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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1856
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
11
इ꣡न्द्र꣢ आसां ने꣣ता꣢꣫ बृह꣣स्प꣢ति꣣र्द꣡क्षि꣢णा य꣣ज्ञः꣢ पु꣣र꣡ ए꣢तु꣣ सो꣡मः꣢ । दे꣣वसेना꣡ना꣢मभिभञ्जती꣣नां꣡ जय꣢꣯न्तीनां म꣣रु꣡तो꣢ य꣣न्त्व꣡ग्र꣢म् ॥१८५६॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रः꣢꣯ । आ꣣साम् । नेता꣢ । बृ꣡हः꣢꣯ । प꣡तिः꣢꣯ । द꣡क्षि꣢꣯णा । य꣣ज्ञः꣢ । पु꣣रः꣢ । ए꣣तु । सो꣡मः꣢꣯ । दे꣣वसेना꣡ना꣢म् । दे꣣व । सेना꣡ना꣢म् । अ꣣भिभञ्जतीना꣢म् । अ꣣भि । भञ्जतीना꣢म् । ज꣡य꣢꣯न्तीनाम् । म꣣रु꣡तः꣢ । य꣣न्तु । अ꣡ग्र꣢꣯म् ॥१८५६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः । देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम् ॥१८५६॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रः । आसाम् । नेता । बृहः । पतिः । दक्षिणा । यज्ञः । पुरः । एतु । सोमः । देवसेनानाम् । देव । सेनानाम् । अभिभञ्जतीनाम् । अभि । भञ्जतीनाम् । जयन्तीनाम् । मरुतः । यन्तु । अग्रम् ॥१८५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1856
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जीवात्मा की सेनाध्यक्षता में विजयार्थ युद्ध प्रयाण का वर्णन है।
पदार्थ
(बृहः पतिः) महान् शरीर-रूप राष्ट्र का रक्षक (इन्द्रः) वीर जीवात्मा-रूप सेनापति (आसाम्) इन देव-सेनाओं का (नेता) नेता हो। (दक्षिणा) त्याग की भावना, (यज्ञः) परमेश्वरपूजारूप यज्ञ (सोमः) और शान्ति का व्रत (पुरः एतु) आगे-आगे चले। (अभिभञ्जतीनाम्) अदिव्य भावों तथा अधार्मिक दुष्ट-जनों को तोड़ती-फोड़ती-कुचलती हुई, (जयन्तीनाम्), विजय का उत्कर्ष प्राप्त करती हुई (देवसेनानाम्) दिव्यभावों तथा सदाचारी विद्वान् जनों की सेनाओं के (अग्रम्) आगे-आगे (मरुतः) प्राण तथा वायुवत् बलिष्ठ शूरवीर लोग (यन्तु) चलें ॥२॥
भावार्थ
सबको चाहिए कि अपने जीवात्मा को सेनापति बनाकर त्याग, परमात्मा की उपासना और विश्वशान्ति का आदर्श सामने रख कर, सत्य-अहिंसा आदि दिव्य गुणों की तथा बलिष्ठ योद्धाओं की सेना लेकर, प्राणपण से युद्ध करके देवासुरसङ्ग्राम में विजय प्राप्त करें ॥२॥
पदार्थ
(आसां देवसेनानाम्) इन हम मुमुक्षु की सद्गुण गरिमाओं (अभि भञ्जतीनां जयन्तीनाम्) कामादि शत्रुओं का अभिभञ्जन करने वाली जय पाने वाली हैं, उनका (नेता) नायक (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (बृहस्पतिः) सर्वज्ञ (दक्षिणा यज्ञः) उत्साहक प्रवृत्ति के साथ सङ्गमनीय (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा (पुरः-एतु) आगे हो—है, (मरुतः-अग्रे यन्तु) वासनाओं को मार देने वाली परमात्मा की स्तुतियों से प्राप्त ओज आदि गुण आगे हो॥२॥
विशेष
<br>
विषय
देवसेनाएँ और उनका सेनापति
पदार्थ
देवसेनाएँ – दिव्य और आसुर गुणों को वेद में ‘देवसेना' व ‘असुरसेना' कहा गया है। ये देवसेनाएँ प्रबल होकर असुरों का पराजय करती हैं। क्रोध पर दया विजय पाती है, लोभ पर सन्तोष व दान, और काम प्रेम के रूप में परिवर्तित हो जाता है । (देवसेनानाम्) = इन देवसेनाओं के, (अभिभञ्जतीनाम्) = जो चारों ओर आसुर भावनाओं का विदारण व भङ्ग कर रही हैं और (जयन्तीनाम्) = आसुरी वृत्तियों पर विजय पाती चलती हैं, (अग्रम्) = आगे (मरुतः यन्तु) = मरुत् - प्राणों की साधना करनेवाले मनुष्य चलें, अर्थात् ये देवसेनाएँ प्राण-साधना करनेवालों के पीछे चला करती हैं। प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष क्षीण होते हैं, मन का मैल नष्ट होता है और गन्दगी में उत्पन्न होनेवाले मच्छरों की भाँति अपवित्रता से जन्म लेनेवाली आसुर वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं । एवं, स्पष्ट है कि मरुतों की प्राण-साधना देव-सेनाओं के विजय के लिए आवश्यक है ।
(आसाम्) = इन विजयशील देव-सेनाओं का (नेता) = सेनापति (इन्द्रः) = इन्द्र है । इन्द्र है ‘इन्द्रियों का अधिष्ठाता', जो इन्द्रियों का दास न होकर ‘हृषीकेश' है । हृषीक - इन्द्रिय, ईश- स्वामी । देवराट् यह इन्द्र ही है। यदि जीभ ने चाहा और हमने खाया, आँख ने चाहा है और हमने देखा, कान ने चाहा और हमने सुना तब तो हम इन इन्द्रियों के दास बन जाएँगे, हम इन्द्र न रहेंगे ।
देवसेना के प्रमुख व्यक्ति – इस देव सेना के (पुरः) = प्रथम स्थान में – अग्रस्थान में (एतु) = चलें । कौन ?
१. (बृहस्पतिः) = ब्रह्मणस्पति - ज्ञान का स्वामी, देवताओं का गुरु, ज्ञानियों का भी ज्ञानी । दिव्य गुणों में ज्ञान का सर्वोच्च स्थान है। वास्तविकता तो यह है कि ज्ञान के अभाव में ही तो कामादि वासनाएँ पनपती हैं। ज्ञानाग्नि इन्हें भस्म कर देती है। कामादि को भस्म करके ज्ञान मनुष्य को पवित्र बनाता है । यह बृहस्पति ही ऊर्ध्वादिक् का अधिपति है । ज्ञान से ही मनुष्य अध्यात्म उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचता है। देव तो स्वयं दीप्त हैं औरों को ज्ञान-दीप्ति से द्योतित करते हैं। ('देवो दीपनाद्वा द्योतनाद्वा') ।
२. (दक्षिणा) = दान । दान लोभ से विपरीत वृत्ति का नाम है। लोभ व्यसन-वृक्ष का मूल है । दान उसके मूल का अवदान -खण्डन करता है । देव इसीलिए सदा दिया करते हैं, 'देवो दानात्' ।
३. (यज्ञः) - दिव्य गुणों की सेना में प्रथम स्थान ज्ञान का है और द्वितीय दान का तो तृतीय स्थान यज्ञ का है। यज्ञ की मौलिक भावना नि:स्वार्थ कर्म है। देव यज्ञशील होते हैं, वे तो हैं ही 'हविर्भुक्' ।
४. (सोमः) = सौम्यता चौथा देव है। सौम्यता यह चौथा होता हुआ भी सर्वाधिक महत्त्व रखता है। सारे दिव्य गुणों के होने पर भी यदि यह सौम्यता न हो तो वे सब दिव्य गुण अखरने लगते हैं। गीता में दैवी सम्पत्ति का चरमोत्कर्ष 'नातिमानिता' में है— यहाँ 'सोम'= सौम्य बनने में । सोम का दूसरा अर्थ vitality=शक्ति semen भी है। मनुष्य ने शक्ति का संयम करके ही दिव्य गुणों को विकसित करना है। यही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म को प्राप्त करने का मार्ग है।
भावार्थ
हम प्राण- साधना करें, जिससे हममें दिव्य गुण उत्पन्न हों । इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनें, जिससे देवसेनाओं के सेनापति बनें | ज्ञान, दान, नि:स्वार्थता व सौम्यता इन चार दिव्य गुणों को न भूलें ।
विषय
missing
भावार्थ
(इन्द्रः) जिस प्रकार राजा (आसां) इन मरुद्गण वैश्यों का या वायु के समान चढ़ाई करने में तेज सेनाओं का नेता होता है, उसी प्रकार (इन्द्रः) आत्मा मरुद्गण प्राणों का भी नेता है। उसके (पुरः) आगे आगे (बृहस्पतिः) बृहती=वाक् का पालक मन, राजा के मन्त्री के समान, (दक्षिणा) कार्यकुशल, बलशालिनी चितिशक्ति और (यज्ञः) पूजनीय परमात्मा और (सोमः) सबका प्रेरक प्राण, ये आगे आगे (एतु) चलते हैं (अभिभञ्जतीनां) असुर सेनाओं का विनाश करने वाली, (जयन्तीनां) असुर वृत्तियों पर विजय करने वाली, (देवसेनानां) दिव्यगुणवाली सात्विक वृत्तियों के (अग्रं) आगे आगे मुख्य स्थान पर (मरुतः) एकादश प्राण (यन्तु) गमन करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मनः सेनाध्यक्षत्वे विजयार्थं युद्धप्रयाणं वर्ण्यते।
पदार्थः
(बृहः पतिः) बृहतः शरीरराष्ट्रस्य पाता, (इन्द्रः) वीरः जीवात्मरूपः सेनापतिः (आसाम्) देवसेनानाम् (नेता) नायको भवतु। (दक्षिणा) त्यागभावना, (यज्ञः) परमात्मपूजनरूपो यज्ञः (सोमः) शान्तिव्रतं च (पुरः एतु) अग्रे गच्छतु। (अभिभञ्जतीनाम्) अदिव्यान् भावान् अधार्मिकान् दुष्टजनांश्च आमृद्नन्तीनाम्, (जयन्तीनाम्) विजयोत्कर्षं प्राप्नुवतीनाम् (देवसेनानाम्) दिव्यभावचमूनां सदाचारिविद्वच्चमूनां च (अग्रम्) अग्रगामित्वेन (मरुतः) प्राणाः वायुवद् बलिष्ठाः शूरवीराश्च (यन्तु) गच्छन्तु ॥२॥
भावार्थः
स्वजीवात्मानं सेनापतिं विधाय, त्यागं परमात्मोपासनं विश्वशान्तिं चादर्शं सम्मुखं कृत्वा, सत्याहिंसादीनां बलिष्ठानां योद्धॄणां च सेनां गृहीत्वा प्राणपणेन युद्ध्वा सर्वैर्देवासुरसंग्रामे विजयः प्राप्तव्यः ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In a battle, the Commander, the leader of these armies, the conqueror and demolisher of the enemies should march behind, the organiser of the army should march in front. The leader of big bands should march on the right. The encourager of the army should march on the left. The warriors swift like air should march ahead.
Translator Comment
See Yajur 17-40.
Meaning
Of these armies of the Devas, divine forces of nature and humanity, men of noble intentions and far sight, breaking through and conquering evil and negative elements of life, Indra of lighting power is the leader and commander, Brhaspati, commanding knowledge, tactics and wide vision, is the guide with yajna on his right, and Soma, lover of peace and felicity, is the inspiration, while Maruts, warriors of passion and enthusiasm, march in front. (Rg. 10-103-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (आसां देवसेनानाम्) એ અમારી મુમુક્ષુઓની સદ્ગુણ ગરિમાઓ (अभि भञ्जतीनां जयन्तीनाम्) કામાદિ શત્રુઓની-અભિભંજન-વિદારણ કરનારી વિજય કરનારી છે, તેના (नेता) નાયક (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન (बृहस्पतिः) સર્વજ્ઞ (दक्षिणा यज्ञः) ઉત્સાહક પ્રવૃત્તિની સાથે સંગમનીય (सोमः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (पुरः एतु) આગળ થાય-આગળ છે, (मरुतः अग्ने यन्तु) વાસનાઓને મારી નાખનારી પરમાત્માની સ્તુતિઓ દ્વારા પ્રાપ્ત ઓજ આદિ ગુણ આગળ થાય.-જાય. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांनी आपल्या जीवात्म्याला सेनापती बनवून त्याग, परमात्म्याची उपासना व विश्वशांतीचा आदर्श समोर ठेवून, सत्य-अहिंसा इत्यादी दिव्य गुणांची व बलिष्ठ योद्ध्यांची सेना घेऊन, प्राणपणाने युद्ध करून देवासुरसंग्रामात विजय प्राप्त करावा.
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