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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1742
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
10
सा꣡ नो꣢ अ꣣द्या꣢भ꣣र꣡द्व꣢सु꣣꣬र्व्यु꣢꣯च्छा दुहितर्दिवः । यो꣢꣫ व्यौच्छः꣣ स꣡ही꣢यसि स꣣त्य꣡श्र꣢वसि वा꣣य्ये꣡ सुजा꣢꣯ते꣣ अ꣡श्व꣢सूनृते ॥१७४२॥
स्वर सहित पद पाठसा꣢ । नः꣡ । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । आ꣣भर꣡द्व꣢सुः । आ꣣भर꣢त् । व꣣सुः । वि꣢ । उ꣣च्छ । दुहितः । दिवः । या꣢ । उ꣣ । व्यौ꣡च्छः꣢꣯ । वि꣣ । औ꣡च्छः꣢꣯ । स꣡ही꣢꣯यसि । स꣣त्य꣡श्र꣢वसि । स꣣त्य꣢ । श्र꣣वसि । वाय्ये꣢ । सु꣡जा꣢꣯ते । सु । जा꣣ते । अ꣡श्व꣢꣯सूनृते । अ꣡श्व꣢꣯ । सू꣣नृते ॥१७४२॥
स्वर रहित मन्त्र
सा नो अद्याभरद्वसुर्व्युच्छा दुहितर्दिवः । यो व्यौच्छः सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥१७४२॥
स्वर रहित पद पाठ
सा । नः । अद्य । अ । द्य । आभरद्वसुः । आभरत् । वसुः । वि । उच्छ । दुहितः । दिवः । या । उ । व्यौच्छः । वि । औच्छः । सहीयसि । सत्यश्रवसि । सत्य । श्रवसि । वाय्ये । सुजाते । सु । जाते । अश्वसूनृते । अश्व । सूनृते ॥१७४२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1742
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर उसी विषय को कहते है।
पदार्थ
हे (सुजाते) सुप्रसिद्ध, (अश्वसूनृते) व्यापक प्रिय सत्य वेदवाणीवाली, (दिवः दुहितः) दिव्यप्रकाश को दुह कर देनेवाली जगन्माता ! (आभरद्वसुः) दिव्यधनों को लानेवाली (सा) वह तू (अद्य) आज (नः) हमारे लिए (व्युच्छ) तमोगुण वा अविद्या के अन्धकार को दूर करके विवेकख्याति का प्रकाश फैला, (या उ) जो तू (सहीयसि) अति सहनशील, (सत्यश्रवसि) सत्य यशवाले, (वाय्ये) सत्सङ्ग के लिए प्राप्तव्य किसी महापुरुष में (व्यौच्छः) प्रकाश उत्पन्न करती है ॥३॥
भावार्थ
जगदीश्वरी माँ जैसे महापुरुषों के हृदय में प्रकाश उत्पन्न करती है, वैसे ही हमें भी दिव्य प्रकाश से अनुगृहीत करे ॥३॥
पदार्थ
(सा) वह तू परमात्मा की दीप्ति या ज्योति! (आभरद्वसुः) वसाने वाले परमात्मा को आभरित करती हुई (दिवः-दुहितः) हे मोक्षधाम की दूहने वाली (अद्य) आज—इस जन्म में मुझ उपासक के अन्दर प्रकाशित (या-उ) जो ही तू (व्युच्छः) प्रकाशित हो चुकी पूर्व भी (सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसुनृते) पापों अज्ञानों को प्रसहन करने वाली दबाने वाली सत्यस्वरूप परमात्मा का श्रवण कराने वाली वरणीय सुप्रसिद्ध व्यापक परमात्मा की वाणी जिसमें है ऐसी तू मुझ उपासक के अन्दर प्रकाशित हो॥३॥
विशेष
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विषय
उषा हममें वसु भर दे
पदार्थ
१. (सा) = वह उषा (नः) = हममें (अद्य) = आज (वसुः) = उत्तम धन को (आभरत्) = भर दे । हे (दिवः दुहितः) = प्रकाश को भरनेवाली उषे ! तू (व्युच्छ) = हमारे अन्धकार को दूर भगा दे । या उ जो तू निश्चय से (व्यौच्छः) = अन्धकार को दूर करती है। किस-किस में?
[क] (सहीयसि) = सहनशक्तिवाले में । [ख] (सत्यश्रवसि) = सत्य ज्ञानवाले में। [ग] (वाय्ये) = मन का विस्तार करनेवाले में । [घ] (सुजाते) = उत्तम विकासशील पुरुष में तथा [ङ] (अश्वसुनते) = व्यापक सत्य कर्म करनेवाले में ।
उषा प्रकाश प्राप्त कराती है तो वह वसु - निवास के लिए आवश्यक धन भी प्राप्त कराती ही है। वस्तुत: श्री और सरस्वती का विरोध लोकोक्तियों का विषय तो बन गया है, परन्तु ऐसे स्थलों में विलासमय श्री अभिप्रेत होती है। जीवन के लिए आवश्यक श्री तो 'वसु' है, वह स्वयं दिव्य है – उसका सरस्वती से अविरोध ही है ।
भावार्थ
मैं उषा में जागूँ और वसु व प्रकाश को प्राप्त करूँ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (दिवः दुहितः) आत्मा के रस दोहन करने हारी विशोके ! (भरद्-वसुः) वसुरूप प्राणों और मुख्य आत्मा को ज्ञान से भरपूर करने वाली पूर्वोक्त ! तू (या) जो (सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते) सहनशील तपस्वी, सत्यज्ञानी, अविच्छिन्न, उत्तम, शुभरूप से प्रकाशमान आत्मा से (व्यौच्छः) आवरण को दूर करती है (सा) वह तू हे (अश्वसूनृते) आत्मा को सत्यज्ञान से पूर्ण करने हारी तू (नः) हमारे अज्ञान को भी (अद्य) आज (व्युच्छः) दूर कर। उषा के दृष्टान्त से गृहपत्नी के कर्त्तव्य भी इस सूक में बतलाये हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे (सुजाते) सुप्रिसद्धे, (अश्वसूनृते) अश्वाव्याप्ता महती सूनृता प्रियसत्यात्मिका वेदवाग् यस्याः तादृशि (दिवः दुहितः) दिव्यप्रकाशस्य दोग्ध्रि जगन्मातः ! (आभरद्वसुः) आहरति दिव्यानि वसूनि या तादृशी (सा) त्वम् (अद्य) अस्मिन् दिने (नः) अस्मभ्यम् (व्युच्छ) तमोगुणमविद्यान्धकारं च विवास्य सत्त्वगुणस्य विद्यायाश्च प्रकाशं जनय, (या उ) या खलु त्वम् (सहीयसि) अतिशयेन सहनशीले, (सत्यश्रवसि) सत्ययशसि (वाय्ये) सत्सङ्गाय प्राप्तव्ये कस्मिंश्चिन्महापुरुषे। [वा गतिगन्धनयोः, ण्यत्।] (व्यौच्छः) प्रकाशं जनयसि ॥३॥२
भावार्थः
जगदीश्वरी माता यथा महापुरुषाणां हृदये प्रकाशं जनयति तथैवास्मानपि दिव्यप्रकाशप्रदानेनानुगृह्णातु ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O intellect, the relisher of the joy of soul, the filler of the joy of soul, fee filler of soul and vital airs with knowledge, just as thou removest the covering of ignorance from the patient, austere, learned, constant, excellent and beautiful soul, so do thou, the replenisher of soul with true knowledge, remove today ignorance from us as well!
Translator Comment
Griffith imports history in the verse. He considers Satyasravas to be the son of Sunitha who was the son of Vaya, who was the son of Suchadratha. These words are not historical names. They indicates the different virtues of the soul.
Meaning
May she, daughter of the light of heaven, harbinger of all wealth, establish us today in the light of life. She is most forbearing, dedicated to truth and prosperity, lovable, nobly born, the enlightened lady of knowledge and eternal truth who herself shines in splendour. (Rg. 5-79-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सा) તે તું પરમાત્માની દીપ્તિ વા જ્યોતિ ! (आभरद्वसुः) વસાવનારા પરમાત્માને આભરિત - પરિપૂર્ણ કરતી (दिवः दुहितः) હે મોક્ષધામની દોહનારી (अद्य) આજે-વર્તમાન જન્મમાં મારી ઉપાસકની અંદર પ્રકાશિત (या उ) જે જ તું (व्युच्छः) પ્રકાશિત થઈ હતી પૂર્વે પણ (सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसुनृते) પાપો અજ્ઞાનોને પ્રસહન કરનારી-દબાવનારી સત્યસ્વરૂપ પરમાત્માનું શ્રવણ કરાવનારી વરણીય સુપ્રસિદ્ધ વ્યાપક પરમાત્માની વાણી જેમાં છે, એવી તું મુજ ઉપાસકની અંદર પ્રકાશિત થા. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वरी माता जशी महापुरुषांच्या हृदयात प्रकाश उत्पन्न करते, तसेच आम्हालाही दिव्य प्रकाशाने अनुगृहीत करावे. ॥३॥
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