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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1778
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - पदपङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    10

    अ꣢धा꣣꣬ ह्य꣢꣯ग्ने꣣ क्र꣡तो꣢र्भ꣣द्र꣢स्य꣣ द꣡क्ष꣢स्य सा꣣धोः꣢ । र꣣थी꣢रृ꣣त꣡स्य꣢ बृह꣣तो꣢ ब꣣भू꣡थ꣢ ॥१७७८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡ध꣢꣯ । हि । अग्ने । क्र꣡तोः꣢꣯ । भ꣣द्र꣡स्य꣢ । द꣡क्ष꣢꣯स्य । सा꣣धोः꣢ । र꣣थीः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । बृ꣣हतः꣢ । ब꣣भू꣡थ꣢ ॥१७७८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा ह्यग्ने क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः । रथीरृतस्य बृहतो बभूथ ॥१७७८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अध । हि । अग्ने । क्रतोः । भद्रस्य । दक्षस्य । साधोः । रथीः । ऋतस्य । बृहतः । बभूथ ॥१७७८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1778
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (अध) और हे (अग्ने) जीवन को उन्नत करनेवाले परमात्मदेव ! आप (भद्रस्य क्रतोः) शुभकर्म के, (साधोः दक्षस्य) साधु बल के और (बृहतः ऋतस्य) महान् सत्य के (रथीः) स्वामी (हि) निश्चय ही (बभूथ) हो ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर श्रेष्ठ कर्म, बल और सत्य का अधिपति है, वैसे ही मनुष्यों को भी होना चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (अध हि) अनन्तर ही—बस अब ही (भद्रस्य क्रतोः) कल्याण सङ्कल्प९ का (साधोः-दक्षस्य) अच्छे-सच्चे बलसमृद्धि का१० (बृहतः-ऋतस्य) महान् अमृत१ मोक्षानन्द का (रथीः-बभूथ) नायक है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    वामदेव के जीवन की तीन बातें

    पदार्थ

    वामदेव कहता है—हे प्रभो ! मैं आपके प्रापक स्तोमों से आपको बढ़ा (अधा हि) = और तब निश्चय से हे (अग्ने) = मेरी उन्नति के साधक प्रभो! आप मेरे जीवन में निम्न तीन बातों के (रथी:) = नेता व प्रापक बभूथ =होते हो|

    १. (भद्रस्य क्रतोः) = सर्वप्रथम मुझे 'भद्रक्रतु'-शिवसंकल्प व शुभ क्रियाशीलता को प्राप्त कराते हैं। मेरे हृदय में अशिव संकल्प कभी नहीं उठता और मेरा जीवन सदा शुभ क्रियाओं से ओत-प्रोत रहता है।

    २. (साधोः दक्षस्य) = मेरा जीवन दक्षता dexterity = चतुरता से व्याप्त होता है, परन्तु यह चतुरता साधु की होती है, असाधु की नहीं - cleverness न कि cunningness चतुरता न कि चालाकी, कुशलता न कि कपटता । मैं अब किसी भी कार्य को अनाड़ीपन से नहीं करता ।

    ३. (बृहतः ऋतस्य) = वृद्धि के साधनभूत ऋत=नियमितता=regularity को आप मुझमें बढ़ाते हैं। सूर्य और चन्द्रमा की गतियों के समान मेरा जीवन नियमित गति से चलता है। मैं प्रत्येक क्रिया को ठीक समय पर व ठीक स्थान पर करता हूँ ।

    उल्लिखित मन्त्र के शब्दों से यह स्पष्ट है कि प्रभुभक्त १. शुभ कर्म संकल्पों व शुभ क्रियाओंवाला होता है, २. वह उन क्रियाओं को साधु पुरुष की दक्षता के साथ करता है, और ३. उसकी प्रत्येक क्रिया ठीक समय पर व ठीक स्थान पर होती है ।

    मन्त्र के ‘साधोः' शब्द पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रभुभक्त कार्यों को कुशलता से करता है। इसकी यह कुशलता सदा कार्यों को सिद्ध करनेवाली होती है [साध्नोति] । यह तोड़फोड़ की ओर झुकाव नहीं रखता ।

    भावार्थ

    शुभ संकल्प, साधु दक्षता व बृहत् ऋत को अपनाकर मैं 'वामदेव' बनूँ और अपने को सच्चा प्रभुभक्त प्रमाणित करूँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (अध हि) और क्योंकि हे अग्ने ! परमेश्वर ! आप (बृहतः) बड़े भारी (ऋतस्य) सत्य ज्ञान और इस महान् ब्रह्माण्ड के (रथीः) धारण करने हारे (बभूथ) हो और (क्रतोः) प्रज्ञानस्वरूप (भद्रस्य) भजन या सेवन करने योग्य कल्याणकारी (साधोः) अभीष्ट फलों के साधक यज्ञ के भी (रथी) प्रवर्तक हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (अध) अथ, हे (अग्ने) जीवनोन्नायक परमात्मदेव ! त्वम् (भद्रस्य क्रतोः) शुभस्य कर्मणः (साधोः दक्षस्य) शोभनस्य बलस्य, (बृहतः ऋतस्य) महतः सत्यस्य च (रथीः) स्वामी (हि) निश्चयेन (बभूथ) बभूविथ। [अत्र ‘बभूथाततन्थजगृभ्मववर्थेति निगमे’। अ० ७।२।६४ इति निपातनादिडभावः। ‘रथीः’ इत्यत्र ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ’ वा० ५।२।१२२ इति वार्तिकेन मत्वर्थे ई प्रत्ययः। ‘अधा’ इत्यत्र ‘निपातस्य च’। अ० ६।३।१३६ इत्यनेन दीर्घः] ॥२॥२

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरः श्रेष्ठस्य कर्मणो बलस्य सत्यस्य चाधिपतिर्वर्तते तथैव मनुष्यैरपि भाव्यम् ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, Thou art the Promoter of a vast genuine knowledge and the Fulfiller of an auspicious, wise and judicious resolve!

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    Meaning

    And now Agni, O light and ruler of the world, be the rider and commander of the chariot of the plan and programme of our creative and developmental yajna of the human nation, a yajna which is blissfully fruitful, expertly organised and sophisticated, truthfully in consonance with the laws of nature and the environment and positively good, great and far reaching in consequence for life. (Rg. 4-10-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्ने) હે જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (अध हि) ત્યાર પછી જ-બસ આજે જ (भद्रस्य क्रतोः) કલ્યાણ સંકલ્પનો (साधोः दक्षस्य) સારા-સાચા બળસમૃદ્ધિનો (बृहतः ऋतस्य) મહાન અમૃત મોક્ષાનંદનો (रथीः बभूथ) નાયક-નેતા છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर श्रेष्ठ कर्म, बल व सत्याचा अधिपती आहे, तसेच माणसांनीही बनले पाहिजे ॥२॥

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