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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1864
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
17
क꣣ङ्काः꣡ सु꣢प꣣र्णा꣡ अनु꣢꣯ यन्त्वेना꣣न्गृ꣡ध्रा꣢णा꣣म꣡न्न꣢म꣣सा꣡वस्तु꣣ से꣡ना꣢ । मै꣡षां꣢ मोच्यघहा꣣र꣢श्च꣣ ने꣢न्द्र꣣ व꣡या꣢ꣳस्येनाननु꣣सं꣡य꣢न्तु꣣ स꣡र्वा꣢न् ॥१८६४
स्वर सहित पद पाठक꣣ङ्काः꣢ । सु꣣प꣢र्णाः । सु꣣ । पर्णाः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । य꣣न्तु । एनान् । गृ꣡ध्रा꣢꣯णाम् । अ꣡न्न꣢꣯म् । अ꣣सौ꣢ । अ꣣स्तु । से꣡ना꣢꣯ । मा । ए꣣षाम् । मोचि । अघहारः꣢ । अ꣣घ । हारः꣢ । च꣣ । न꣢ । इ꣣न्द्र । व꣡या꣢꣯ꣳसि । ए꣣नान् । अ꣣नु꣡संय꣢न्तु । अ꣣नु । सं꣡य꣢꣯न्तु । स꣡र्वा꣢꣯न् ॥१८६४॥
स्वर रहित मन्त्र
कङ्काः सुपर्णा अनु यन्त्वेनान्गृध्राणामन्नमसावस्तु सेना । मैषां मोच्यघहारश्च नेन्द्र वयाꣳस्येनाननुसंयन्तु सर्वान् ॥१८६४
स्वर रहित पद पाठ
कङ्काः । सुपर्णाः । सु । पर्णाः । अनु । यन्तु । एनान् । गृध्राणाम् । अन्नम् । असौ । अस्तु । सेना । मा । एषाम् । मोचि । अघहारः । अघ । हारः । च । न । इन्द्र । वयाꣳसि । एनान् । अनुसंयन्तु । अनु । संयन्तु । सर्वान् ॥१८६४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1864
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में शत्रुसेना के समूलोच्छेद का विषय है।
पदार्थ
(सुपर्णाः) सुदृढ़ पङ्खोंवाली (कङ्काः) चीलें (एनान्) इन शत्रुओं का (अनुयन्तु) पीछा करें। (असौ सेना) वह शत्रु-सेना (गृध्राणाम्) गिद्धों का (अन्नम् अस्तु) भोजन बने। हे (इन्द्र) सेनापतितुल्य जीवात्मन् ! (एषाम्) इन शत्रुओं में से (अघहारः च न) पाप का भागी कोई भी (मा मोचि) जिन्दा न छूटे। (एनान् सर्वान्) इन सबका (वयांसि) माँसभक्षी पक्षी (अनु संयन्तु) पीछा करें, इन्हें खा जाएँ ॥१॥
भावार्थ
जैसे बाह्य युद्ध में मारे गये शत्रु गिद्ध आदि माँसभक्षक पक्षियों से समाप्त किये जाते हैं, वैसे ही आन्तरिक देवासुरसङ्ग्राम में जीवात्मा से मारे गये काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाम भी न बचे, ऐसा प्रयत्न मनुष्यों को करना चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(एनान्) इन काम आदि शत्रुओं को (सुपर्णाः कङ्काः) सुन्दर पालन करने वाले परमात्मा के प्रति सङ्कल्प विकल्प (अनु-यन्तु) प्राप्त हो (असौ सेना-गृध्राणाम्-अन्नम्-अस्तु) वह कामादि सेनाक्रम—प्रवृत्ति परमात्मा की कांक्षा रखने वाले सङ्कल्पों का भोजन—खादरूप हो जावे (अघहारः-च) और पाप को खा जाने वाला शिवसङ्कल्प (इन्द्र न-एषां मा मोचि) हे परमात्मन्! सम्प्रति इनमें से किसी को मत छोड़ (एतान् सर्वान्) इन सब को (वयांसि-अनु संयन्तु) प्राण इन्हें सम्प्राप्त हो॥१॥
विशेष
ऋषिः—पूर्ववत्, भारद्वाजः पायुर्वा (पूर्ववत्)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
कामादि का संहार
पदार्थ
गत मन्त्रों में ‘अमित्रों' का उल्लेख हो रहा था । 'काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर' ये मनुष्यों के प्रधान अमित्र-शत्रु हैं। इनको नष्ट करना ही मनुष्य का महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ है। मनुष्यों को चाहिए कि इनको दृढ़ निश्चय करके अपने से दूर भगा दे। मन्त्र में इस बात को इस प्रकार कहा है कि (एनान् अनुयन्तु) = इनके पीछे ही पड़ जाएँ, अर्थात् इनको समाप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लें। कौन? १. (कङ्काः) = [कंक्–गतौ, गतेस्रयोर्थाः–ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च] ज्ञानी लोग तथा २. (सुपर्णा:) = उत्तम ढंग से अपना पालन करनेवाले । ज्ञानी तथा आसुर आक्रमणों से अपनी रक्षा करनेवाले पुरुष अपने जीवन का यह मुख्य ध्येय बना लेते हैं कि कामादि वासनाओं को अपने में पनपने नहीं देना । वे सब प्रकार से इन्हें नष्ट करने के प्रयत्न में लग जाते हैं। इनके पीछे ही पड़ जाते हैं । वस्तुत: ‘ज्ञान और क्रियाशीलता' वे दो मुख्य साधन हैं जो कामादि को समाप्त कर देते हैं। इनमें क्रियाशीलता का बड़ा महत्त्व है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए भी क्रियाशीलता चाहिए। इससे मन्त्र की समाप्ति पर फिर से कहेंगे कि (एनान् सर्वान्) = इस सब कामादि के (अनु संयन्तु) = पूरी तरह से पीछे पड़ जाएँ । कौन ? (वयांसि) = गतिशील व्यक्ति । क्रियाशील मनुष्य पर कामादि का आक्रमण नहीं होता । आलसी व्यक्ति ही इनका शिकार बनता है। सुपर्ण, कङ्क और वयस् ही वस्तुतः इन्द्र कहलाने के योग्य हैं। इन्द्र आत्मा वही है जो अपने को उत्तम ढंग से आसुर आक्रमणों से बचाता है, ज्ञानी और क्रियाशील है।
मन्त्र में कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जीवात्मन् ! इस बात का तू ध्यान कर कि (एषाम्) = इन कामादि में से (अघहारः चन) = पाप-प्रवृत्ति को लानेवाला कोई भी (मा मोचि) = मत छूट जाए- मत बच जाए । इन्द्र की मनोवृत्ति यही होनी चाहिए कि कामादि का संहार हो जाए । परन्तु 'इन्द्र' से विपरीत जो ‘गृध्र’=[greed गृध्] लालची होते हैं उन (गृध्राणाम्) = लालच– लोभ से आविष्ट व्यक्तियों की (असौ सेना) = यह कामादि की फ़ौज (अन्नम् अस्तु) = अन्न हो-enjoyment की वस्तु हो। वे ही इनमें आमोद-प्रमोद का अनुभव करें । वस्तुतः लोभ ही व्यसनवृक्ष का मूल है। सारे कामज व क्रोधज व्यसन लोभ मूलक ही हैं । लोभ होने पर ही ये पनपते हैं ।
इसलिए इन्द्र का मुख्य आक्रमण इस लोभरूप मूल पर ही होता है। वैदिक संस्कृति में यज्ञ की भावना पर अत्यधिक बल इसीलिए दिया गया है कि यह भावना लोभ का प्रतिपक्ष है। ‘लोभ समाप्त, तो वासनाएँ समाप्त ' इस तत्त्व को समझकर ही दान को महान् धर्म कहा गया है। दान देना, वस्तुतः सब वासनाओं का दान = खण्डन कर देता है । लोभ का नाश करके ही व्यक्ति प्रजा का अधिक-से-अधिक कल्याण व पालन करता है, इससे वह अपने में शक्ति का भरण करके' भारद्वाज कहलाता है और 'पायु: ' =अपना रक्षक बनता है । यही इस मन्त्र का ऋषि है ।
भावार्थ
हम ज्ञानी बनें, आसुर भावनाओं से अपनी रक्षा का निश्चय करें और क्रियाशील हों । लोभ को दूर भगाने का प्रयत्न करें और इस प्रकार हम कामादि के शिकार कभी न हों ।
विषय
missing
भावार्थ
(सुपर्णाः) उत्तम पक्ष वाले (कंकाः) गीध (एना) उन शत्रुओं पर (अनु यन्तु) जा दौड़ें। (असौ सेना) वह शत्रुसेना (गृध्राणां) गीधों का (अन्नम्) भोज्य (अस्तु) हो। हे इन्द्र ! राजन् (एषां) इनमें से कोई भी (मा मोचि) न बच रहे और (अधहारश्च) कोई पापी भी (न) न छूट जाय (एनान् सर्वान्) इन सब पर (वयांसि) गीध और कौवे ही (अनु संयन्तु) आ लगें। अध्यात्म पक्ष में—(सुपर्णाः) उत्तम ज्ञान वाले, (कंकाः) सुखाभिलाषी पुरुष (एनान्) अन्तः-शत्रुओं, ब्रह्मविद्या के विघ्नों के (अनुसंयन्तु) पीछे लग जावें ! अर्थात् उनका निर्मूल नाश किये बिना न छोड़ें। (असैा सेना) यह दुष्ट वासनाओं की सेना (गृध्राणाम्) गृध्र के समान उत्पतनशील प्राणों के (अन्नम्) भोज्य बने अर्थात् प्राणों के विरोध से उनका नाश किया जाय। (एषां मा मोचि) इन पापभावों में से एक भी न छूट जावे। हे इन्द्र ! आत्मन् ! (अवहारश्च न) पाप का भागी भी कोई विचार शेष न रह जाय। (वयांसि) गतिशील प्राण भी (एनान्) इनको (अनु संयन्तु) पीछा करके सर्वनाश करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ शत्रुसेनायाः समूलोच्छेदविषयं प्राह।
पदार्थः
(सुपर्णाः) दृढपर्णाः (कङ्काः) चिल्लपक्षिणः (एनान्) इमान् शत्रून् (अनु यन्तु) अनुगच्छन्तु। (असौ सेना) शत्रूणां सा चमूः, (गृध्राणाम्) एतन्नाम्नां पक्षिणाम् (अन्नम् अस्तु) भोजनं भवतु। हे (इन्द्र) सेनापतिरिव वीर जीवात्मन् ! (एषाम्) शत्रूणाम् (अघहारः च न) पापहारकः कश्चिदपि (मा मोचि) न मुच्यताम्। (एनान् सर्वान्) इमान् निःशेषानपि (वयांसि) क्रव्यादाः पक्षिणः (अनु संयन्तु) अनुप्राप्नुवन्तु भक्षयन्त्वित्यर्थः ॥१॥
भावार्थः
यथा बाह्ये रणे मारिताः शत्रवो गृध्रादिभिर्मांसभक्षकैः पक्षिभिः निःशेषाः क्रियन्ते तथैवाभ्यन्तरे देवासुरसंग्रामे जीवात्मना हतानां कामक्रोधादीनां सपत्नानां यथा नामापि च शिष्येत तथा मनुष्यैः प्रयतनीयम् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let ravens and strong-pinioned birds pursue them. Yea, let that army be the food of vultures, O King, let no sinner out of them escape; let carnivorous birds fall upon them to devour them!
Translator Comment
Them' refers to the soldiers of opposing army killed in the battle.
Meaning
Let kites and ravens, let deadly arrows, pursue them. Let that army be the food of vultures. Indra commander of the army, spare none of them, let the outrageous robber be destroyed. Let carnivorous birds follow, devour and scavenge them out.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (एनान्) એ કામ આદિ શત્રુઓને (सुपर्णाः कङ्काः) સુંદર પાલન કરનારા પરમાત્માના પ્રત્યે સંકલ્પ વિકલ્પ (अनु यन्तु) પ્રાપ્ત થાય. (असौ सेना गृध्राणाम् अन्नम् अस्तु) તે કામ આદિ સેના ક્રમપ્રવૃત્તિ પરમાત્માની આકાંક્ષા રાખનારા સંકલ્પોનું ભોજન-ખાતર રૂપ બની જાય. (अघहारः च) અને પાપને ખાઈ જનારા શિવસંકલ્પ (इन्द्र न एषां मा मोचि) હે પરમાત્મન્ ! એમાંથી અત્યારે કોઈને છોડ નહિ (एतान् सर्वान्) એ સર્વને (वयांसि अनु संयन्तु) તેને પ્રાણ સારી રીતે પ્રાપ્ત થાય - પહોંચે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे बाह्य युद्धात मारले गेलेले शत्रू गिधाड इत्यादी मांसभक्षक पक्षांद्वारे समाप्त केले जातात, तसेच आंतरिक देवासुर संग्रामात जीवात्म्याकडून मारले गेलेले काम-क्रोध इत्यादी शत्रूंचे नावही उरता कामा नये, या प्रकारचा माणसांनी प्रयत्न करावा. ॥१॥
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