-વ્યસ્ત કરનાર છે. (૨)

     

     

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी आपल्या आत्म्याच्या शक्तीला समजून, त्याचा प्रयोग करून, सर्व बाधांचे उन्मूलन करून अभ्युदय व नि:श्रेयस रूप लक्ष्याला प्राप्त करावे. ॥२॥

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