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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 22
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
25
अ꣣ग्नि꣢स्ति꣣ग्मे꣡न꣢ शो꣣चि꣢षा꣣ य꣢ꣳ स꣣द्वि꣢श्वं꣣ न्या꣢३꣱त्रि꣡ण꣢म् । अ꣣ग्नि꣡र्नो꣢ वꣳसते र꣣यि꣢म् ॥२२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्निः꣢ । ति꣣ग्मे꣡न꣢ । शो꣣चि꣡षा꣢ । यँ꣡ऽस꣢꣯त् । वि꣡श्व꣢꣯म् । नि । अ꣣त्रि꣡ण꣢म् । अ꣣ग्निः꣢ । नः꣣ । वँऽसते । र꣣यि꣢म् ॥२२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यꣳ सद्विश्वं न्या३त्रिणम् । अग्निर्नो वꣳसते रयिम् ॥२२॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः । तिग्मेन । शोचिषा । यँऽसत् । विश्वम् । नि । अत्रिणम् । अग्निः । नः । वँऽसते । रयिम् ॥२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 22
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा स्तोता को क्या फल प्रदान करे, यह कहते हैं।
पदार्थ
(अग्निः) तेजोमय परमात्मा (तिग्मेन) तीक्ष्ण (शोचिषा) तेज से (विश्वम्) समस्त (अत्रिणम्) भक्षक काम-क्रोधादि अन्तःशत्रुवर्ग को और चोर, लुटेरे आदि सामाजिक शत्रुवर्ग को (नियंसत्) नियन्त्रित करे। (अग्निः) वह अग्निपदवाच्य परमात्मा (नः) हमारे लिए (रयिम्) सोना-चाँदी, प्रजा-पशु आदि लौकिक धन तथा सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक धन (वंसते) बाँटकर देवे ॥२॥ श्लेष से भौतिक अग्नि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥२॥
भावार्थ
जैसे पार्थिव अग्नि या विद्युत् तीक्ष्ण तेज से अपने पास आयी वस्तु को दग्ध करता है और शिल्पादि कर्मों में प्रयुक्त होकर धन प्रदान करता है, वैसे ही परमात्मा-रूप अग्नि उपासकों के आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं का निग्रह करता है और उन उपासकों को सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पत्ति वितीर्ण करता है ॥२॥
पदार्थ
(अग्निः-विश्वम्-अत्रिणम्) तेजःस्वरूप परमात्मा उपासक के अन्दर उठने वाले सकल पाप भाव को “पाप्मानोऽत्रिणः” [ष॰ ३.१] (तिग्मेन शोचिषा नियंसत्) तीक्ष्ण ज्ञानमय तेज से “शोचिः-ज्वलतो नाम” [निघं॰ १.१७] नियन्त्रित करता है—दबा देता है—अकिञ्चित्कर बना देता है, पुनः (अग्निः-नः-रयिं वंसते) ज्ञानस्वरूप परमात्मा हमारे लिये अध्यात्मधन—अमृतानन्द को प्रदान करता है।
भावार्थ
परमात्मा जब मुझ उपासक के अन्दर साक्षात् प्रकाशित हो जाता है तो अपने ज्ञानमय तेज से मेरे आन्तरिक जीवन के भक्षक तत्त्वों—पापभावों को नियन्त्रित भस्मीभूत करके मुझे आध्यात्मिक अमृतधन का भागी बना देता है। कारण कि मुझ आत्मा का वह आत्मा है “य आत्मनि निष्ठन्-आत्मा यस्य शरीरम्” [श॰ १४.६.७.३२] जैसे मुझ आत्मा का शरीर मेरी देख रेख में होने, मुझे उसके निर्दोष रहने का ध्यान रहता है, वैसा मैं यत्न से निर्दोष करता हूँ तब जब मैं आत्मा उस परमात्मा का शरीर हुआ तो मुझे निर्दोष करना मेरे में स्वगुणप्रसाद भरना स्वाभाविक है॥२॥
विशेष
ऋषिः—बार्हस्पत्यो भरद्वाजः (वेदाचार्य का शिष्य परमात्मा के अर्चन ज्ञान बल को धारण करने वाला)॥<br>
विषय
अत्रियों का नियन्त्रण
पदार्थ
(अग्निः) = वह आगे ले-चलनेवाला प्रभु अग्र - मोक्षस्थान को प्राप्त करानेवाला प्रभु (तिग्मेन)= अति तीक्ष्ण (शोचिषा)= ज्ञान की दीप्ति से (विश्वम्=) हमारे अन्दर प्रवेश कर जानेवाले और हमें (अत्रिणम्)= खा जानेवाले अर्थात् हमारी आत्मिक उन्नति को समाप्त कर देनेवाले काम, क्रोध, लोभ को (नियंसत्)= नियन्त्रित करता है।
काम, क्रोध, लोभ अनियन्त्रित अवस्था में मनुष्य के शत्रु हैं। नियन्त्रित होकर ये शत्रु न रहकर मित्र हो जाते हैं। ज्ञान प्राप्ति में सन्तोष न होना ही ठीक है तथा ('सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने। त्रिषु चैव न कर्तव्यो दाने तपसि पाठने) - अपनी पत्नी, भोजन और धन इन तीन में सन्तोष होना चाहिए, परन्तु दान, तप और पठन में सन्तोष नहीं होना चाहिए। (‘मृदुदण्डः परिभूयते')= ‘अत्यन्त मृदु का पराभव ही होता है' चाणक्य के ये शब्द मर्यादित रूप में क्रोध की आवश्यकता को भी स्पष्ट कर रहे हैं, एवं इनका नाश न कर नियमन ही ठीक है।
इन नियन्त्रित कामादि से मनुष्य धर्मपूर्वक अर्थ कमाकर वांछनीय वस्तुओं को जुटाता है और जीवन-यात्रा को सफल कर उसकी समाप्ति पर मोक्ष भी प्राप्त करता है, परन्तु इन सब (रयिम्)=धनों को - उत्तम पदार्थों को (नः)= हमारे लिए (अग्नि:)= वह प्रभु ही (वंसते)= [Wins] विजय करता है। मनुष्य को कभी यह गर्व न होना चाहिए कि रयि का विजेता मैं हूँ। इस भावना को अपने अन्दर सदा जाग्रत् रखना चाहिए कि 'मैं तो निमित्तमात्र हूँ।'
प्रभु कृपा से काम, क्रोध, लोभरूप महान् शत्रुओं को वशीभूत करके मैं सचमुच ही इस मन्त्र का ऋषि ‘भरद्वाज' बन सकूँगा, परन्तु उस शक्ति के गर्व का त्याग भी तो करना ही होगा।
भावार्थ
ज्ञान से काम-क्रोधादि नियन्त्रित= वशीभूत रहते हैं और उत्तम धर्मों की प्राप्ति होती है।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( अग्निः ) = अग्नि अग्रणी राजा के समान, ईश्वर ( तिग्मेन, शोचिषा ) = अपने तीक्ष्ण तेज से ( विश्वम् ) = समस्त ( अत्रिणम् ) = प्रजा के धन और प्राण खाजाने वाले दुष्टों को ( नि यंसत् ) = नियमन करता है, व्यवस्था में रखता है । और वही ( अग्नि : ) = अग्नि:, परसंतापक ( नः ) = हमें ( रयिं ) = धन और सुखमय जीवन ( वंसते१ ) देता है,
टिप्पणी
१ 'वनते' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:।
छन्दः - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
परमात्मा स्तोत्रे किं फलं प्रयच्छेदित्याह।
पदार्थः
(अग्निः) तेजोमयः परमात्मा (तिग्मेन) तीक्ष्णेन (शोचिषा) तेजसा (विश्वम्) समस्तम् (अत्रिणम्२) भक्षकं कामक्रोधादिकमन्तःशत्रुवर्गं, चौरलुण्ठकादिकं सामाजिकञ्च रिपुवर्गम्। अत्ति भक्षयति हिनस्ति यः सोऽत्री। अद् भक्षणे धातोः अदेस्त्रिनिश्च उ० ४।६९ इति त्रिनिः। पाप्मानोऽत्रिणः इति ष० ब्रा० ३।१। (नियंसत्३) नियच्छतु। निपूर्वात् यम उपरमे धातोः विध्यर्थे लेटि सिब्बहुलं लेटि अ० ३।१।३४ इति सिपि रूपम्। (अग्निः) स एवाग्निपदवाच्यः परमात्मा (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) लौकिकं धनं हिरण्यरजतप्रजापश्वादिकम् आध्यात्मिकञ्च धनं सत्याहिंसादि (वंसते४) विभज्य ददातु। वन संभक्तौ धातोर्लेटि सिबागमः ॥२॥ श्लेषेण भौतिकाग्निपक्षेऽपि योजनीयम् ॥२॥
भावार्थः
यथा पार्थिवोऽग्निर्विद्युदग्निर्वा तिग्मेन शोचिषा प्राप्तं वस्तु दहति, शिल्पादिकर्मसु योजितश्च धनं प्रयच्छति, तथैव परमात्माग्निरुपासकानामान्तरान् बाह्याँश्च सपत्नान् निगृह्णाति, तत्कृते च सांसारिकीमाध्यात्मिकीञ्च संपदं वितरति ॥२॥५
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।१६।२८, य० १७।१६ उभयत्र यंसद्, वंसते इत्यत्र क्रमेण यासद्, वनते इति पाठः। २. अत्रिणम्—अदनशीलं राक्षसम्। रक्षांसि वै पाप्मात्रिणः (ऐ० ब्रा० २।२) इति ह्यैतरेयकम्। न्यत्रिणमित्यत्र स्वरितस्य कम्पः, न तु दीर्घः—इति भ०। ३. नियंसत् नियच्छतु हिनस्तु इत्यर्थः—इति भ०। ४. वंसतिरत्र दानार्थः—इति भ०। वंसते ददातु—इति सा०। ५. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं वाचकलुप्तोपमाश्रयेण ऋग्भाष्ये राजपरो, यजुर्भाष्ये च पावकपरो विद्युत्परो विद्वत्परश्च व्याख्यातः।
इंग्लिश (4)
Meaning
God, through His lustrous splendour subdues the ignoble foes of men. He alone grants us the wealth of spirituality.
Meaning
Agni, with the flaming light of pure refulgence, dries up and burns off all hostility of the world and brings the wealth of life for us, dedicated supplicants and celebrants. (Rg. 6-16-28)
Translation
May the Omniscient Lord cast down each fierce devour- ing fiend ( within and without ) with His lustrous Splendour. He alone grants us real wealth vf wisdom, Peace and Bliss.
Translation
May the Lord, with His sharp flame, cast down each destructive devourer, may he grant us precious treasures. (Cf. Rv VI.16.28)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्निः विश्वम् अत्रिणम्) તેજસ્વરૂપ પરમાત્માના ઉપાસકની અંદર ઉત્પન્ન-ઉઠનાર સમસ્ત પાપભાવને (तिग्मेन शोचिषा नियंसत्) તિગ્મેન = તીક્ષ્ણ શોચિતા = જ્ઞાનમય તેજથી નિયંસત = નિયંત્રણ કરે છે - દબાવી દે છે - અકિંચિત્કર કરી નાખે છે, પુનઃ (अग्निः) જ્ઞાનસ્વરૂપ પરમાત્મા (नः) અમારા માટે (रयिम् वंसते) અધ્યાત્મધન- અમૃતાનંદને પ્રદાન કરે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : : પરમાત્મા જ્યારે મારી-ઉપાસકની અંદર સાક્ષાત્ પ્રકાશિત થાય છે, ત્યારે પોતાના જ્ઞાનમય તેજથી મારા આન્તરિક જીવના ભક્ષક તત્ત્વો-પાપભાવો નિયંત્રિત કરે છે - ભસ્મીભૂત કરીને મને આધ્યાત્મિક અમૃતધનનો ભાગી બનાવી દે છે. કારણ કે તે મારા આત્માનો પણ આત્મા છે. "य आत्मनि तिष्ठन् आत्मा यस्य शरीरम्'' (શત.) જેમ મારા આત્માનું શરીર મારી દેખરેખમાં રહેતું હોવાથી, તેને નિર્દોષ રાખવાનું મને ધ્યાન રહે છે, હું તેને યત્નપૂર્વક નિર્દોષ રાખું છું, તેમ હું-આત્મા તે પરમાત્માનું શરીર છું, તો મને નિર્દોષ રાખવો, મારામાં સ્વગુણ પ્રસાદને પ્રવિષ્ટ કરવા તે સ્વાભાવિક છે. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
پَرچَنڈ اگنی اِیشور
Lafzi Maana
(اگنی) اگرنیہ راجہ کے سمان پرمیشور! (تگمینن شوچِشا) اپنی پرچنڈ (آگ کی اُٹھتی ہوئی تیز لپٹوں کی طرح) شکتی سے (اترنم) پرجا کے دھن اور پرانوں کو کھا جانے والے دُشٹوں کو (نی نیست) نیم میں رکھتا ہے۔ اپنے ازلی قانون ودھان کے ذریعے اُن پر حکومت کرتا ہے۔ دوسروں کو پِیڑا پہنچانے والوں کو دنڈ دیتا ہے۔ اور وہی (اگنی) دھرماتماؤں کا پیارا پربُھو (نہ) ہمیں (رئیِم) دُنیاوی اور رُوحانی خوشیاں پِوتّر دھن وغیرہ سمپدائیں (ونستے) بخشش کرتا ہے۔
Tashree
(1) پرماتما نیائے کاری ہے۔ پرانیوں کی ہِنسا کرنے والوں کو دنڈ دیتا ہے اور دھرمی جنون کو اُن کے شُبھ کرموں کے مطابق زر و مال وغیرہ دے کر سُکھ دیتا رہتا ہے۔
(2) اندر سے اُٹھنے والے پاپ تاپ سنتاپ کام کرودھ لوبھ وغیرہ اندرونی دشمنوں کو بھی وہ بھگوان اپنے تیج سے تحس نحس کر کے اپنے دھارمک اُپاسکوں نیک آدمیوں کو سُکھ شانتی دیتا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
असा पार्थिव अग्नी किंवा विद्युत तीक्ष्ण तेजाने आपल्या जवळ येणाऱ्या वस्तूला दग्ध करतो व शिल्प इत्यादी कर्मात प्रयुक्त होऊन धन प्रदान करतो, तसेच परमात्म-रूपी अग्नी उपासकांच्या आंतरिक व बाह्य शत्रूंचा निग्रह करतो व त्या उपासकांना सांसारिक व आध्यात्मिक संपत्तीचे वितरण करते ॥२॥
विषय
परमेश्वर स्तोताला कोणकोणती फळे प्रदान करतो, हे सांगतात. -
शब्दार्थ
(अग्नि:) तेजोमय परमेश्वराने (तिग्नेत) आपल्या तीक्ष्ण अशा (शोचिषा) तेजाद्वारे (विश्वम्) समस्त (अत्रिणम्) भक्षक काम क्रधोदी आंतरिक शत्रुदळाला तसेच चोर, दरोडेखोर अशा बाह्य शत्रूंना (नियंसत्) नियंत्रित करावे. (अशी आमची प्रार्थना.) तसेच (अग्नि:) त्या अग्निपदवाच्य परमात्म्याने (न:) आमच्यासाठी (रयिम्) सोने, चांदी, प्रजा-पशु आदी भौतिक धन तसेच सत्य, अहिंसा आदी आध्यात्मिक धन (वंसते) वाटून विभागून द्यावे, ही प्रार्थना. ।।२।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे भौतिक अग्नी अथवा विद्युत आपल्या तेजाने जवळ असलेल्या पदार्थाला जाळून टाकतात अथवा त्यांचा शिल्प, यंत्रादी कामात वापर केल्यास ऐश्वर्य प्रदान करतात, तद्वत परमात्मरूप अग्नी उपासकांच्या आंतरिक व बाह्य शत्रूंचा निग्रह करतो. तसेच उपासकांची सांसारिक व आध्यात्मिक संपत्ती वृद्धिंगत करतो. ।।२।।
विशेष
श्लेष अलंकाराने या मंत्राची अग्नीपरक अर्थयोजनादेखील करता येते. ।।२।।
तमिल (1)
Word Meaning
(அக்னியானவன்) கூர்மையான தேஜசால் அனைத்துமான சத்துருவை (அந்தகாரத்தை)
சீரழிக்கட்டும்.
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