Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 408
    ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - इन्द्रः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    18

    व꣣य꣢मु꣣ त्वा꣡म꣢पूर्व्य स्थू꣣रं꣢꣫ न कच्चि꣣द्भ꣡र꣢न्तोऽव꣣स्य꣡वः꣢ । व꣡ज्रि꣢ञ्चि꣣त्र꣡ꣳ ह꣢वामहे ॥४०८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व꣣य꣢म् । उ꣣ । त्वा꣢म् । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । स्थूर꣢म् । न । कत् । चि꣣त् । भ꣡र꣢꣯न्तः । अ꣣वस्य꣡वः꣢ । व꣡ज्रि꣢꣯न् । चि꣣त्र꣢म् । ह꣣वामहे ॥४०८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयमु त्वामपूर्व्य स्थूरं न कच्चिद्भरन्तोऽवस्यवः । वज्रिञ्चित्रꣳ हवामहे ॥४०८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । उ । त्वाम् । अपूर्व्य । अ । पूर्व्य । स्थूरम् । न । कत् । चित् । भरन्तः । अवस्यवः । वज्रिन् । चित्रम् । हवामहे ॥४०८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 408
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर, आचार्य वा वैद्य का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    हे (अपूर्व्य) अपूर्व गुण-कर्म-स्वभाववाले, (वज्रिन्) शस्त्रधारी के समान दोषनाशक परमेश्वर आचार्य वा वैद्यराज ! (कच्चित्) किसी (स्थूरं न) स्थूल गढ़े आदि के समान (स्थूरम्) मन, चक्षु आदि के स्थूल छिद्र को (भरन्तः) भरना चाहते हुए (अवस्यवः) रक्षा के इच्छुक (वयम्) हम (चित्रम्) पूज्य (त्वाम्) आपको (हवामहे) पुकारते हैं ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे विशाल निर्जल अन्धे कुएँ आदि को भरना चाहते हुए लोग सहायक मित्रों को बुलाते हैं, वैसे ही मन, चक्षु आदियों के रोगरूप या अशक्तिरूप छिद्र को भरने के लिए परमेश्वर, आचार्य वा वैद्य की सहायता पानी चाहिए ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र का महत्त्व वर्णित होने से, उसकी स्तुति होने से, उसका आह्वान होने से और उससे बल-धन आदि की याचना होने से तथा इन्द्र नाम से राजा, आचार्य, वैद्य आदि के भी कर्तव्य का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में छठा खण्ड समाप्त ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (अपूर्व्य वज्रिन्) पूर्व—पुरातनकाल में होने वाले श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ ओजस्विन् परमात्मन्! (कत्-चित्-स्थूरं न भरन्तः) किसी कुठले को यवादि अन्न से जैसे भरते हैं “तत् स्थूर् यवाचितम् स्थूरि भवति क्षेमस्य रूपम्” [जै॰ २.२०३] वैसे उपासना से भरते हुए (वयम्-अवस्यवः) हम रक्षा चाहने वाले (त्वां चित्रं हवामहे) तुझ चयनीय दर्शनीय को आमन्त्रित करते हैं।

    भावार्थ

    जैसे संसार में समय पर प्राणरक्षा चाहते हुए अथवा समय पर अन्न पाने के लिये यव आदि अन्न से किसी कुठले को भरते हैं, वैसे दर्शनीय सर्वश्रेष्ठ ओजस्वी परमात्मा को हम रक्षा चाहने वाले उपासक उपासना से भरते हुए अवसर पर रक्षा करने वाले को आमन्त्रित करते हैं, वह अवश्य रक्षा करेगा॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—सौभरिः (परमात्मा को अपने अन्दर भरित करने वाला उपासक)॥<br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वैराग्य

    पदार्थ

    प्रभु के साथ मेल के लिएए चित्तवृत्तिनिरोध आवश्यक है। चित्तवृत्तिनिरोध का ही नाम ‘योग’ हो गया है। इस योग के प्रमुख साधन 'अभ्यास और वैराग्य' हैं। अभ्यास का उल्लेख गत मन्त्र में हुआ है। प्रस्तुत मन्त्र में 'वैराग्य' का वर्णन करते हैं। प्रकृति के प्रति राग का न होना ही वैराग्य हे। यह प्रकृति के प्रति वैराग्य तभी होगा जब हम प्रभु व प्रकृति का विवेक करेंगे। बिना विवेक के वैराग्य सम्भव नहीं। इसी विवेक को इस रूप में कहते हैं कि हे (अपूर्व्यम्) = न पूरण करने योग्य प्रभो! (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (त्वाम्) = आपको (हवामहे) = पुकारते हैं। प्रभु सब प्रकार से पूर्ण होने से 'अपूर्व्य' हैं। प्रभु की प्राप्ति होने पर जीव सन्तोष व तृप्ति का अनुभव करता है। प्रभु की प्राप्ति में ही पूर्णता है।

    (स्थूरम् भरन्तः कच्चित् न) = क्या हम उस स्थिर अवलम्बनभूत प्रभु का अपने अन्दर भरण न करेंगे! प्रभु ही एक स्थिर अवलम्बन हैं। प्रभु को आश्रय बनानेवाला कभी भटकता नहीं।

    (अवस्यवः) = रक्षा चाहते हुए हम आपको पुकारते हैं। प्रकृति की ओर जाकर तो मनुष्य उसके पाँव तले कुचला जाता है। प्रभु की शरण में रहने पर वह प्रकृति का शिकार नहीं होता। प्रभु के उपासक के प्रकृति चरण चाटती है और अपने उपासक को वह खा जाती है। ‘ओ३म' शब्द की रचना में अ [परमात्मा] की जाकर [उ] हम जीव उसके मस्तक पर होते हैं, और [म्] प्रकृति की ओर जाने पर उसके पाँव के तले रौंदे जाते हैं।

    (वज्रिन्) = हे प्रभो! आप स्वाभाविक गतिवाले हैं [वज् गतौ] और वह प्रकृति तो 'तम' [inert, गतिशून्य] है। आपको प्राप्त करने पर मैं गति व जीवन को प्राप्त करता हूँ तो प्रकृति की ओर जाकर मैं गतिशून्यता व मृत्यु का भागी होता हूँ।

    (चित्रम्) = आप [चित्र] ज्ञान के देनेवाले हैं और प्रकृति मेरे ज्ञान को नष्ट कर मुझे अन्धा बनानेवाली है।

    एवं प्रकृति और प्रभु में विवेक करनेवाला व्यक्ति कभी भी प्रकृति में आसक्त नहीं हो सकता। और यह विवेक-जनित वैराग्य उसे परमेश्वर की प्राप्ति के योग्य बनाता है।

    भावार्थ

    मैं प्रभु और प्रकृति में विवेक करूँ। १. प्रभु प्राप्ति में तृप्ति है प्रकृति में अतृप्ति। २. प्रकृति का अवलम्बन अस्थिर है, प्रभु का स्थिर। ३. प्रभु की ओर आने में रक्षा है, प्रकृति की ओर जाने में विनाश, ४. प्रभु - प्राप्ति में जीवन है - प्रकृति में मृत्यु, ५. प्रभु प्रकाशमय हैं, प्रकृति अन्धकारमय । इस विवेक के द्वारा मैं प्रकृति के प्रति अनासक्त बनूँ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे वज्रिन् ! हे ( अपूर्व्य ) = अपूर्व ! सबसे आदि में विद्यमान ( वयं ) = हम लोग ( अवस्यव:) = अपनी रक्षा चाहते हारे, ( स्थूरं न )
    = गुणों में अधिक स्थितिमान् पुरुष को जिस प्रकार ( कश्चित् ) = कोई प्रजा लोग भरण पोषण करते हैं उसी प्रकार ( चित्रं ) = पूजायोग्य ( त्वां ) = तुझ को ( भरन्तः ) = भरण या धारण करते हुए ( हवामहे ) = हम तेरी स्तुति करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - सौभरि:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - ककुप्।

    स्वरः - ऋषभः। 

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वर आचार्यो भिषग् वाऽऽहूयते।

    पदार्थः

    हे (अपूर्व्य२) अपूर्वगुणकर्मस्वभाव, (वज्रिन्) शस्त्रधर इव दोषनाशक परमेश, आचार्य, भिषग् वा ! (कच्चित्) किमपि (स्थूरं३ न) स्थूलं विशालं गर्तादिकम् इव (स्थूरम्) स्थूलं मनश्चक्षुरादीनां छिद्रम् (भरन्तः) पूरयन्तः, पूरयितुमिच्छन्तः सन्तः, (अवस्यवः) त्वद्रक्षणेच्छवः (वयम् चित्रम्) चायनीयं पूज्यम् (त्वाम्) इन्द्रनामानं जगदीशम्, आचार्यं, भिषग्वरं वा (हवामहे) आह्वयामः ॥ उक्तं चान्यत्र “यन्मे॑ छि॒द्रं चक्षु॑षो॒ हृद॑यस्य॒ मन॑सो॒ वाति॑तृण्णं॒ बृह॒स्पति॑र्मे॒ तद्द॑धातु।” य–० ३६।२ इति ॥१०॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१०॥

    भावार्थः

    यथा विशालं निर्जलम् अन्धकूपादिकम् पूरयितुमिच्छन्तो जनाः सहायकं सखिवर्गम् आह्वयन्ति तथैव मनश्चक्षुरादीनां रोगरूपमशक्तिरूपं च विशालं छिद्रं पूरयितुं परमेश्वरस्य गुरोर्वैद्यस्य च साहाय्यं प्राप्तव्यम् ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य महत्त्ववर्णनात्, तत्स्तवनात्, तदाह्वानात्, ततो बलधनादिप्रार्थनाद्, इन्द्रनाम्ना नृपत्याचार्यवैद्यादीनां चापि कर्तव्यवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति ज्ञेयम् ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके प्रथमार्द्धे द्वितीया दशतिः। इति चतुर्थेऽध्याये षष्ठः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।२१।१, ऋषिः सोभरिः काण्वः। अ० २०।१४।१ ऋषिः सोभरिः। उभयत्र ‘वज्रिन्’ इत्यत्र ‘वाजे’ इति पाठः। साम० ७०८। २. अविद्यमानः पूर्वो यस्मात् सः अपूर्वः। अपूर्व एव अपूर्व्यः। स्वार्थिको य प्रत्ययः—इति वि०। ३. स्थूरं न कच्चित् स्थूलमिव किञ्चित् कुसूलादिकं यवादिभिः त्वां भरन्तः पूरयन्तः पूरयिष्यन्तः सोमेन—इति भ०। स्थूरं न यथा भरन्तो व्रीह्यादिभिः गृहं पूरयन्तो जनाः स्थूरं स्थूलं गुणाधिकं कच्चित् कञ्चिन्मानवं यथा ह्वयन्ति तद्वत्—इति सा०।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mighty, Most Primordial God, we longing for protection, serving Thee, Adorable, sing Thy praise, just as one nourishes a virtuous man!

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    O lord sublime, eternal, first and most excellent, we, bearing almost nothing substantial but praying for protection and advancement, invoke you in our battle of life for food, energy, knowledge and ultimate victory. (Rg. 8-21-1)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अपूर्व्य वज्रिन्) પૂર્વ-પુરાતનકાળમાં થયેલા શ્રેષ્ઠોમાં પણ શ્રેષ્ઠ ઓજસ્વિન્ પરમાત્મન્ ! (कत चित् स्थूरं न भरन्तः) જેમ કોઈ કોઠારમાં-કોઠીમાં જવ આદિ અનાજ ભરે છે, તેમ ઉપાસનારસથી ભરતાં (वयं अवस्यवः) અમે રક્ષા ચાહનાર ત્વાં ચિત્ર વામદે-તારા ચયનીય દર્શનીયને આમંત્રિત કરીએ છીએ. (૧૦)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જેમ સંસારમાં સમયપર પ્રાણરક્ષા ચાહતા અથવા સમય પર (જરૂર પડતાં) અનાજ મેળવવા જવ આદિ અનાજને કોઠી-કોઠારમાં ભરે છે, તેમ દર્શનીય, સર્વશ્રેષ્ઠ, ઓજસ્વી પરમાત્માને અમે રક્ષા ચાહનારા ઉપાસકો ઉપાસનાથી ભરીને સમય પર રક્ષા કરનારને આમંત્રિત કરીએ છીએ, તે અવશ્ય રક્ષા કરશે. (૧૦)

    इस भाष्य को एडिट करें

    उर्दू (1)

    Mazmoon

    شرن کی اوٹ گہی!

    Lafzi Maana

    جیسے اَنّ، دھن چاہنے والے دُنیاوی آدمی دولت مند کی تعریف کرتے ہیں، ویسے ہم آپ کے بھگت، عارف لوگ، بے بہا طاقتوں کے مخزن پاپیوں کو اپنے عدل و انصاف کے بجر سے رُلانے والے پربُھو! آپ کے لئے پریم بھگتی کی نذر لاتے ہوئے اپنی رکھشا کے لئے آپ کا آواہن کرتے ہیں۔

    Tashree

    دھن مال سمپد کے لئے جاتا دھنی کے آدمی، ویسے ہی رکھشا کو چاہتے شرن آئے آپ کی۔

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे विशाल निर्जल अंधारयुक्त विहिरीला भरू इच्छिणारे लोक मदत करणाऱ्या मित्रांना आमंत्रित करतात, तसेच मन, चक्षु इत्यादींचे रोगरूपी किंवा निर्बलरूपी छिद्रे भरण्यासाठी परमेश्वर, आचार्य किंवा वैद्य यांचे साह्य घेतले पाहिजे. ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्राचे महत्त्व वर्णित असल्यामुळे व त्याच्याकडून बल-धन इत्यादींची याचना असल्यामुळे व इंद्र नावाने राजा, आचार्य, वैद्य इत्यादींचे कर्तव्य वर्णन असल्यामुळे, या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

    इस भाष्य को एडिट करें

    तमिल (1)

    Word Meaning

    (வச்சிராயுதமுள்ளவனே)! உன்னை நாடும் நாங்கள் அதிசய வடிவமான உன்னையே ரட்சை நாடி நிலைப் பொருளை நாடுவதுபோல் அழைக்கிறோம்.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top