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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1875
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वे देवाः छन्दः - विराट्स्थाना त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    24

    स्व꣣स्ति꣢ न꣣ इ꣡न्द्रो꣢ वृ꣣द्ध꣡श्र꣢वाः स्व꣣स्ति꣡ नः꣢ पू꣣षा꣢ वि꣣श्व꣡वे꣢दाः । स्व꣣स्ति꣢ न꣣स्ता꣢र्क्ष्यो꣣ अ꣡रि꣢ष्टनेमिः स्व꣣स्ति꣢ नो꣣ बृ꣢ह꣣स्प꣡ति꣢र्दधातु ॥ ॐ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥१८७५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व꣣स्ति꣢ । सु꣣ । अस्ति꣢ । नः꣣ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वृ꣣द्ध꣡श्र꣢वाः । वृ꣣द्ध꣢ । श्र꣣वाः । स्वस्ति꣢ । सु꣣ । अस्ति꣢ । नः꣣ । पूषा꣢ । वि꣣श्व꣡वे꣢दाः । वि꣣श्व꣢ । वे꣣दाः । स्वस्ति꣢ सु꣣ । अस्ति꣢ । नः꣣ । ता꣡र्क्ष्यः꣢꣯ । अ꣡रि꣢꣯ष्टनेमिः । अ꣡रि꣢꣯ष्ट । ने꣣मिः । स्वस्ति꣢ । सु꣣ । अस्ति꣢ । नः꣣ । बृ꣡हः꣢꣯ । प꣡तिः꣢꣯ । द꣣धातु । स्वस्ति꣢ । सु꣣ । अस्ति꣢ । नः꣣ । बृ꣡हः꣢꣯ । प꣡तिः꣢꣯ । द꣣धातु ॥१८७५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ॐ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥१८७५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वस्ति । सु । अस्ति । नः । इन्द्रः । वृद्धश्रवाः । वृद्ध । श्रवाः । स्वस्ति । सु । अस्ति । नः । पूषा । विश्ववेदाः । विश्व । वेदाः । स्वस्ति सु । अस्ति । नः । तार्क्ष्यः । अरिष्टनेमिः । अरिष्ट । नेमिः । स्वस्ति । सु । अस्ति । नः । बृहः । पतिः । दधातु । स्वस्ति । सु । अस्ति । नः । बृहः । पतिः । दधातु ॥१८७५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1875
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अब अन्त में स्वस्ति की प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    (वृद्धश्रवाः) महान् कीर्तिवाला (इन्द्रः) जगत्पति परमेश्वर (नः) हमें (स्वस्ति) मङ्गल (दधातु) प्रदान करे। (विश्ववेदाः) सब धन का स्वामी (पूषा) पुष्टिप्रदाता जगदीश्वर (नः) हमें (स्वस्ति) मङ्गल (दधातु) प्रदान करे। (अरिष्टनेमिः) जिसकी व्याप्तिरूप परिधि कभी टूटती नहीं ऐसा (तार्क्ष्यः) सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी परमपिता (नः) हमें (स्वस्ति) मङ्गल (दधातु) प्रदान करे। (बृहस्पतिः) महती वेदवाणी का अधीश्वर, सर्वज्ञानमय, प्राचीनों का भी गुरु सर्वेश (नः) हमें (स्वस्ति) मङ्गल (दधातु) प्रदान करे ॥३॥

    भावार्थ

    इन्द्र आदि विविध नामों से वेद में वर्णित, प्रसिद्ध कीर्तिवाले, सुपुष्टिदायक, सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ, लयसहित सामगानों द्वारा गाये गये जगदीश्वर के ध्यान से यथाशक्ति यथासम्भव उसके गुणों को अपने आत्मा में धारण करके सब मनुष्य ऐहिक और पारमार्थिक श्रेष्ठ अस्तित्व, श्रेष्ठ मङ्गल और श्रेष्ठ पूजा को निरन्तर प्राप्त करें ॥३॥ इस अध्याय में जीवात्मा को प्रोद्बोधन देते हुए देवासुरसङ्ग्राम में विजयार्थ प्रेरित करने, आशीर्वाद देने तथा स्वस्ति की प्रार्थना होने से इस अध्याय की पूर्व अध्याय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ इक्कीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ नवम प्रपाठक मेँ तृतीय अर्ध समाप्त ॥ नवम प्रपाठक और उत्तरार्चिक समाप्त ॥ संवत् २०४६ के चैत्र मास के शुक्लपक्ष में पञ्चमी तिथि सोमवार को यह भाष्य पूर्ण हुआ ॥

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    पदार्थ

    (वृद्धश्रवाः-इन्द्रः-नः स्वस्ति) प्रवृद्ध—महान् यश जिसका है४ ऐसा परमात्मा हमारे लिये कल्याणरूप हो (विश्ववेदाः पूषा नः स्वस्ति) सबको जाननेवाला सर्वज्ञ पोषणकर्ता प्रजास्वामी५ हमारे लिये कल्याणरूप हो (अरिष्टनेमिः-तार्क्ष्यः-नः स्वस्ति) दुष्ट प्रवृत्तियों को ताडने में अहिंसित—अकुण्ठित वज्र दण्डरूप शक्ति६ जिसकी है ऐसा तुरन्त कल्याण कार्य सम्पादक व्यापनशील परमात्मा हमारे लिये कल्याणरूप हो (बृहस्पतिः-नः स्वस्ति दधातु) महान् ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा हमारे लिये, कल्याण को धारण करे—प्रदान करे॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—गोतमो राहूगणः। देवता—इन्द्रः। छन्दः—विराट्॥<br>

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    विषय

    कल्याण का मार्ग

    पदार्थ

    (नः) = हमारे लिए (वृद्धश्रवाः) = सदा से बढ़े हुए ज्ञानवाला (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् व सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (स्वस्ति) = कल्याण करनेवाला हो, अर्थात् प्रभुकृपा से हमारा ज्ञान बढ़े । उस प्रज्वलित ज्ञानाग्नि में सब वासनाओं का दहन होकर हमें वास्तविक शान्ति का लाभ हो और हमारी जीवन-स्थिति उत्तम हो । (न:) = हमारे लिए (विश्ववेदाः) = सम्पूर्ण धनों का स्वामी (पूषा) = सबका पोषण करनेवाला प्रभु पोषण के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराता हुआ (स्वस्ति) = कल्याणकर हो, अर्थात् प्रभुकृपा से हम पुरुषार्थ करते हुए आवश्यक धनों की प्राप्ति के द्वारा जीवन की स्थिति को उत्तम कर सकें। (नः) = हमारे लिए (तार्क्ष्यः) = [तृक्ष गतौ] गति में उत्तम - स्वाभाविकी क्रियावाला— पूर्णरूप से नि:स्वार्थ क्रियावाला (अरिष्टनेमिः) = अहिंसित मर्यादावाला प्रभु (स्वस्ति) = कल्याणकर हो, प्रभु की भाँति सतत नि:स्वार्थ गतिवाले बनकर – सदा मर्यादा में चलते हुए हम कभी हिंसित न हों और इस मर्यादित जीवन में कल्याण-ही-कल्याण प्राप्त करें । (नः) = हमारे लिए (बृहस्पतिः) = बृहत् [बड़े-बड़े] आकाशादि का पति वह प्रभु (स्वस्ति) = कल्याण को (दधातु) = धारण करे । बृहस्पति प्रभु की उपासना करते हुए हम भी बृहस्पति बनें – उदार हृदयाकाशवाले बनें । यह उदारता हमें कृपण [miser] की कृपणता [misery ] से ऊपर उठाकर कल्याणमय स्थिति में प्राप्त कराए । 

    इस प्रकार बढ़े हुए ज्ञानवाले व शक्तिसम्पन्न होकर हम 'गोतम' होंगे - प्रशस्त इन्द्रियोंवाले होंगे और सब बुराइयों को छोड़कर, मर्यादित जीवन को अपनाकर ‘राहूगण' होंगे।

    भावार्थ

    हम प्रभु की उपासना करते हुए १. बढ़े हुए ज्ञानवाले व काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करनेवाले बनें । २. पोषण के लिए आवश्यक धन प्राप्त करें । ३. निरन्तर क्रियाशील जीवन बिताते हुए कभी मर्यादा का उल्लंघन न करें। ४. उदार हृदय बनकर कल्याण को सिद्ध करें ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( वृद्धश्रवाः इन्द्रः ) = सबसे बढ़ कर यशवाला वा सुननेवाला परमेश्वर  ( नः स्वस्ति दधातु ) = हमारे लिए कल्याण को धारण करे ।  ( विश्ववेदाः पूषा ) = सबको जानने और पालन करनेवाला प्रभु ( नः स्वस्ति ) = हमारे लिए सुख वा कल्याण को धारण करे ।  ( अरिष्टनेमिः ) = अरिष्ट जो दुःख उसको  ( नेमिः ) = वज्र के तुल्य काटनेवाला ईश्वर  ( तार्क्ष्यः ) = जानने व प्राप्त होने योग्य  ( नः स्वस्ति ) = हमारे लिए कल्याण को धारण करे ।  ( बृहस्पतिः ) = बड़े-बड़े सूर्य, चन्द्र, शुक्र, बुध, मंगल आदि ग्रह उपग्रह, लोक, लोकान्तरों का धारक, पालक, मालिक, पोषक, प्रभु वा वेद चतुष्टयरूपी बड़ी वाणी का उत्पादक, रक्षक वा स्वामी  ( नः स्वस्ति ) = हम सबके लिए कल्याण को धारण करे ।
     

    भावार्थ

    भावार्थ = सबसे बढ़कर यशस्वी, सर्वज्ञ, सबका पालक इन्द्र, भक्तों के दुःखों को काटनेवाला, जानने योग्य, सूर्यादि सब बड़े-बड़े पदार्थों का जनक और हम सबके कल्याण के लिए वेदों का उत्पादक परमात्मा हम सबका कल्याण करे ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (वृद्धश्रवाः) महान्, यशस्वी और ज्ञानवान् (इन्द्रः) परमेश्वर (नः) हमारा (स्वस्ति दधातु) कल्याण करे। (विश्ववेदाः) सर्वज्ञ, सब पदार्थों का स्वामी (पूषा) सब संसार का पालक, पोषक परमात्मा (नः स्वस्ति दधातु) हमारा कल्याण करे। (अरिष्टनेमिः) जिसके कालरूप महान् शासन का कोई विनाश नहीं करता वह (तार्क्ष्यः) सर्वशक्तिमान् परमेश्वर (नः स्वस्ति दधातु) हमारा कल्याण करे। (बृहस्पतिः) वेदवाणी का पति, स्वामी, पालक परमात्मा (नः स्वस्ति दधातु) हमारा कल्याण करे।

    टिप्पणी

    ॥ ओ३म्॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। वेद-भगवान् का स्वामी भगवान् हमारा सदा कल्याण करे। इति तृतीयोऽर्धप्रपाठकः नवमश्च प्रपाठकः समाप्तः॥ इत्युत्तरार्चिकः समाप्तः॥ इति सामवेदसंहिता समाप्ता॥ रामवस्वङ्कचन्द्रेब्दे षष्ठ्यां पौषे सिते शनौ। आलोकभाष्यं वेदस्य साम्नोऽवधिमुपागमत्॥ इति श्रीकांगडीगुरुकुलविश्वविद्यालयस्य प्रतिष्ठित विद्यालंकारपदवीविभूषतेन कलिकातास्यसंस्कृतविद्यालयस्य मीमांसातीर्थोपाध्यलंकृतेन गुरुकुलप्रवर्तक श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्री १०८ पूज्यपाद महर्षिदयानन्द सरस्वतीशिष्यपूज्यपादश्री १०८ स्वामिश्रद्धानन्दसरस्वतीशिष्येण पौतिमाष्यायणगोत्रोद्भवेन श्रीपण्डितजयदेवशर्मणा विरचिते आलोकाख्यसामवेदभाषाभाष्ये नवप्रपाठकात्मक उत्तरार्चिकभागः पूर्तिमागात्॥ समाप्ता श्वेदं सामवेदसंहिताऽऽलोकभाष्यम्॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथान्ते स्वस्ति प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    (वृद्धश्रवाः) वृद्धं श्रवः कीर्तिर्यस्य सः (इन्द्रः) जगत्पतिः परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) मङ्गलम् (दधातु) वितरतु। (विश्ववेदाः) विश्वं वेदो धनं यस्य सः (पूषा) पुष्टिप्रदो जगदीश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) मङ्गलं (दधातु) वितरतु। (अरिष्टनेमिः) अरिष्टा अक्षता नेमिः व्याप्तिपरिधिर्यस्य सः (तार्क्ष्यः) सर्वगतः सर्वान्तर्यामी परमः पिता [गत्यर्थात् तृक्षधातोर्ण्यत् ततः स्वार्थेऽण्।] (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) मङ्गलं (दधातु) वितरतु। (बृहस्पतिः) बृहः बृहत्या वेदवाचः पतिरधीश्वरः सर्वज्ञानमयः पूर्वेषामपि गुरुः सर्वेशः (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) मङ्गलम् (दधातु) वितरतु ॥३॥२

    भावार्थः

    इन्द्रादिविविधनामभिः श्रुतौ वर्णितस्य विश्रुतकीर्त्तेः सुपोषकस्य सर्वान्तर्यामिनः सर्वज्ञस्य सलयैः सामभिर्गीतस्य जगदीश्वरस्यानुध्यानेन यथाशक्ति यथासंभवं तद्गुणान् स्वात्मनि निधाय सर्वे मनुष्या ऐहिकं पारमार्थिकं च शोभनास्तित्वं सुमङ्गलं सुपूजितत्वं च सततं विन्दन्तु ॥३॥ अस्मिन्नध्याये जीवात्मनः प्रोद्बोधनपूर्वकं देवासुरसंग्रामे विजयार्थं प्रेरणादाशीर्योजनात् स्वस्तिप्रार्थनाच्चैतस्याध्यायस्य पूर्वाध्यायेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति बरेलीमण्डलान्तर्गतफरीदपुरवास्तव्यश्रीमद्गोपालरामभगवतीदेवी तनयेन हरिद्वारीयगुरुकुलकाङ्गड़ीविश्वविद्यालयेऽधीतविद्येन विद्यामार्तण्डेन आचार्यरामनाथवेदालङ्कारेण महर्षिदयानन्द-सरस्वतीस्वामिकृतवेदभाष्यशैलीमनुसृत्य विरचिते संस्कृतार्य-भाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सामवेदभाष्ये उत्तरार्चिके नवमः प्रपाठकः उत्तरार्चिकश्च समाप्तिमगात् ॥ समाप्तं चेदं सामवेदभाष्यम् ॥ ऋतुवेदखनेत्रेऽब्दे चैत्रमासि सिते दले । पञ्चम्यां वासरे सोमे भाष्यं पूर्तिमगादिदम् ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the Master of vast knowledge, may Mighty God prosper us. May the Nourisher of all, the Author of all the Vedas prosper us. May He, the Giver of all comforts like the horse, prosper us. May God, the Lord of all the elements of Nature, vouchsafe us prosperity. May God, the Lord of all the elements of Nature, vouchsafe us prosperity.

    Translator Comment

    $ The repetition of स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु is meant to indicate the end of the Veda. See Yajur 25-19.^Just as a horse takes us from one place to the other and gives us pleasure, so does God, give us happiness by fulfilling our wants.

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    Meaning

    May Indra, lord of power and majesty, abundant in food, energy and honour, be for our good and bless us with favours. May Pusha, lord of universal growth, be for our good and bless us with progress. May Tarkshya, lord worthy of love and friendship, destroyer of suffering, be good for us and bless us with good fortune. And may Brhaspati, lord of universal knowledge and wisdom be good and bless us with knowledge, wisdom and sweet language. (Rg. 1-89-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वृद्धश्रवाः इन्द्रः नः स्वस्ति) પ્રવૃદ્ધ-જેનો મહાન યશ છે એવો પરમાત્મા અમારે માટે કલ્યાણરૂપ બને. (विश्वेवेदाः पूषा नः स्वस्ति) સર્વને જાણનાર-સર્વજ્ઞ પોષણકર્તા, પ્રજાસ્વામી અમારે માટે કલ્યાણ રૂપ બને. (अरिष्टः नेमिः तार्क्ष्यः नः स्वस्ति) જેની દુષ્ટ પ્રવૃત્તિઓનું તાડન કરવામાં-અહિંસિત અકુંઠિત વજ્ર દંડરૂપ શક્તિ છે એવા તુરત જ કલ્યાણ કાર્ય સંપાદક વ્યાપનશીલ પરમાત્મા અમારે માટે કલ્યાણરૂપ બને. (बृहस्पतिः नः स्वस्ति दधातु) મહાન બ્રહ્માંડના સ્વામી પરમાત્મા અમારે માટે કલ્યાણને ધારણ કરે-પ્રદાન કરે. (૩)

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    স্বস্তি ন ইন্দ্রো বৃদ্ধশ্রবাঃ স্বস্তি নঃ পূষা বিশ্ববেদাঃ।

    স্বস্তি নস্তার্ক্ষ্যো অরিষ্টনেমিঃ স্বস্তি নো বৃহস্পতির্দধাতু।।১০০।।

    (সাম ১৮৭৫)

    পদার্থঃ হে (বৃদ্ধশ্রবাঃ) মহান কীর্তিময় (ইন্দ্রঃ) জগৎপতি পরমেশ্বর! (নঃ স্বস্তি দধাতু) আমাদের কল্যাণ করো। (বিশ্ববেদাঃ পূষা) সকলের সম্পর্কে জ্ঞাত ও সকলকে পালনকারী ঈশ্বর (নঃ স্বস্তি দধাতু) আমাদের কল্যাণ করো। (অরিষ্টনেমিঃ) অরিষ্টের পথে বাধাদানকারী দুঃখকে ধ্বংসকারী (তার্ক্ষ্যঃ) সর্বব্যাপক, সর্বান্তর্যামী ঈশ্বর (নঃ স্বস্তি) আমাদের কল্যাণ করো। (বৃহস্পতিঃ) মহতী বেদবাণীর অধীশ্বর, সর্বজ্ঞানী, (নঃ স্বস্তি দধাতু) আমাদের কল্যাণ করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ সবার থেকে মহান যশস্বী, সর্বজ্ঞ, সবার পালক পরমেশ্বর, ভক্তের দুঃখনাশকারী, জানার যোগ্য, সূর্যসহ সকল পদার্থের জনক এবং আমাদের সবার জন্য বেদের উৎপাদক পরমাত্মা আমাদের সবার কল্যাণ করেন।।১০০।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    इंद्र इत्यादी विविध नावांनी वेदात वर्णित, प्रसिद्ध कीर्तिवान, पुष्टिदायक, सर्वांतर्यामी, सर्वज्ञ, लयासह सामगानाद्वारे गायलेल्या जगदीश्वराच्या ध्यानाने यथाशक्ती, यथासंभव त्याच्या गुणांना आपल्या आत्म्यात धारण करून सर्व माणसांनी ऐहिक व पारमार्थिक श्रेष्ठ अस्तित्व, श्रेष्ठ मंगल व श्रेष्ठ पूजा निरंतर प्राप्त करावी. ॥३॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात जीवात्म्याला प्रबोधन करत देवासुर संग्रामात विजयार्थ प्रेरित करणे, आशीर्वाद देणे व स्वस्तीची प्रार्थना असल्यामुळे या अध्यायाची पूर्व अध्यायाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.

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