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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1806
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
15
मा꣡ न꣢ इन्द्र पीय꣣त्न꣢वे꣣ मा꣡ शर्ध꣢꣯ते꣣ प꣡रा꣢ दाः । शि꣡क्षा꣢ शचीवः꣣ श꣡ची꣢भिः ॥१८०६॥
स्वर सहित पद पाठमा꣢ । नः꣣ । इन्द्र । पीयत्न꣡वे꣢ । मा । श꣡र्ध꣢꣯ते । प꣡रा꣢꣯ । दाः꣣ । शि꣡क्ष꣢꣯ । श꣣चीवः । श꣡ची꣢꣯भिः ॥१८०६॥
स्वर रहित मन्त्र
मा न इन्द्र पीयत्नवे मा शर्धते परा दाः । शिक्षा शचीवः शचीभिः ॥१८०६॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । नः । इन्द्र । पीयत्नवे । मा । शर्धते । परा । दाः । शिक्ष । शचीवः । शचीभिः ॥१८०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1806
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब जगदीश्वर से प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! आप (नः) हमें (मा) न तो (पीयत्नवे) हिंसक काम, क्रोध, लोभ आदि के लिए और (मा) न ही (शर्धते) बलवान् किसी मानव शत्रु के लिए (परा दाः) छोड़ो। हे (शचीवः) शक्तिशाली परमात्मन् ! आप (शचीभिः) अपनी शक्तियों से (शिक्ष) हमें शक्तिशाली बनाने की इच्छा करो ॥३॥ यहाँ शकार की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है। ‘शची’ के दो बार पाठ में लाटानुप्रास अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
जो परमात्मा में श्रद्धावान् होते हैं, उनकी न हिंसक हिंसा कर पाते हैं, न हरानेवाले शत्रु उन्हें हरा पाते हैं। परमात्मा की प्रेरणा से शक्तिमान् मेधावी और कर्मयोगी होते हुए वे सभी विपदाओं का हनन कर देते हैं ॥३॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन्! तू (नः) हम उपासकों को (पीयत्नवे) हिंसक के लिये१ (मा परादाः) मत त्यागना (शर्धते मा) दबाते हुए के लिए२ मत त्याग (शचीवः शचीभिः शिक्षा) हे प्रज्ञान वाले३ परमात्मन्! तू प्रज्ञानों द्वारा मुझे शिक्षा दे—शिक्षारहित हिंसक के हाथ में न पड़ूँ, पाप कर दण्ड का भागी न बन सकूँ, तेरी शिक्षा में रहूँ॥३॥
विशेष
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विषय
हमारी खाने-पीने की ही दुनिया न हो
पदार्थ
हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (नः) = हमें (पीयत्नवे) =[पीयते-drinks] =पीने में ही आनन्द लेनेवाले पुरुष के लिए (मा) = मत (परादा:) = अपने से दूर करके दे डालिए तथा (शर्धते) = जो खा-पीकर कुत्सित वायु को ही निकाल रहा है, उसके लिए भी (मा) = मत (परादा:) = दे डालिए, अर्थात् मेरा उठना-बैठना उन्हीं पुरुषों में न हो जिनकी दुनिया केवल खाने-पीने की है—जो खाते-पीते हैं और लेटे-लेटे कुत्सित शब्द ही करते रहते हैं । इनके सम्पर्क में रहकर मैं भी ऐसा ही न बन जाऊँ । वस्तुतः क्या यह मानव-जीवन है ? नहीं, कभी नहीं । यह तो पशुओं से भी गया- बीता जीवन है । हे प्रभो ! मुझे विषय-विलासमय इस तमोगुणी जीवन से ऊपर उठाइए । आप 'इन्द्र' हैं, आपका स्तोता बनकर मैं 'इन्द्रियों का अधिष्ठाता' बनूँ न कि 'इन्द्रियों का दास' ।
(शचीवः) = हे प्रभो! आप 'शचीवन्' हैं । नि० ३-३, १ - ११, २-१ 'प्रज्ञा-वाङ्-कर्म' के पति हैं। आप ज्ञानस्वरूप तो हैं ही, वेदवाणी के आप पति 'ब्रह्मणस्पति' व 'बृहस्पति' कहलाते हैं, आपके अन्दर स्वाभाविक क्रिया है । हे शचीवन् ! मुझे भी (शचीभिः) = प्रज्ञा, वेदवाणियों व वेदानुकूल कर्मों से शिक्ष=शिक्षित व शक्ति-सम्पन्न कीजिए। मैं प्रज्ञावाला होकर वेदवाणी का अध्ययन करूँ, वेदानुकूल कर्मों में अपने जीवन का यापन करूँ और इस प्रकार मेरा जीवन सात्त्विक हो ।
भावार्थ
मैं खाने-पीने की ही दुनिया में न विचर कर बुद्धि, ज्ञान व कर्म के क्षेत्र में विचरण करूँ ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (नः) हमें (पीयत्नवे) हिंसक, दुष्ट पुरुष के हाथों में (मा परा दाः) मत डाल। और हम (शर्धते) हमारा मान भंग करने हारे हिंसक पुरुष के हाथों में (मा परादाः) मत डाल। तू (शचीभिः) अपने ज्ञानों और शक्तियों से ही हे (शचीवः) शक्तिमन् ! हमें (शिक्ष) शिक्षित कर, दण्डित कर, अथवा ज्ञान प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ नृमेधः। ३ प्रियमेधः। ४ दीर्घतमा औचथ्यः। ५ वामदेवः। ६ प्रस्कण्वः काण्वः। ७ बृहदुक्थो वामदेव्यः। ८ विन्दुः पूतदक्षो वा। ९ जमदग्निर्भागिवः। १० सुकक्षः। ११–१३ वसिष्ठः। १४ सुदाः पैजवनः। १५,१७ मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। १६ नीपातिथिः काण्वः। १७ जमदग्निः। १८ परुच्छेपो देवोदासिः। २ एतत्साम॥ देवता:—१, १७ पत्रमानः सोमः । ३, ७ १०-१६ इन्द्रः। ४, ५-१८ अग्निः। ६ अग्निरश्विानवुषाः। १८ मरुतः ९ सूर्यः। ३ एतत्साम॥ छन्द:—१, ८, १०, १५ गायत्री। ३ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री उत्तरयोः। ४ उष्णिक्। ११ भुरिगनुष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। १४ शक्वरी। १६ अनुष्टुप। १७ द्विपदा गायत्री। १८ अत्यष्टिः। २ एतत्साम । स्वर:—१, ८, १०, १५, १७ षड्जः। ३ गान्धारः प्रथमस्य, षड्ज उत्तरयोः ४ ऋषभः। ११, १३, १६, १८ गान्धारः। ५ पञ्चमः। ६, ८, १२ मध्यमः ७,१४ धैवतः। २ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जगदीश्वरं प्रार्थयते।
पदार्थः
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! त्वम् (नः) अस्मान् (मा) नैव (पीयत्नवे) हिंसकाय कामक्रोधलोभादिकाय। [पीयतिर्हिंसाकर्मा। निरु० ४।२५।] (मा) नापि च (शर्धते) बलवते कस्मैचिन्मानवाय शत्रवे। [शर्ध इति बलनाम। निघं० २।९।] (परा दाः) परित्याक्षीः। हे (शचीवः) शक्तिशालिन्, त्वम् (शचीभिः) स्वकीयाभिः शक्तिभिः (शिक्ष२) अस्मान् शक्तान् कर्तुमिच्छ। [शक्लृ शक्तौ, णिचि सन्नन्तः, लोटि रूपम्] ॥३॥ अत्र शकारस्यानेकश आवृत्तौ वृत्त्यनुप्रासः, ‘शची’ इत्यस्य द्विरुक्तौ लाटानुप्रासः ॥३॥
भावार्थः
ये परमात्मनि श्रद्धावन्तो भवन्ति तान् न हिंसका हिंसितुं, न पराजेतारः पराजेतुं शक्नुवन्ति। परमात्म-प्रेरणया शक्तिमन्तो मेधाविनः कर्मयोगिनश्च सन्तस्ते सर्वा अपि विपदो विनिघ्नन्ति ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Give us not, O God, as a prey unto the violent or the disrespectful, grant us knowledge, O Mighty God, with Thy powers!
Meaning
Indra, lord of refulgent power, give us not away to the scornful abuser nor to the wild tyrant. With your laws and powers, pray discipline, rule, instruct and enlighten us. (Rg. 8-2-15)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! તું (नः) અમને ઉપાસકોને (पीयत्नवे) હિંસક-દુષ્ટોના હાથમાં (मा परादाः) સોંપતો નહિ અને (शर्धते मा) દબાવનારના હાથમાં પણ અમને આપી દેતો નહિ, (शचीवः शचीभिः शिक्षा) હે પ્રજ્ઞાનવાન પરમાત્મન્ ! તું પ્રજ્ઞાનો દ્વારા શિક્ષા આપ-શિક્ષારહિત હિંસકના હાથમાં ન પડું, પાપ કરીને દંડનો ભાગી ન બની શકું, તારી શિક્ષામાં રહું. [અર્થાત્ અમને સુધારીને જ્ઞાન આપ.] (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जे परमात्म्यावर श्रद्धा ठेवतात, त्यांची हिंसा हिंसक ही करू शकत नाहीत किंवा शत्रूही त्यांना हरवू शकत नाहीत. परमेश्वराच्या प्रेरणेने शक्तिमान, मेधावी व कर्मयोगी बनून सर्व संकटांचा नाश करतात. ॥३॥
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