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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 283
    ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    17

    इ꣣त꣢ ऊ꣣ती꣡ वो꣢ अ꣣ज꣡रं꣢ प्रहे꣣ता꣢र꣣म꣡प्र꣢हितम् । आ꣣शुं꣡ जेता꣢꣯र꣣ꣳ हे꣡ता꣢रꣳ र꣣थी꣡त꣢म꣣म꣡तू꣢र्तं तुग्रिया꣣वृ꣡ध꣢म् ॥२८३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣तः꣢ । ऊ꣣ती꣢ । वः꣣ । अजर꣡म्꣢ । अ꣣ । ज꣡र꣢꣯म् । प्रहे꣣ता꣡र꣢म् । प्र । हेता꣡र꣢म् । अ꣡प्र꣢꣯हितम् । अ । प्र꣣हितम् । आशु꣢म् । जे꣡ता꣢꣯रम् । हे꣡ता꣢꣯रम् । र꣣थी꣡त꣢मम् । अ꣡तू꣢꣯र्तम् । अ । तू꣣र्तम् । तुग्रियावृ꣡ध꣢म् । तु꣣ग्रिय । वृ꣡ध꣢꣯म् ॥२८३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इत ऊती वो अजरं प्रहेतारमप्रहितम् । आशुं जेतारꣳ हेतारꣳ रथीतममतूर्तं तुग्रियावृधम् ॥२८३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इतः । ऊती । वः । अजरम् । अ । जरम् । प्रहेतारम् । प्र । हेतारम् । अप्रहितम् । अ । प्रहितम् । आशुम् । जेतारम् । हेतारम् । रथीतमम् । अतूर्तम् । अ । तूर्तम् । तुग्रियावृधम् । तुग्रिय । वृधम् ॥२८३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 283
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमेश्वर और राजा के गुण वर्णित किये गये हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (वः) तुम लोग (ऊती) रक्षा के लिए (अजरम्) बुढ़ापे अथवा जीर्णता से रहित, (प्रहेतारम्) शुभ कर्मों में प्रेरणा करनेवाले, (अ-प्रहितम्) स्वयं किसी अन्य से प्रेरित न होनेवाले, (आशुम्) शीघ्रकारी, न कि व्यर्थ ही कार्यों को लटकानेवाले, (जेतारम्) विजयी, (हेतारम्) वृद्धि करनेवाले, (रथीतमम्) गतिशील, सूर्यचन्द्रादिरूप रथों के तथा ब्रह्माण्डरूप रथ के श्रेष्ठ रथी, अथवा श्रेष्ठ रथारोही, (अतूर्तम्) किसी से हिंसित न होनेवाले, (तुग्रियावृधम्) अन्न में रहनेवाले अन्नरस, आकाश में रहनेवाले मेघजल या वायु, यज्ञ में रहनेवाले फलसाधनत्व तथा वरिष्ठ जनों में रहनेवाले धर्माचार के वर्धक इन्द्र परमेश्वर को अथवा प्रजाओं की वृद्धि करनेवाले इन्द्र राजा को (इतः) इधर अपने अभिमुख करो ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। तकार और रेफ की अनेक बार आवृत्ति में, ‘तार’ की तीन बार आवृत्ति में और ‘तम, मतू’ में वृत्त्यनुप्रास है। ‘प्रहेता, प्रहित’ में छेकानुप्रास, और ‘हेतारं’ की आवृत्ति में यमक है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि सांसारिक विषय-विलासों में अति प्रवृत्ति को छोड़कर विविध गुणोंवाले परमेश्वर की उपासना करके और राजा को प्रजाओं के अनुकूल करके अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि करें ॥१॥

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    पदार्थ

    (वः) “वः-यूयम् विभक्तिव्यत्ययः” तुम उपासको! (ऊती) अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिये (अजरम्) जरारहित—सदा एकरस युवा (प्रहेतारम्) प्रेरिता—उन्नत पथ पर ले जाने वाले—(अप्रहितम्) अन्य से अप्रेरित—स्वशक्ति से वर्तमान—(आशुम्) व्यापनशील—(जेतारम्) दुष्टों के दमनशील—(होतारम्-‘हेतारम्’) वर्धक—‘हि वृद्धौ’ [स्वादि॰] (रथीतमम्) अत्यन्त रथी—जीवों के रमणस्थान—संसार के स्वामी—(अतूर्तम्) अप्रतिहत (तुग्रिया-वृधम्) “तुज आदाने” [चुरादि॰] “तुज्यते-आदीयते परमात्मना तुक्”—उपासनारसः “तुजं राति यया क्रियया सा तुग्री तया वर्धकम्” आदान करने योग्य उपासनारस देने की भावना बढ़ाने वाले परमात्मा को (इत) प्राप्त करो।

    भावार्थ

    हे उपासक जनो! अपनी रक्षा के लिये तुम! एकरस युवा, उन्नत पथ पर प्रेरित करने वाले अन्य से अप्रेरित स्वशक्तिसम्पन्न व्यापनशील दुष्टों पर जयशील जीव कर्मों के ज्ञाता महान् रथ स्वामी—जीवों के रमणस्थान संसार के स्वामी लेने योग्य उपासनारस भेटकों की देने की भावना या प्रवृत्ति से बढ़ाने वाले परमात्मा को प्राप्त होओ॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—नृमेधः (नायक मेधावाला विद्वान्)॥<br>

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    विषय

    इस संसार से संरक्षण के लिए [ प्रलोभन पुर्रण संसार से बचने के लिए ]

    पदार्थ

    इस मन्त्र ऋषि (‘नृमेध आङ्गिरस') कहता है कि (इत:) = इस प्रलोभनपूर्ण संसार से (वः ऊती)= [ऊत्या] अपने रक्षण के उद्देश्य से उस प्रभु का स्मरण करो जोकि १. (अजरम्) = जरा रहित है २.(प्रहेताम्)=प्रकृष्ट प्रेरणा देनेवाला है ३. (अप्रहितम्) = स्वयं किसी दूसरे से भेजा नहीं गया ४. (आशुम्) = शीघ्र कार्यकर्ता है ५. (जेतारम्) = सदा विजयशील है ६. (होतारम्) = दान देनेवाला है व स्वार्थशून्य है ७.(रथीतमम्)= सर्वोत्तम रथी है, ८.( अतूर्तम्) = हिंसारहित है। न हिंसित होनेवाला, न हिंसा करनेवाला तथा ९. (तुग्रियावृधम्) = शक्ति का बढ़ानेवाला है।

    उल्लिखितरूप में प्रभु का स्मरण करते हुए हम भी निश्चय करें कि विषयों में आसक्त होकर हमें भी जीर्ण नहीं होना । प्रभु अप्रहित हैं, मैं भी दूसरों से बहकाया जाकर किसी विषय का शिकार न बनूँगा । इसी उद्देश्य से मैं सदा स्फूर्ति से कार्यों में लगा रहूँगा। सदा वासनाओं को जीतनेवाला बनूँगा । वासनाओं को जीतने के उद्देश्य से ही मैं देनेवाला बनूँगा । इस तत्त्व को न भूलूँगा कि यह शरीर जीवनयात्रा की पूर्ति के लिए रथ है। मैं रथी हूँ। मुझे यह ध्यान रखना है कि ये इन्द्रियरूप घोड़े सदा विषयों को चरते ही न रहें। मैं कभी भी हिंसा की वृत्तिवाला नहीं बनूँगा - स्वयं भी आसुर वृत्तियों से अहिंसित होने का प्रयत्न करूँगा। वे प्रभु अपने भक्त की शक्ति बढ़ानेवाले हैं मेरे भी बल को वे क्यों न बढ़ाएँगे?

    इस प्रकार प्रभु का स्मरण हमें प्रेरणा से सम्पन्न करेगा तो क्या हम कभी वासनाओं के शिकार होंगे? नहीं, इस बात की फिर कभी आशंका न होगीं इसी उद्देश्य से मैं 'नृ-मेध' बनूँ। वे प्रभु तो सभी के मित्र हैं मैं भी सभी के साथ मित्रतावाला बनकर सचमुच नृमेध होऊँ। यही व्यापक प्रेम मुझे काम से ऊपर उठा, (आङ्गिरस)= शक्तिशाली बनाएगा। 

    भावार्थ

    मैं प्रभु का स्मरण करते हुए प्रलोभनों से अपने को बचा पाऊँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( वः ) = आप लोग ( ऊती ) = अपनी रक्षा के निमित्त ( अजरं ) = कभी जीर्ण न होने वाले ( प्रहेतारं ) = इन्द्रियों या विद्वानों को उत्तम रीति से प्रेरणा करने हारे, ( अप्रहितम् ) = स्वयं किसी से प्रेरित न होने वाले, स्वतन्त्र, ( आशुम् ) = सर्वव्यापक, अति शीघ्रगामी, ( जेतारं ) = सबके विजेता, उत्कृष्ट ( होतारम् ) = ज्ञान और भोग के दाता ( रथीतमम् ) = सब देहधारियों में सब से श्रेष्ठ, ( अतूर्त्तम् ) = किसी से भी न मारे जाने वाले, अमर, ( तुग्रि - यावृधम् ) = तमोनिवारक, ज्ञान के वर्धक, आत्मा की शरण में ( इत ) = आओ  । आत्मा परमात्मा दोनों पक्षों में समान है ।
     

    टिप्पणी

    २८३ - 'तुग्रयावृधम्' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - नृमेध:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमेश्वरस्य नृपतेश्च गुणा वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः (वः) यूयम् (ऊती) ऊतये रक्षणाय, अव रक्षणे धातोः क्तिन्नन्ताद् ऊति शब्दाच्चतुर्थ्येकवचने ‘सुपां सुलुक्’ अ० ७।१।३९, इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (अजरम्) जरावर्जितम्, जीर्णतारहितं वा (प्रहेतारम्) शुभकर्मसु प्रेरकम्। प्र-पूर्वो हि गतौ वृद्धौ च इति धातोः तृचि रूपम्। (अ-प्रहितम्) स्वयं केनापि अप्रेरितम्, (आशुम्) शीघ्रकारिणम्, न तु व्यर्थमेव कार्याणि लम्बयन्तम्, (जेतारम्) विजयिनम्, (हेतारम्) वर्द्धयितारम्। अत्र हि धातुर्वर्धनार्थो बोध्यः। (रथीतमम्) रंहणशीलानां सूर्यचन्द्रादीनां ब्रह्माण्डरथस्य वा श्रेष्ठं रथिनम् यद्वा श्रेष्ठं रथारोहिणम्। रथशब्दान्मत्वर्थे ‘छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। अ० ५।२।१२२’ वा० इति ई प्रत्ययः। अतिशयेन रथीः रथीतमः। (अतूर्तम्) अतूर्णम्, केनापि अहिंसितम्। तुर्वी हिंसायाम्, क्त प्रत्यये छान्दसं रूपम्। (तुग्रियावृधम्२) तुग्रे अन्ने आकाशे यज्ञे वरिष्ठजने वा भवाः तुग्रियाः, क्रमेण अन्नरसाः, मेघोदकानि वायवो वा, फलसाधनत्वानि, धर्माचाराश्च, तेषां वर्धकम् इन्द्रं परमेश्वरम्, यद्वा तुग्रे राष्ट्रयज्ञे भवाः प्रजाः तुग्रियाः तासां वर्धकम् इन्द्रं राजानम्। ‘तुग्राद् घन्। अ० ४।४।११५’ इति तुग्रशब्दाद् भवार्थे घन् प्रत्ययः. अन्नाकाशयज्ञवरिष्ठेषु तुग्रशब्दः इति काशिकावृत्तिः। तुग्रियान् वर्धयतीति तुग्रियावृत् तम्। पूर्वपदान्तस्य दीर्घश्छान्दसः। (इतः३) स्वाभिमुखं कुरुतेति शेषः ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। तकारस्य रेफस्य चासकृदावृत्तौ, तारस्य त्रिधावृत्तौ, ‘तम, मतू’ इत्यत्र च वृत्त्यनुप्रासः ‘प्रहेता, प्रहित’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ‘हेतारं’ इत्यस्यावृत्तौ यमकम् ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सांसारिकविषयविलासेष्वति प्रवृत्तिं परिहाय विविधगुणगणविशिष्टं परमेश्वरमुपास्य राजानं च प्रजानुकूलं विधायाभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः कार्या ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९९।७, अथ० २०।१०५।३। उभयत्र ‘तुग्रियावृधम्’ इत्यस्य स्थाने ‘तुग्र्यावृधम्’ इति पाठः। २. तुग्रिया इत्युदकनाम, तस्य संवर्धनम्। उदकस्य वर्धयितारमित्यर्थः—इति वि०। तदेव भरतस्वामिसायणयोरभिमतम्। ३. नृमेधः इतो द्युलोकात्, आह्वयतीति वाक्यशेषः—इति वि०। इतः इतोमुखाः, हवामहे इति शेषः—इति भ०। इतः कुरुत—इति सा०। केचित्तु ‘इत ऊती’ इत्यत्र प्रकृतिभावं मत्वा ‘इत गच्छत’ इति इण् धातोर्लोटि मध्यमबहुवचनत्वेन व्याचक्षिरे। तत्तु पदकारस्य न सम्मतम्, पदपाठे ‘इतः ऊती’ इति दर्शनात्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O men, call for your protection, God, Undecaying, Urger, Independent, All-pervading, Conqueror, the Giver of knowledge and enjoyment, the Best Master, Immortal, the Dispeller of ignorance!

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    Meaning

    O men and women of the earth, for your protection and progress follow Indra, unaging, all inspirer and mover, himself unmoved and self-inspired, most dynamic, highest victor, thunderer, master of the chariot of life, inviolable augmenter of strength to victory. (Rg. 8-99-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वः) તમે ઉપાસકો ! (ऊती) તમારી સંપત્તિની રક્ષાને માટે (अजरम्) જરારહિત-સદા એકરસ યુવાન (प्रहेतारम्) પ્રેરિતા-ઉન્નતિના માર્ગે લઈ જનાર, (अप्रहितम्) અન્યથી અપ્રેરિત સ્વશક્તિથી વિદ્યમાન, (आशुम्) વ્યાપનશીલ, નેતામ્-દુષ્ટોનું દમન કરનાર, (होतारं हेतारम्) વર્ધક, (रथितमम्) અત્યંત રથી-જીવોના રમણસ્થાન-સંસારના સ્વામી, (अतूर्तम्) અપ્રતિહત, (तुग्रिया वृधम्) ઉપાસનારસ લેવા યોગ્ય-ઉપાસનારસ આપવાની ભાવનાની વૃદ્ધિ કરનાર પરમાત્માને (इत्) પ્રાપ્ત કરો. (૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે ઉપાસક જનો ! પોતાની રક્ષાને માટે તમે એકરસ યુવા, ઉન્નત માર્ગ પર પ્રેરિત કરનાર, અન્યથી અપ્રેરિત સ્વશક્તિ સંપન્ન, વ્યાપનશીલ, દુષ્ટોનું દમન કરનાર, જીવના કર્મોના જ્ઞાતા, મહાન રથના સ્વામી જીવોનાં રમણ સ્થાન સંસારના સ્વામી, ઉપાસનારસ લેવા યોગ્ય અને આપનારની દેવાની ભાવના અથવા પ્રવૃત્તિના વર્ધક પરમાત્માને પ્રાપ્ત કરો. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اُس کی شرن میں جاؤ!

    Lafzi Maana

    (یہ اجرم پرہیتارم اپرہتم آشُوم جیتارم ہتارم رتھی اتُو اتم تُو گریا وردھم) جو بڑھاپے سے مبّرا ہے، سب کو ترغیب دیتا ہے۔ اُسے کوئی ترغیب دینے والا نہیں ہے، جو متحرک ہے اور سب کو حرکت دیتا ہے، جو سبھی اجسام کے روُحوں کا رتھبان ہے۔ جس کا ناش کوئی نہیں کر سکتا اور اہلِ خانہ کے دل میں اپنے بال بچوں کے لئے بے پناہ محبت اور رحم دلی کو بھرتا ہے، (رُوتی اِت) اپنی رکھشا کے لئے اُس پرمیشور کی شرن میں جاؤ۔

    Tashree

    رتھ شریر کا اِیش وجیتا پریرک سب دُنیا کا ہے، اُس کی شرن میں جاؤ پیارے جو رکھشک ہم سب کا ہے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी सांसारिक विषयविलासात अत्यंत प्रवृत्ती सोडून विविध गुणयुक्त परमेश्वराची उपासना करून व राजाला प्रजेच्या अनुकूल करून अभ्युदय व नि:श्रेयसाची सिद्धी करावी ॥१॥

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    विषय

    परमेश्वराच्या व राजाच्या गुणांचे वर्णन

    शब्दार्थ

    हे मनुष्यानो, (वः) तुम्ही (ऊती) रक्षणासाठी (अजरम्) जो वार्धक्य वा जीर्णव्यापासून दूर अशा (प्रहेतारम्) शुभ कर्म करण्यासाठी प्रेरणा देणारा इंद्र परमेश्वराकडे जा. तुम्ही त्या (अ प्रतिहतम्) अन्य कोणाकडून प्रेरित न होणाऱ्या (म्हणजे जो सर्व शक्तिमान व आत्मनिर्भर आहे) अशा (आशु) शीघ्र कार्य करणाऱ्या म्हणजे व्यर्थचि कार्याला ताटकळत ठेवणाऱ्या आणि (जेतारम्) विजयी (हेतारम्) वृद्धिकारी (रभीकमम्) गतिशील, सूर्य, चंद्र आदी रथांचे वा ब्रह्मांड रूप रथाचे रथी / ईश्वराकडे श्रेष्ठ रथारोही राजाकडे (रक्षणासाठी जा). तुम्ही (अतूर्तम्) ज्याची कोणीही हिंसा करू शकत नाही, अशा (तुप्रिया वृधम्) अन्नात असणार्या रसाचे, आकाशस्त्र मेघजलाचे, वायूचे, यज्ञाद्वारे मिळणारे लाभ देणाऱ्याने, वरिष्ठ जनांच्या धर्माचरणाचे वर्धक अशा इंद्र परमेश्वराला अथवा प्रजाजनांचे उत्कर्ष साधणाऱ्या इंद्र राजाला अभिमुख व्हा, त्याच्या आश्रयास जा.।। १।।

    भावार्थ

    मनुष्यांनी सांसारिक विषय - विलासाविषयी अती प्रवृत्तीचा त्याग केला पाहिजे आणि विविध गुणागार परमेश्वराचा उपासनेद्वारे अनुकूल करावे. तसेच राजाला प्रजेविषयी अनुकूल करून अभ्युदय आणि निःश्रेयस यांची प्राप्ती करावी. ।। १।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ङ्गतफ आणि ङ्गरफ या वर्णांची अनेकदा आवृत्ती असल्यामुळे, तसेच ङ्गहारफची तीनदा आवृत्ती असल्यामुळेच ‘तम’ व ‘मतू’मध्ये वृत्त्यनुप्रास अलंकार आहे. ‘प्रहेता’ ‘प्रहित’मध्ये छेकानुप्रास आणि ‘हेतारं’च्या आवृत्तीमध्ये यमक अलंकार आहे. ।। १।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நீங்கள் மூப்பற்று எதிர்ப்பவனாய் எதிர்ப்பற்றவனாய் வேகனாய் (சத்துருக்களை) அழிப்பவனாய் ரதர்களின் சிரேஷ்டனாய் இம்சையற்றவனாய் சலத்தைச் சிறப்பாக்கும் இந்திரனை ரட்சிப்பதற்கு அழைக்கவும், மரியாதை செய்யவும்.

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