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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1854
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
14
गो꣣त्रभि꣡दं꣢ गो꣣वि꣢दं꣣ व꣡ज्र꣢बाहुं꣣ ज꣡य꣢न्त꣣म꣡ज्म꣢ प्रमृ꣣ण꣢न्त꣣मो꣡ज꣢सा । इ꣣म꣡ꣳ स꣢जाता꣣ अ꣡नु꣢ वीरयध्व꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ सखायो꣣ अ꣢नु꣣ स꣡ꣳ र꣢भध्वम् ॥१८५४॥
स्वर सहित पद पाठगो꣣त्रभि꣡द꣢म् । गो꣣त्र । भि꣡द꣢꣯म् । गो꣣वि꣡द꣢म् । गो꣣ । वि꣡द꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢꣯बाहुम् । व꣡ज्र꣢꣯ । बा꣣हुम् । ज꣡य꣢꣯न्तम् । अ꣡ज्म꣢꣯ । प्र꣣मृण꣡न्त꣢म् । प्र꣣ । मृण꣡न्त꣢꣯म् । ओ꣡ज꣢꣯सा । इ꣣म꣢म् । स꣣जाताः । स । जाताः । अ꣡नु꣢꣯ । वी꣣रयध्वम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣खायः । स । खायः । अ꣡नु꣢꣯ । सम् । र꣣भध्वम् ॥१८५४॥
स्वर रहित मन्त्र
गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा । इमꣳ सजाता अनु वीरयध्वमिन्द्रꣳ सखायो अनु सꣳ रभध्वम् ॥१८५४॥
स्वर रहित पद पाठ
गोत्रभिदम् । गोत्र । भिदम् । गोविदम् । गो । विदम् । वज्रबाहुम् । वज्र । बाहुम् । जयन्तम् । अज्म । प्रमृणन्तम् । प्र । मृणन्तम् । ओजसा । इमम् । सजाताः । स । जाताः । अनु । वीरयध्वम् । इन्द्रम् । सखायः । स । खायः । अनु । सम् । रभध्वम् ॥१८५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1854
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब जीवात्मा के नेतृत्व में विजयलाभ करने के लिए वीरों को प्रोत्साहन देते हैं।
पदार्थ
(गोत्रभिदम्) अविद्या, अस्मिता आदि क्लेश रूप पर्वतों को तोड़नेवाले, (गोविदम्) विवेक-प्रकाश की किरणों को प्राप्त करनेवाले, (वज्रबाहुम्) अशुद्धि के क्षय तथा ज्ञान की दीप्ति के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि रूप वज्र को ग्रहण करनेवाले, (अज्म) देवासुरसङ्ग्राम को (जयन्तम्) जीतनेवाले, (अजोसा) बल से (प्रमृणन्तम्) आन्तरिक शत्रुओं को कुचलनेवाले (इमम् अनु) इस जीवात्मा का अनुसरण करके, हे (सजाताः) शरीर के साथ उत्पन्न मन, बुद्धि, प्राण, आदियो ! तुम (वीरयध्वम्) वीरता दिखाओ। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (इन्द्रम् अनु) जीवात्मा का अनुसरण करते हुए (संरभध्वम्) वीरतापूर्ण कार्यों को आरम्भ करो ॥३॥
भावार्थ
शरीर के अन्दर जीवात्मा नाम का महापराक्रमी सेनापति पूरी रणसज्जा के साथ विद्यमान है, जिसे सब विघ्नों को पराजित करके देवासुरसङ्ग्राम में विजय पाना योग्य है ॥३॥
पदार्थ
(गोत्रभिदम्) स्तोता४ उपासक के त्राण स्थान मोक्ष को खोलने वाले (गोविदम्) उपासकों को प्राप्त होने वाले—(वज्रबाहुम्) ओजरूप भुजा वाले५ (जयन्तम्) स्वामित्व करते हुए (ओजसा-अज्म प्रमृणन्तम्) ओज से शीघ्रकारी विरोधी को नष्ट करते हुए—(इमम्-इन्द्रम्) इस ऐश्वर्यवान् परमात्मा को (अनु) आश्रय बना (सजाताः सखायः) समान प्रसिद्धि वाले समान ख्यान ज्ञान वाले—उपासको! तुम (वीरयध्वम्) अपना प्रेरक बनाओ (अनुसंरभध्वम्) अनुरूप उपासित करो॥३॥
विशेष
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विषय
इन्द्र क्या करता है ? धन के Complex से ऊपर To follow whom ? A man can do what a man has done
पदार्थ
प्रभु कहते हैं—हे (सजाताः) = समान जन्मवाले जीवो ! (इयम्) = इस इन्द्र के (अनुवीरयध्वम्) = अनुसार तुम भी वीरतापूर्ण कर्म करो । उस इन्द्र के जो १. (गोत्रभिदम्) = [गोत्र-wealth] धन का विदारण करनेवाला है, अर्थात् हिरण्मय पात्र द्वारा डाले जानेवाले आवरण को सुदूर नष्ट करनेवाला है। २. (गोविदम्) = ज्ञान को प्राप्त करनेवाला है। धन के लोभ को दूर करके ही ज्ञान प्राप्त होता है। ३. (वज्रबाहुम्) = जिसकी बाहु में वज्र है, 'वज गतौ' से वज्र बनता है, 'बाह्र प्रयत्ने' से बाहु । वज्रबाहुं की भावना यही है कि गतिशील होने के कारण जो सदा प्रयत्नशील है । ४. (अज्म जयन्तम्) = युद्ध को जीतनेवाला है। निरन्तर क्रियाशीलता ने ही इसे वासना-संग्राम में विजयी बनाया है । ५. (ओजसा प्रमृणन्तम्) = जो [क्रियाशीलता से उत्पन्न] ओज के द्वारा काम-क्रोधादि शत्रुओं को कुचल रहा है। वस्तुत: इन पाँच विशेषताओंवाला व्यक्ति ही इन्द्र है और इस इन्द्र के समान जन्म लेनेवाले सभी को चाहिए कि वे भी इन्द्र के समान ही वीर बनें और संग्राम में शत्रुओं को कुचल डालें । प्रभु कहते हैं कि हे (सखायः) = इन्द्र के समान ख्यानवाले जीवो ! (इन्द्रम् अनु) = इस इन्द्र के अनुसार (संरभध्वम्) = दृढाङ्ग Robust बनों, बहादुरी का परिचय दो । इन्द्र असुरों का संहार करता है तुम भी उसके सजात - समान जन्मवाले (सखा) = समान ख्यान-[नाम] - वाले होते हुए क्या ऐसा न करोगे ? इन्द्र के कर्म सदा बलवाले हैं। क्या तुम निर्बलता प्रकट करोगे? नहीं, तुम भी उसके अनुसार वीर बनो । जो इन्द्र ने किया है वह तुम भी कर सकते हो। तुम भी तो इन्द्र हो – तभी तो महेन्द्र [परमात्मा] के उपासक बने हो । प्रभु का उपासक कायर नहीं होता, अतः वीर बनों, बहादुरी का परिचय दो और वासनारूप शत्रुओं को कुचल डालो।
भावार्थ
हम इन्द्र हैं – हम असुरों का संहार करनेवाले हैं । धन के आकर्षण से हम ऊपर उठेंगे और ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करेंगे ।
टिप्पणी
नोट – यह इन्द्र भी तुम्हारे जैसा ही एक मनुष्य है, (सजाता:) = तुम इसके समान जन्मवाले हो (सखायः) = तुम इसके समान ख्यानवाले हो । एक ही योनि में तुमने जन्म लिया है, एक ही शिक्षणालय में तुमने शिक्षा पाई है, वह विजेता बना है— उसने धन के complex को जीत लिया है । तुम भी धन से तो नहीं, परन्तु धन के लोभ से ऊपर उठकर वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनो ।
विषय
missing
भावार्थ
जिस प्रकार (गोत्रभिदं) शत्रुकुलों का नाश करने, (गोविदं) पृथिवी के विजेता या विद्वान्, (वज्रबाहुं) वज्र अर्थात् खड्ग हाथ में लिये (अज्म जयन्तं) संग्राम करते हुए (ओजसा) अपने बल से (प्रमृणन्तं) शत्रु का नाश करते हुए सेनापति को उसके सहवर्ती सहायक लोग और बान्धव लोग प्रोत्साहित करते और उसके साथ ही स्वयं भी उसकी आज्ञा के अनुसार युद्ध करते हैं। उसी प्रकार हे (सखायः) समान आख्यान या नाम से पुकारे जाने वाले इन्द्रियगण और विद्वानों ! हे (सजाताः) उसके साथ ही अपना सामर्थ्य प्रकट करने हारो ! आप लोग भी (गोत्रभिदं) उस देहबन्धन को तोड़ने हारे, (गोविदं) आत्मा को या परमेश्वर को प्राप्त करने हारे ज्ञानी, (वज्रबाहुं) वैराग्य या ज्ञानरूप तलवार को हाथ में लिये (ओजसा) अपने तप और ज्ञान के सामर्थ्य से काम, क्रोधादि अन्तः शत्रुओं को (प्रमृणन्तं) मर्दन करते हुए (अज्म) चरम, प्राप्य स्थान तक (जयन्तं) विजय करने हारे (इमं) इस (इन्द्रम्) आत्मा के (अनुवीरयध्वं) पीछे पीछे उसकी आज्ञा में रह कर सामर्थ्यवान् रहो और (अनु संरभध्वं) और उसके शासन में ही सब कार्य करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मनो नेतृत्वे विजयलाभाय वीरान् प्रोत्साहयति।
पदार्थः
(गोत्रभिदम्) अविद्याऽस्मितादिक्लेशरूपपर्वतानां भेत्तारम्, (गोविदम्) विवेकप्रकाशरश्मीनां लब्धारम्, (वज्रबाहुम्) अशुद्धिक्षयार्थं ज्ञानदीप्त्यर्थं च गृहीतयमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान- समाधिरूपवज्रम्, (अज्म) देवासुरसंग्रामम् (जयन्तं) विजयमानम्, (ओजसा) बलेन (प्रमृणन्तम्) आभ्यन्तरान् शत्रून् प्रहिंसन्तम् (इमम् अनु) एतं जीवात्मानम् अनुसृत्य, हे (सजाताः) देहे सहोत्पन्ना मनोबुद्धिप्राणादयः ! यूयम् (वीरयध्वम्) वीरतां प्रदर्शयत, हे (सखायः) सुहृदः यूयम् (इन्द्रम् अनु) जीवात्मानमनुसृत्य (संरभध्वम्) वीरकार्याणि प्रारभध्वम् ॥३॥२
भावार्थः
देहाभ्यन्तरे जीवो नाम महापराक्रमः सेनापतिः सम्पूर्णरणसज्जया सह समवस्थितोऽस्ति यः सर्वान् विघ्नान् पराजित्य देवासुरसंग्रामे विजयं लब्धुमर्हति ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O coeval, friendly warriors, show your zeal and courage, and quit yourselves as heroes, following this King, the cleaver of forests, strong-bodied, armed with thunder-bolt, who quells an army and with might destroys it !
Translator Comment
See Yajur 17-38; and Pt. Jaidev’s interpretation.
Meaning
O friends, unite, prepare and mount the assault with Indra, our friend and comrade, breaker of enemy strongholds, winner of lands, hero of thunder arms and victorious breaker of dark mighty clouds by his valour. Follow the brave and advance. (Rg. 10-103-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (गोत्रभिदम्) સ્તુતિ કરનારા ઉપાસકોનું રક્ષા સ્થાન મોક્ષને ખોલનાર (गोविदम्) ઉપાસકોને પ્રાપ્ત થનાર, (वज्रबाहुम्) ઓજ રૂપ ભુજાઓવાળા (जयन्तम्) સ્વામિત્વ કરતાં (ओजसा अज्म प्रमृणन्तम्) ઓજ દ્વારા શીઘ્રકારી વિરોધીને નષ્ટ કરતાં, (इमम् इन्द्रम्) એ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને (अनु) આશ્રય બનાવો. (सजाताः सखायः) સમાન પ્રસિદ્ધિવાળા સમાન નામ જ્ઞાનવાળા-ઉપાસકો ! તમે (वीरयध्वम्) પોતાના પ્રેરક બનાવો (अनुसंरभध्वम्) અનુરૂપ ઉપાસિત કરો. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
शरीरात जीवात्मा नावाचा महापराक्रमी सेनापती पूर्ण रणसज्ज असा उपस्थित आहे. सर्व विघ्नांना पराजित करून त्याने देवासुर संग्राम जिंकणे योग्य आहे. ॥३॥
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