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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 241
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    23

    न꣡ हि व꣢꣯श्चर꣣मं꣢ च꣣ न꣡ वसि꣢꣯ष्ठः प꣣रिम꣡ꣳस꣢ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म꣣द्य꣢ म꣣रु꣡तः꣢ सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ वि꣡श्वे꣢ पिबन्तु का꣣मि꣡नः꣢ ॥२४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न꣢ । हि । वः꣣ । चरम꣢म् । च꣣ । न꣢ । व꣡सि꣢꣯ष्ठः । प꣣रिमँ꣡स꣢ते । प꣣रि । मँ꣡स꣢꣯ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣रु꣡तः꣢ । सु꣣ते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । वि꣡श्वे꣢꣯ । पि꣣बन्तु । कामि꣡नः꣢ ॥२४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न हि वश्चरमं च न वसिष्ठः परिमꣳसते । अस्माकमद्य मरुतः सुते सचा विश्वे पिबन्तु कामिनः ॥२४१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न । हि । वः । चरमम् । च । न । वसिष्ठः । परिमँसते । परि । मँसते । अस्माकम् । अद्य । अ । द्य । मरुतः । सुते । सचा । विश्वे । पिबन्तु । कामिनः ॥२४१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 241
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में आचार्य और परमात्मा का कार्य वर्णित किया है।

    पदार्थ

    प्रथम—अध्ययनाध्यापन के पक्ष में। हे विद्यार्थीरूप मरुतो ! (वः) तुममें से (चरमं च न) हीनकोटिवाले भी विद्यार्थी को (वसिष्ठः) विद्या से बसानेवाला आचार्य (नहि) नहीं (परिमंसते) छोड़ता है, अर्थात् विद्या से वंचित नहीं करता है। (अद्य) आज (सुते) विद्यायज्ञ के प्रवृत्त हो जाने पर (अस्माकम्) हमारे (विश्वे) सब (कामिनः) विद्या-ग्रहण के इच्छुक (मरुतः) विद्यार्थी (सचा) साथ मिलकर (पिबन्तु) विद्या-रस का पान करें ॥ ‘मरुतः’ का यौगिक अर्थ है मरनेवाले। मृत्यु-रूप आचार्य के गर्भ में स्थित होकर पूर्व संस्कारों को छोड़कर (अर्थात् मरकर) विद्या से पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं, इस कारण विद्यार्थी ‘मरुत्’ कहलाते हैं। अथर्ववेद में स्पष्ट ही आचार्य को मृत्यु कहा है (अथर्व० ११।५।१४), यह भी कहा है कि ‘‘आचार्य उपनयन संस्कार करके ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करता है, तीन रात्रि तक उसे अपने उदर में रखता है, फिर जब ब्रह्मचारी द्वितीय जन्म लेता है, अर्थात् विद्या पढ़कर स्नातक बनता है, तब उसे देखने के लिए अनेक विद्वान् जन आते हैं।’’ (अथर्व० ११।५।३) ॥ द्वितीय—कर्मफल-भोग के पक्ष में। हे मरणधर्मा मनुष्यो ! (वः) तुम्हारे बीच में (चरमं चन) एक को भी (वसिष्ठः) अतिशय बसानेवाला सर्वव्यापक परमेश्वर (नहि परिमंसते) कर्मफल दिये बिना नहीं छोड़ता है, अर्थात् प्रथम से लेकर अन्तिम तक सभी को कर्मफल प्रदान करता है। (अद्य) आज, बर्तमान काल में (सुते) उत्पन्न जगत् में (अस्माकम्) हमारे बीच में (विश्वे) सभी (कामिनः) अभ्युदय के इच्छुक (मरुतः) मरणधर्मा मनुष्य (सचा) साथ मिलकर (पिबन्तु) कर्मफलों का भोग करें ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥

    भावार्थ

    जैसे वसिष्ठ परमेश्वर निरपवाद रूप में सभी जीवात्माओं को कर्मानुसार फल देता है, वैसे ही वसिष्ठ आचार्य ऐसी सरल शैली से शिष्यों को पढ़ाये, जिससे बिना अपवाद के सभी शिष्य विद्या के ग्रहण में समर्थ हों ॥९॥

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    पदार्थ

    (वसिष्ठः) परमात्मा में अत्यन्त वसनेवाला उपासक आत्मा (वः) तुम्हारे में से (चरमं च न) चरित—ज्ञान हुए गुण नाम को भी (न हि परिमंसते) नहीं त्याग कर मानता है “परिपूर्वक मनधातोर्लडर्थे लेट्” (अद्य) आज—अब (सुते) निष्पन्न उपासनारस को (सचा) मिलकर (विश्वे) सब (अस्माकं कामिनः) हम उपासकों के कल्याण की कामना करने वाले (मरुतः) इन्द्र—ऐश्वर्यवान्—परमात्मा के, वासनामारक गुण नाम देव “इन्द्रो वै मरुतः” [गो॰ २.१.२३] “इन्द्रस्य वै मरुतः” [कौ॰ ५.४] (पिबन्तु) पान करें—स्वीकार करें।

    भावार्थ

    परमात्मा में अत्यन्त बसा हुआ उपासक इन्द्र—परमात्मा के वासनामारक गुण नामों में से किसी ज्ञान गुण का भी परित्याग नहीं करता है अतः आज अवसर पर कल्याण चाहने वाले निष्पन्न उपासनारस को वे सब वासनामारक गुणनाम देव पान करें—स्वीकार करें॥९॥

    टिप्पणी

    [*20. “इन्द्रस्य वै मरुतः” [कौ॰ ५.४]।]

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवताः—मरुतः ‘इन्द्रसम्बद्धा मरुतः’ (इन्द्र के मरुत—पाप को मारने वाले गुण*20)॥<br>

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    विषय

    कामी का भी सोमपान, प्राणों की आराधना

    पदार्थ

    शरीर में प्राण मुख्यरूप से 'प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान' इन पाँच भेदों में तथा ‘नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनञ्जय' इन पाँच गौण भेदोंसहित कितने ही उपभेदों में
    विभक्त होकर कार्य कर रहा है। ये प्राण के ४९ भेद ही 'मरुतः' कहलाते हैं। इन्हें वशीभूत करके चित्तवृत्तियों के दमन द्वारा जो व्यक्ति इन्द्रियों को शान्त करता है, वह ‘वसिष्ठ' कहलाता है। प्राणापानों की साधना के कारण ही यह ‘मैत्रावरुणि' है। [मित्रावरुणौ=प्राणापानौ]। 

    प्राणापान का संयम वशी बनने का सर्वोत्तम प्रकार है। वसिष्ठ किसी गौण प्राणभेद की भी उपेक्षा नहीं करता। यह वशी कहता है कि (मरुतः) = हे मरुतो! (वसिष्ठः)=मैं वसिष्ठ (वः)=आपके (चरमं च न)= अन्तिम प्राणभेद को भी (परि)= छोड़कर (न हि मंसते)= नही आराधना करता हूँ। मैं मुख्य, गौण व गौणतर भेदों में विभक्त सभी प्राणों की स्तुति करता हूँ। इन प्राणों के वश में करने का ही यह परिणाम है कि (अद्य)=आज विश्वे (कामिनः) = नाना प्रकार के भोगों की कामना करनेवाले ये (अस्माकम्) = हमारे सब प्राण (सचा)= मिलकर (सुते)= [सुतं का द्विवचन] सोम व ज्ञान का (पिबन्तु) = पान करें। 'सुतम्' शब्द सोम-अपजंसपजल का भी वाचक है तथा ज्ञान का भी। जब तक मनुष्य प्राणों की साधना नहीं करता तब तक उसकी प्राणशक्ति उसके भोगों के भोगने में व्यय होती है और ज्यूँहि उसने इन प्राणों की साधना कर ली त्यूँहि ये कामी न रहकर सोम व ज्ञान का पान करनेवाला इन्द्र बन जाता है। कितना महान् परिवर्तन उसके जीवन में आ जाता है।

    भावार्थ

    मैं कामी न रहकर सोमपान करनेवाला बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वसिष्ठः ) = मुख्य प्राण ( वः ) = तुम इन्द्रियों में से ( चरमं चन ) = अन्तिम का भी ( न हि ) = नहीं ( परिमंसते ) = तिरस्कार करता है । ( मरुतः ) = इन्द्रिय मार्गों में विचरण करने वाले प्राणो ! ( अस्माकं सुते ) = हमारे उत्पन्न किये हुए ज्ञानरस में ( विश्वे कामिनः ) = सब अपने रसपान की कामना करने वाले आप लोग ( सचा ) = एक साथ ( पिबन्तु ) = आनन्दामृत का पान करो। इसका विवरण देखो बृहदा० उप० ( अ० ६ । १ ) में वसिष्ठ प्राण का प्रकरण अथवा – ( वसिष्ठः ) = परमेश्वर ( चरमं चन नहिं परिमंसते ) = सबसे पिछड़े हुए का भी अनादर नहीं करता । हे  ( मरुतः ) = मनुष्यो ! ( अस्माकम् कामिनः ) = हममें से जो भी परम रस के अभिलाषी हैं वे ( विश्वे सचा पिबन्तु ) = सब आकर समाहित होकर आनन्द रस का  पान करें ।

    अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
     साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥ (गीता )

    टिप्पणी

    २४१ – 'पिबत कामिनः इति ऋ० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वसिष्ठ:।

    देवता - मरुतः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाचार्यस्य परमात्मनश्च कृत्यमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—अध्ययनाध्यापनपक्षे। मरुतो देवताः। हे मरुतः विद्यार्थिनः। युष्माकं मध्ये (चरमं च न) हीनकोटिकमपि विद्यार्थिनम् (वसिष्ठः२) विद्यया वासयितृतमः आचार्यः (नहि) नैव (परिमंसते३) परित्यजति, विद्यया वञ्चितं न करोतीत्यर्थः। परिपूर्वाद् मनु अवबोधने धातोर्लेटि ‘सिब्बहुलं लेटि’ अ० ३।१।३४ इति सिपि रूपम्। परिरत्र वर्जनार्थः। (अद्य) अस्मिन् दिने (सुते) विद्यायज्ञे प्रवृत्ते सति (अस्माकम्) नः (विश्वे) सर्वे (कामिनः) विद्याग्रहणेच्छवः (मरुतः) विद्यार्थिनः (सचा) संभूय (पिबन्तु) विद्यारसपानं कुर्वन्तु ॥ म्रियन्ते इति मरुतः। मृत्युरूपस्याचार्यस्य गर्भे स्थित्वा पूर्वसंस्कारान् परित्यज्य मृत्वा वा विद्यातः पुनर्जन्म प्राप्नुवन्ति, तस्माद् विद्यार्थिनो मरुत उच्यन्ते। आचार्यस्य मृत्युरूपत्वं च श्रुतिरेवमाह—‘आ॒चा॒र्यो मृ॒त्युः’ (अथ० ११।५।१४) इति। अन्यच्च—“आ॒चा॒र्य उपनय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। तं रात्री॑स्ति॒स्र उ॒दरे॑ बिभर्ति॒ तं जा॒तं द्रष्टु॑मभि॒संय॑न्ति दे॒वाः” ॥ (अथ० ११।५।३) इति ॥ अथ द्वितीयः—कर्मफलभोगपक्षे। हे मरुतः मरणधर्माणो मनुष्याः। (वः) युष्माकं मध्ये (चरमं च न) अन्यतममपि (वसिष्ठः) अतिशयेन वस्ता वसिष्ठः सर्वव्यापकः परमेश्वरः। वस आच्छादने, तृजन्ताद् इष्ठनि ‘तुरिष्ठेमेयस्सु’, अ० ६।४।१५४ इति तृचो लोपः। (नहि परिमंसते) विना कर्मफलदानेन नैव परित्यजति, पूर्वस्मादारभ्य चरमपर्यन्तं सर्वेभ्य एव कर्मफलं प्रयच्छतीत्यर्थः। (अद्य) अस्मिन् दिने वर्तमानकाले इत्यर्थः (सुते) उत्पन्ने जगति (अस्माकम्) अस्मन्मध्ये (विश्वे) सर्वेऽपि (कामिनः) अभ्युदयाकांक्षिणः (मरुतः४) मरणधर्माणो मनुष्याः (सचा) संभूय (पिबन्तु) कर्मफलान्यास्वादयन्तु ॥९॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥

    भावार्थः

    यथा वसिष्ठः परमेश्वरो निरपवादं सर्वेभ्यो जीवात्मभ्यः कर्मानुसारं फलं प्रयच्छति तथैव वसिष्ठ आचार्यस्तथा सरलया शैल्या शिष्यानध्यापयेत् यथा निरपवादं सर्वेऽपि शिष्या विद्याग्रहणे क्षमन्ताम् ॥९॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ७।५९।३, ‘पिबन्तु’ इत्यत्र ‘पिबत’ इति पाठः। २. ‘(वसिष्ठः) अतिशयेन विद्यासु कृतवासः (विद्वज्जनः)’ इति ऋ० ७।२६।५ भाष्ये, ‘अतिशयेन वासयिता इति’ च ७।५९।३ भाष्ये द०। ३. परिमंसते वर्जयित्वा स्तौति—परिः वर्जने। मतिः स्तुतिकर्मा। सर्वानेव युष्मान् स्तौति—इति भ०। चरमं चन जघन्यमपि नहि परिमंसते वर्जयित्वा न स्तौति—इति सा०। ४. मृङ् प्राणत्यागे धातोः ‘मृग्रोरुतिः’ उ० १।९४ इति उतिः प्रत्ययः। ‘म्रियते इति मरुत् मनुष्यजातिः पवनो वा’ इत्युणादिकोशव्याख्याने द०। ५. दयानन्दर्षिः ऋग्भाष्ये मन्त्रमिमं मनुष्याणां किं कर्तव्यमिति विषये व्याचष्टे।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God never abandons even the most degraded one of yon. O men, let all lovers of divine essence amongst us, unitedly drink it in deep meditation!

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    Meaning

    O Maruts, vibrant givers of light and energy, leading lights of humanity, the celebrated sage best settled and giver of settlement mentally and spiritually does not ignore or neglect even the last of you but honours you all. O lovers and benefactors of the nation, come today now itself, join and enjoy the delicious taste of our achievement in your honour in the structure and order of a great society. (Rg. 7-59-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वसिष्ठः) પરમાત્મામાં અત્યંત વસનાર ઉપાસક આત્મા (वः) તમારામાંથી (चरमं च न) ચરિત-જ્ઞાન થયેલ ગુણ નામને પણ (न हि परिमंसते) છોડીને માનતો નથી (अद्य) આ જ (सूर्त) નિષ્પન્ન ઉપાસનારસને (सचा) મળીને (विश्वे) સર્વ (अस्माकं कामिनः) અમારી-ઉપાસકોના કલ્યાણની કામના કરનાર (मरुतः) ઈન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માના, વાસનામા૨ક ગુણ નામ દેવ (पिबन्तु) પાન કરે-સ્વીકાર કરે. (૯)  

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મા અત્યંત વસનાર ઉપાસક ઇન્દ્ર-પરમાત્માના વાસનામારક ગુણ નામોમાંથી પણ કોઈ ગુણવાચક નામનો પરિત્યાગ કરતો નથી; તેથી આ જ અવસર પર કલ્યાણ ચાહનાર ઉપાસનારસને તે સર્વ વાસનામારક ગુણ નામ દેવ પાન કરે-સ્વીકાર કરે. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اپنے کسی بھگت کا وہ تیاگ نہیں کرتا

    Lafzi Maana

    ہے اُپاسکو! (وہ چرسم دمم) تم میں سے چھوٹے درجے کے بھی بھگت کو وہ (وسشِٹھ نہ پری سنتے) سب میں واس کرنے والا پرمیشور تیاگ نہیں کر دیتا (مرُوتہ) ہے عابد لوگو! (وشوے ادیہ اسماکم سُتے سچا) تم سب آج ہمارے اس بھگتی یگیہ میں شامل ہووؤ۔ اور (کامنا پِنبتُو) چاہتے ہوئے اِس بھگتی رس کا پان کرو۔

    Tashree

    تیاگ نہیں کرتا وہ ایشور اپنے ادنےٰ عابد کو بھی، بھگتی رس کو پی کر کے ہو جاؤ نزد تر اُس کے ہی۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा सर्वव्यापक परमेश्वर निरपवाद रूपाने संपूर्ण जीवात्म्यांना कर्मानुसार फळ देतो, तसेच आचार्यानी शिष्यांना सरळ शैलीने शिकवावे, ज्यामुळे निरपवाद सर्व शिष्य विद्या ग्रहण करण्यात समर्थ व्हावेत ॥९॥

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    विषय

    परमेश्वराचे आणि आचार्यांचे कार्य

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (अध्ययन- अध्यापनपर) हे विद्यार्थी रूप मरुत् गण (वः) तुमच्यापैकी (चरमंच न) जो बुद्धिहीनवा हीन ग्रहणशक्ती असलेला विद्यार्थी आहे. त्यालादेखील (वसिष्ठः) विद्यादायक आचार्य (नहि) (परिमंसते) सोडत नाही. अर्थात त्यालादेखील विद्येपासून वंचित ठेवत नाही. (अध) आज (सुते) या विद्या यज्ञाच्या प्रारंभी तुम्ही या. (अस्माकम्) आमचे (विश्वे) सर्व (कामिनः) विद्या ग्रहणासाठी इच्छुक (मरुतः) सहपाठी विद्यार्थी (सचा) एकत्र मिळून (पिबन्तु) विद्या रसाचे सेवन करू या.।। ङ्गमरुतः शब्दाचा यौगिक अर्थ आहे - मरणारे, मरण धर्माः ज्याअर्थी विद्यार्थी मृत्युरूप आचार्याच्या गर्भामध्ये (गुरुकुलात वा आश्रमात) राहून पूर्व- संस्कारांचा त्याग करून (म्हणजे एक प्रकारे मरण स्वीकारून) विद्येद्वारे पुनजन्म प्राप्त करतात. त्यामुळेच विद्यार्थीला ङ्गमरुत्फ म्हटले आहे. अथर्व वेदात आचार्याला अगदी स्पष्टपणे मृत्यू म्हटले आहे, ते (अथर्व. ११/५/१४) त्यातच पुढे असेही म्हटले आहे की ङ्गङ्घआचार्य उपनयन- संस्कार करून त्या ब्रह्मचारी - बालकाला आपल्या गर्भात धारण करतो, त्याला तीन रात्रीपर्यंत आपल्या उदरी ठेवतो आणि जेव्हा ब्रह्मचारी दुरा जन्म घेतो म्हणजे विद्या पूर्ण करून स्नातक होतो, त्याला पाहण्यासाठी अनेक विद्वानजन तिथे येतात. (अथर्व ११/५/३) द्वितीय अर्थ - (कर्मफल भोगपर अर्थ) - हे मरण धर्मा मनुष्यांनो, (वः) तुमचपैी (चरभं चन) एकालाही तो (वसिष्ठः) अतिशय निवासक सर्वव्यापी परमश्वर (नहि परिमंसते) कर्माचे फल दिल्याशिवाय सोडत नाही. म्हणजे प्रथम मनुष्यापासून ते अंतिम मनुष्याला कर्माचे फळ अवश्य देतो. (अघ) आज म्हणजे वर्तमानकाळी (सुते) या उत्पन्न जगामध्ये (अस्माकम्) आमच्यापैकी (कामिनः) अभ्युदयाचे (भौतिक समृद्धीचे) इच्छुक असलेले लोकहो, या आपण (विश्वे) सर्व (मरुतः मरणधर्मा मनुष्य (सचा) सोबत राहून (पिबन्तु) कर्म फल भोगू या.।।९।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे वसिष्ठ परमेश्वर कोणताही अपवाद न करता सर्वांना कर्माप्रमाणे बरे वाईट फल देतो, तद्वत वसिष्ठ आचार्यानेदेखील सरल, सोप्या पद्धतीने शिष्यांना अध्यायन करावे की ज्यामळे सर्वच शिष्य निरपवाद रूपाने विद्याग्रहण कार्यी यशस्वी होतील.।।९।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।। ९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மருத்துக்களே வசிஷ்டர் உங்கள் நடுவில் மிகத் தாழ்ந்தவனையும் விட்டு விடுவதில்லை. பொழியப்பட்ட சோமனருகே இன்று சோமனை விரும்புபவர்களான மருத்துக்களான அனைவரும் ஒருமையுடன் பருகட்டும்.

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