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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 457
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अष्टिः
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
12
त्रि꣡क꣢द्रुकेषु महि꣣षो꣡ यवा꣢꣯शिरं तुविशु꣣ष्म꣢स्तृ꣣म्प꣡त्सोम꣢꣯मपिब꣣द्वि꣡ष्णु꣢ना सु꣣तं꣡ य꣢थाव꣣श꣢म् । स꣡ ईं꣢ ममाद꣣ म꣢हि꣣ क꣢र्म꣣ क꣡र्त्त꣢वे म꣣हा꣢मु꣣रु꣡ꣳ सैन꣢꣯ꣳ सश्चद्दे꣣वो꣢ दे꣣व꣢ꣳ स꣣त्य꣡ इन्दुः꣢꣯ स꣣त्य꣡मिन्द्र꣢꣯म् ॥४५७॥
स्वर सहित पद पाठत्रि꣡क꣢꣯द्रुकेषु । त्रि । क꣣द्रुकेषु । महिषः꣢ । य꣡वा꣢꣯शिरम् । य꣡व꣢꣯ । आ꣣शिरम् । तुविशुष्मः꣢ । तु꣣वि । शुष्मः꣢ । तृ꣣म्प꣢त् । सो꣡म꣢꣯म् । अ꣣पिबत् । वि꣡ष्णु꣢꣯ना । सु꣣त꣢म् । य꣣थावश꣢म् । य꣣था । वश꣢म् । सः । ई꣣म् । ममाद । म꣡हि꣢꣯ । क꣡र्म꣢꣯ । क꣡र्त्त꣢꣯वे । म꣣हा꣢म् । उ꣣रु꣢म् । स । ए꣣नम् । सश्चत् । देवः꣢ । दे꣣व꣢म् । स꣣त्यः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । स꣣त्य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् ॥४५७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिकद्रुकेषु महिषो यवाशिरं तुविशुष्मस्तृम्पत्सोममपिबद्विष्णुना सुतं यथावशम् । स ईं ममाद महि कर्म कर्त्तवे महामुरुꣳ सैनꣳ सश्चद्देवो देवꣳ सत्य इन्दुः सत्यमिन्द्रम् ॥४५७॥
स्वर रहित पद पाठ
त्रिकद्रुकेषु । त्रि । कद्रुकेषु । महिषः । यवाशिरम् । यव । आशिरम् । तुविशुष्मः । तुवि । शुष्मः । तृम्पत् । सोमम् । अपिबत् । विष्णुना । सुतम् । यथावशम् । यथा । वशम् । सः । ईम् । ममाद । महि । कर्म । कर्त्तवे । महाम् । उरुम् । स । एनम् । सश्चत् । देवः । देवम् । सत्यः । इन्दुः । सत्यम् । इन्द्रम् ॥४५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 457
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में सूर्य और चन्द्रमा के सम्बन्ध-वर्णन-पूर्वक गुरु के समीप से ज्ञानरसरूप सोम के पान का विषय है।
पदार्थ
प्रथम—सूर्य-चन्द्र के पक्ष में। (त्रिकद्रुकेषु) वायु, बिजली और बादल रूप तीन पदार्थों से युक्त अन्तरिक्षभागों में (महिषः) महान् (तुविशुष्मः) बहुत बलवान् सूर्यरूप इन्द्र (यवाशिरम्) संयुक्त-वियुक्त होनेवाली सूर्यकिरणों से पूर्णता को प्राप्त होनेवाले (सोमम्) चन्द्रमा को (तृम्पत्) तृप्ति प्रदान करता है, और चन्द्रमा (विष्णुना) उस व्याप्तिमान् सूर्य से (सुतम्) उत्पन्न किये किरणसमूह को (यथावशम्) यथेच्छ (अपिबत्) पान करता है। (सः) वह चन्द्रमा में प्रविष्ट सूर्यकिरणसमूह (ईम्) इस चन्द्रमा को (महि) महान् (कर्म) प्राण-प्रदान, चान्द्र मासों के निर्माण आदि कार्य (कर्तवे) करने के लिए (ममाद) हर्षित करता है। (सः) वह (देवः) प्रकाशमान (सत्यः) सत्य नियमवाला (इन्दुः) चन्द्रमा (एनम्) इस (देवम्) प्रकाशक (सत्यम्) सत्य नियमोंवाले (इन्द्रम्) सूर्य का (सश्चत्) सेवन करता रहता है ॥ द्वितीय—गुरु-शिष्य के पक्ष में। (त्रिकद्रुकेषु) ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड रूप तीन सवनोंवाले शिक्षायज्ञों में (महिषः) महान् (तुविशुष्मः) विद्यार्थी का अतिशय प्रतिभा-बल से युक्त आत्मा (तृम्पत्) तृप्ति लाभ करता हुआ (विष्णुना) व्याप्त विद्यावाले आचार्य से (सुतम्) अभिषुत, (यवाशिरम्) व्रतपालनरूप कर्मों से परिपक्व (सोमम्) ज्ञानरस को (यथावशम्) यथेच्छ (अपिबत्) पान करता है। (सः) पान किया हुआ वह ज्ञान-रस (महाम्) विद्या में महान् (उरुम्) विशाल हृष्टपुष्ट शरीरवाले (ईम्) विद्यार्थी के इस आत्मा को (महि) महान् (कर्म) समाजसुधार आदि कर्म (कर्तवे) करने के लिए (ममाद) हर्षित करता है। (देवः) दिव्यगुणयुक्त (सत्यः) सत्य (सः) वह (इन्दुः) विद्यारस (देवम्) दिव्य गुणवाले (सत्यम्) सत्यप्रिय (इन्द्रम्) आत्मा को (सश्चत्) निरन्तर प्राप्त होता रहता है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘देवो, देवं’ में छेकानुप्रास और ‘सत्य, सत्य’ में यमक है ॥१॥
भावार्थ
विद्यार्थी का आत्मा गुरु के पास से ज्ञानरस का पान करके वैसे ही महान् कर्म करने योग्य हो जाता है, जैसे चन्द्रमा सूर्य के पास से प्रकाश का पान कर प्राणप्रदान आदि महान् कर्मों को करता है ॥१॥
पदार्थ
(त्रिकद्रुकेषु) तीनों—परम मध्यम अवम पृथिवियों में “इयं पृथिवी वै कद्रूः” [तै॰ सं॰ ६.१.६.१] “परमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यामवमस्यामुत” [ऋ॰ १.१०८.१०] लोकत्रय में—त्रिलोकी में (महिषः) महान् इन्द्र परमात्मा “महिषो महन्नाम” [निघं॰ ३.३] (तुविशुष्मः) बहुत बलवान् “तुवि बहुनाम” [निघं॰ ३.१] “शुष्मं बलनाम” [निघं॰ २.९] (विष्णुना यथावशं सुतम्) ओज से—आत्मभाव से यथाश्रद्ध—श्रद्धानुसार निष्पादित “ओजो विष्णुः” [काठ॰ २१.१] (यवाशिरम्) पाप द्वेष प्रवृत्ति को पृथक् करने वाली भावनाओं से युक्त “यव यवयास्य दुघा द्वेषांसि” [तै॰ आ॰ ६.९.२] “आशीराश्रयणात्” [निरु॰ ६.८] (सोमम्) उपासनारस को (अपिबत्) पान करता है—स्वीकार करता है (तृम्पत्) तृप्त होता है—कृपा करता है “तृप तृप्तौ” (सः-ईम्) वह परमात्मा (महि कर्म कर्त्तवे) अभीष्ट कर्म—कृपा या सुखप्रदान कर्म करने के लिये “इषित कर्म क्रियते” [तै॰ सं॰ ६.४.६२] (ममाद) प्रसन्न हो जाता है (सः) वह (सत्यः-इन्दुः-देवः) सच्चा या नित्य इन्दुमान्—सोमवान्—उपासनारस वाला “मतुब्लोपश्छान्दसः” देवस्वरूप में आया मुमुक्षु—जीवन्मुक्त बना उपासक (महाम्-उरुम्) महान् अनन्त (एनं सत्यम्-इन्द्रं देवम्) इस सत्यस्वरूप या नित्य ऐश्वर्यवान् परमात्मदेव को (सश्चत्) प्राप्त हो जाता है—समागम करता है “सश्चति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।
भावार्थ
लोकत्रय या त्रिलोकी में विराजमान महान् तथा बलवानों से भी बलवान् परमात्मा उपासक के आत्मभाव से निष्पन्न, श्रद्धापूर्वक पापद्वेषविनाशनभावनायुक्त उपासनारस को स्वीकार करता और कृपा एवं सुखप्रदानकर्म करने को प्रसन्न हो जाता है तब यह उपासनारस का समर्पणकर्ता सत्यदेव—मुमुक्षु जीवन्मुक्त बनकर—उस महान् अनन्त नित्य परमात्मदेव को प्राप्त होता है, समागम करता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—गृत्समदः (मेधावी हर्षालु उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—अत्यष्टिः॥<br>
विषय
महान् कर्म के लिए
पदार्थ
(त्रिकद्गुकेशु?) = तीनों आह्वानों के समय पर [कदि= आह्वाने], अर्थात् प्रातः, मध्याह्ण और सायम् (महिष:) = उस प्रभु की पूजा करनेवाला [मह पूजायाम् ] और (अतएव तुविशुष्म:) = बहुत शक्तिवाला (यवाशिरम्) = सब कर्मेन्द्रियों को पवित्र करनेवाले (सोमम्) = सोम को (तृम्पत् अपिबत्) = तृप्त होता हुआ अर्थात् खूब पीता है। यव शब्द कर्मेन्द्रियों का वाचक है। यु मिश्रण और अमिश्रण-संयोग और विभाग; इसे करनेवाली ये कर्मेन्द्रियाँ ही हैं। इन कर्मेन्द्रियों के मल को [शृ हिंसायाम्] नष्ट करने से यह सोम ‘यवाशिर' कहलाता है। स्थानान्तर में इसका विशेषण ‘गवाशिर' भी है=ज्ञानेन्द्रियों के मलों को दूर करनेवाला; (दध्याशिरम्) = धारणशक्ति की कमी को दूर करनेवाला। यह सोम (विष्णुनासुतम्) = प्रभु से उत्पन्न किया गया है- प्रभु की वस्तुतः जीव को यह महान् भेंट है। इसका अपव्यय तो स्पष्ट प्रभु का निरादर है। इस सोम का पान (यथाशवम्) = उसी अनुपात में होता है जिस अनुपात में हम काम-क्रोधादि वासनाओं को वश में कर पाते हैं।
जो व्यक्ति इस सोम का पान करता है (सः) = वह (ईम्) निश्चय से १. (ममाद) = मदयुक्त प्रसन्न होता है। इसके जीवन में एक उल्लास होता है, २. यह व्यक्ति (महि कर्म) = महान् कर्म को (कर्तवे) = करने के लिए समर्थ होता है। इसका जीवन खाने-पीने व सोने में ही समाप्त नहीं हो जाता, ३. (सः) = वह (एनम्) = इस (महान्) = महान् (उरुम) = विशाल प्रभु को (सश्चद्) = प्राप्त होता है। महान् कर्म करनेवाला ही तो प्रभु को पाता है। खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ के सिद्धान्तवाला तो कभी भी उस प्रभु को पाने का अधिकारी नहीं होता। ४. (देव: देवम्) = यह सोमपान करनेवाला देव बनकर उस देव को पाता है। (सत्यः सत्यम्) = सत्य बनकर उस सत्यस्वरूप के समीप पहुँचता है। (इन्दुः इन्द्रम्) = शक्तिशाली बनकर उस शक्ति के देवता का उपासक होता है। 'इन्दु' शब्द शरीर की शक्ति का संकेत कर रहा है। 'सत्य' मन की पवित्रता का [मन: सत्येन शुध्यति] तथा 'देव' विद्वता का [विद्वांसो हि देवाः]।
यह व्यक्ति ‘महिष:' होने से 'गृत्स' है [गृणाति] प्रभु का उपासक है। [ममाद] उल्लासमय जीवनवाला होने से ‘मद' है [मद्यति] । क्रियाशील होने से शौनक है [शुन गतौ]=महि कर्म कर्तवे। एवं इस मन्त्र का ऋषि ‘गृत्समद शौनक' है।
भावार्थ
हम भी ‘गृत्समद शौनक' बनने के लिए प्रयत्नशील हों।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( महिषः ) = बड़ा पूजनीय, ( तुविशुष्मः ) = बड़ा बलशाली, ( तृम्पत् ) = सबको तृप्त करने हारा आत्मा ( त्रिकद्रुकेषु ) = तीनों लोकों में ( विष्णुना ) = सर्वव्यापक परमेश्वर से ( सुतं ) = प्रेरित या उत्पादित, ( यवा शिरं ) = यव आदि अन्नों से मिले हुए ( सोमं ) = ओषधिरसों के समान ज्ञान और आनन्दको ( यथावशं ) = अपनी शक्ति के अनुसार ( अपिबद् ) = पान करता है । ( स ई ) = वही इस प्रकार ( महि कर्म ) = बड़े २ काम ( कर्त्तवे ) = करने के लिये भी ( ममाद ) = सदा प्रसन्नचित्त रहता है। वह ( महाम् उरु सैनं ) = बड़े भारी, नाना दिशा में, नाना प्रकार की शक्तिरूप सेनाओ के स्वामी विश्वक्सेन ( देवं ) = परमात्म देव को ( देवः ) = प्रकाशमान, ज्ञानवान् होकर ( सश्चत् ) = प्राप्त होता है । वह ( सत्यः इन्दुः ) = सच्चा, सब का आह्लाद करने हारा, या ऐश्वर्य और विभूतिमान् होकर ( सत्यम् ) = सत्यस्वरूप ( इन्द्रम् ) = परमेश्वर्यवान् परमेश्वर को भी प्राप्त होता है।
ताण्डयमहाब्राह्मणे – “स एतान् स्तोमान् अपश्यत् ज्योतिर्गौरायुरिति । इमे वै लोकाः स्तोमाः । अयमेव ज्योतिरयम्मध्यमो गौरसावुत्तम आयुः । ऋग्भाष्ये दयानन्दस्तु 'त्रिकद्रुकेषु लोकेषु' ।
टिप्पणी
४५७–तृपत्सोम,’ ‘यथावशत् ' 'सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - गृत्समदः।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अत्यष्टिः।
स्वरः - गांधार:।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्राद्ये मन्त्रे सूर्यचन्द्रसम्बन्धवर्णनपूर्वकं गुरोः सकाशाज्ज्ञानरसरूपं सोमं पातुमाह।
पदार्थः
प्रथमः—सूर्यचन्द्रपरः। (त्रिकद्रुकेषु२) त्रीणि कद्रुकाणि वायुविद्युत्पर्जन्याख्यानि येषु तेषु अन्तरिक्षभागेषु (महिषः) महान्। महिष इति महन्नाम। निघं० ३।३। (तुविशुष्मः) बहुबलः सूर्यरूपः इन्द्रः। तुवि इति बहुनाम। निघं० ३।१। शुष्म इति बलनाम। निघं० २।९। (यवाशिरम्) यवैः संयोगवियोगं प्राप्तैः सूर्यकिरणैः आशीः परिपाकः पूर्णता यस्य तम् (सोमम्) चन्द्रमसम् (तृम्पत्) तर्पयति। तृम्प तृप्तौ, तुदादिः। चन्द्रमाश्च (विष्णुना) व्याप्तिमता सूर्येण (सुतम्) उत्पादितं किरणसमूहम् (यथावशम्) यथेच्छम्। वशः अभिलाषः। वश कान्तौ। (अपिबत्) पिबति। (सः) चन्द्रमसं प्रविष्टः सूर्यकिरणसमूहः (महाम्) गुणैर्महान्तम् (उरुम्) विशालम् (ईम्) एनं चन्द्रमसम्। ईम् एनम्। निरु० १०।४५। (महि) महत् (कर्म) प्रकाशनप्राणप्रदानचान्द्रमासनिर्माणादिकं कार्यम् (कर्तवे) कर्तुम् (ममाद) हर्षयति। (सः) असौ (देवः) प्रकाशमानः (सत्यः) सत्यनियमः (इन्दुः) चन्द्रमाः (एनम्) इमम् (देवम्) प्रकाशकम् (सत्यम्) सत्यनियमम् (इन्द्रम्) सूर्यम् (सश्चत्) सेवते ॥३ अथ द्वितीयः—गुरुशिष्यपरः। (त्रिकद्रुकेषु) त्रीणि कद्रुकाणि सवनानि ज्ञानकर्मोपासनाकाण्डरूपाणि येषु तेषु शिक्षायज्ञेषु (महिषः) महान्, (तुविशुष्मः) विद्यार्थिनः बहुप्रतिभाबलः आत्मा (तृम्पत्) तृप्यन् (विष्णुना) व्याप्तविद्येन आचार्येण। वेवेष्टि व्याप्नोति सर्वा विद्याः सर्वाणि शास्त्राणि वा यः स विष्णुः आचार्यः। (सुतम्) अभिषुतम्, (यवाशिरम्) यवैः व्रतपालनरूपैः कर्मभिः आशिरम् पक्वम्। यवाः कर्माणि, यु मिश्रणामिश्रणयोः, आशिर् श्रीञ् पाके। (सोमम्) ज्ञानरसम् (यथावशम्) यथेच्छम् (अपिबत्) पिबति। (सः) पीतः ज्ञानरसः (महाम्) विद्यया महान्तम् (उरुम्) विशालहृष्टपुष्टशरीरम् (ईम्) एनं विद्यार्थिनः आत्मानम् (महि) महत् (कर्म) समाजसुधारादिकार्यम् (कर्तवे) कर्तुम् (ममाद) हर्षयति। (सत्यः) अवितथः (देवः) दिव्यगुणः (सः) असौ (इन्द्रः) विद्यारसः (देवम्) दिव्यगुणम्, (सत्यम्) सत्यप्रियम् (इन्द्रम्) आत्मानम् (सश्चत्) निरन्तरं प्राप्नोति। सश्चतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। सैनम् इत्यत्र ‘सः एनम्’ इत स्थिते ‘सोऽचि लोपे चेत् पादपूरणम्’। अ० ६।१।१३४ इत्यनेन सुलोपे वृद्धिरेकादेशः ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘देवो, देवं’ इत्यत्र छेकानुप्रासः। ‘सत्य, सत्य’ इति यमकम् ॥१॥
भावार्थः
छात्रस्यात्मा गुरोः सकाशाज्ज्ञानरसं पीत्वा तथैव महान्ति कर्माणि कर्तुं योग्यो जायते यथा चन्द्रः सूर्यस्य सकाशात् प्रकाशं पीत्वा प्राणप्रदानादीनि महान्ति कर्माणि करोति ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० २।२२।१, अथ० २०।९५।१। उभयत्र ‘तृम्पत्’, ‘सत्य इन्दुः सत्यमिन्द्रम्’ अस्य स्थाने क्रमेण ‘तृपत्’, ‘सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः’ इति पाठः। साम० १४८६। २. त्रिकद्रुकेषु ज्योतिर्गौरायुरित्येतन्नामकेषु अभिप्लाविकेष्वहःसु—इति सा०। अत्र कदि धातोरौणादिकः क्रुन् प्रत्ययः, पुनः समासान्तः कप् च—इति ऋ० १।३२।३ भाष्ये द०। कदि वैक्लव्ये, भ्वादिः। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं सूर्यचन्द्रविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
The great and strong soul, in its three stages, enjoys to its fill the supreme felicity produced by God through Yajna, and is satiated therewith. The same soul, always remains happy for the performance of mighty deeds. The soul through its knowledge, attains to Great, Vast, Mighty God. The true, supreme soul, reaches the virtuous God.
Translator Comment
$ Three Stages of the soul are its stages of जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति i.e., Waking, sleeping and profound repose.
Meaning
The great and powerful sun drinks up the soma, essence of vital juices reinforced with herbal elixir, matured in three containers, i. e. , the earth, the sky and the heaven of light, and distilled by light and wind while it shines and energises the essences. He who delights in energising this sun, greatest of the great in nature, to do great things, who blesses and continues to bless this blazing power of light is the eternal, ever true, self-refulgent Lord Supreme, blissful as the moon. And he who would love to do great things vast and worthy of the great, he, true and bright as the moon, should serve and meditate on this lord of unbounded light and energy. (Rg. 2-22-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्रिकद्रुकेषु) ત્રણેય - પરમ, મધ્ય અને અવર પૃથિવીઓમાં લોકત્રયમાં-ત્રિલોકીમાં (महिषः) મહાન ઇન્દ્ર પરમાત્મા (तुविशुष्मः) અત્યંત બળવાન (विष्णुना यथावशं सुतम्) ઓજથી-આત્મભાવથી શ્રદ્ધાનુસાર નિષ્પાદિત (यवाशिरम्) પાપ દ્વેષ પ્રવૃત્તિઓને દૂર કરનારી ભાવનાઓથી યુક્ત (सोमम्) ઉપાસનારસનું (अपिबत्) પાન કરે છે-સ્વીકાર કરે છે (तृम्पत्) તૃપ્ત થાય છે-કૃપા કરે છે (सः ईम्) તે પરમાત્મા (महि कर्म कर्त्तवे) અભીષ્ટ કર્મ-કૃપા અથવા સુખ પ્રદાન કર્મ કરવા માટે (ममाद) પ્રસન્ન બની જાય છે (सः) તે (सत्यः इन्दुः देवः) સત્ય અથવા નિત્ય ઇન્દ્રમાન-સોમવાન-ઉપાસનારસવાળા દેવસ્વરૂપમાં પહોંચેલા મુમુક્ષુ-જીવનમુક્ત બનેલ ઉપાસક (महाम् उरुम्) મહાન અનન્ત (एनं सत्यम् इन्द्र देवम्) એ સત્ય સ્વરૂપ અર્થાત્ નિત્ય ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મ દેવને (सश्चत्) પ્રાપ્ત કરે છે-સમાગમ કરે છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : લોકત્રય અર્થાત્ ત્રિલોકમાં વિરાજમાન, મહાન તથા બળવાનોથી પણ બળવાન પરમાત્મા ઉપાસકના આત્મભાવથી નિષ્પન્ન, શ્રદ્ધાપૂર્વક, પાપ-દ્વેષ વિનાશક ભાવનાયુક્ત ઉપાસનારસના રસનો સ્વીકાર કરીને કૃપા તથા સુખપ્રદાન કર્મ કરવા માટે પ્રસન્ન બની જાય છે, ત્યારે એ ઉપાસનારસના સમર્પણકર્તા સત્યદેવ-મુમુક્ષુ જીવનમુક્ત બનીને-તે મહાન, અનન્ત, નિત્ય પરમાત્મદેવને પ્રાપ્ત થાય છે, સમાગમ કરે છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
اُپاسنا آنند میں مد مست آتما پرم آتما کا سما گم کر لیتا ہے!
Lafzi Maana
زمین کے تین حصص جل، تھل اور پہاڑ، جسم خاکی کے تین حصص شریر، من اور آتما تتھا جیوتی گئو اور آیو اِن سب کو بھوگتے ہوئے انسان میں وِشنو پرماتما کی کرپا سے حاصل اُپاسنا بھگتی رس کو مہا بلوان پرمیشور سویکار کر پرسّن ہو جاتا ہے، جیسے کہ جو یا چاول سے بنائی ہوئی لذیذ کھیر سے کوئی مہا پُرش خوش ہو کر دیالو ہو جاتا ہے، ویسے ہی وہ آنند کند بھگوان دیالُو ہو کر اپنے رحم کرم سے یعنی امرت دھام کے خواہشمند عارف کو اپنا سما گم بخشیش کرتا ہے۔
Tashree
بھگتی میں بھگوان کی لگ جاتا جب یہ آتما، اُس کو کر سویکار اپنا تا اُسے پرماتما۔
मराठी (2)
भावार्थ
विद्यार्थ्याचा आत्मा गुरूजवळ ज्ञानरसाचे पान करून महान कर्म करण्यायोग्य होतो. जसे चंद्र सूर्याजवळून प्रकाशाचे पान करून प्राणप्रदान इत्यादी महान कर्मांना करतो ॥१॥
विषय
पहिल्या मंत्रात सूर्य, चंद्रविषयी वर्णन, नंतर गुरूकडून ज्ञान रथरूप सोम पानाविषयी कथन -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (सूर्य चंद्र पक्ष) (त्रिकद्रुकेषु) वायू, विद्युत व मेघ या तीन पदार्थांनी व्यापलेल्या अंतरिक्षात तो (महिषः) महान (तुवि शुष्मः) अत्यंत शक्तिमान सूर्यरूप इन्द्र( यवाशिरम्) संयुक्त वियुक्त होणाऱ्या सूर्यकिरणांनी पूर्णत्व प्राप्त करणाऱ्या (सोमम्) चंद्राला (तृम्पत्) तृप्ती प्रदान करतो. (सूर्याची किरणे कधी चंद्राचा एका भागावर तर कधी दुसऱ्या भागावर क्रमाक्रमाने पडतात, म्हणून त्या किरणांना संयुक्त विमुक्त होणाऱ्या असे म्हटले आहे) नंतर चन्द्रमा (विष्णुवा) त्या व्याप्तिमान सूर्याद्वारे (सुतम्) उत्पन्न केलेल्या किरम समूहाला (यथावशम्) यथेच्छ (अपिवत्) पितो. (सः) चंद्रात प्रविष्ट तो किरण समूह (ईम्) या चंद्राला (महि) महान (कर्म) प्राण प्रदान, चांद्र- मास निर्माण आदी कार्य (कर्तवे) करण्यासाठी (ममाद) हर्षित करतो. (सः) तो (देवः) प्रकाशमान (सत्यः) सत्य नियमवान (इन्दुः) (एनम्) या (देवम्) प्रकाशक (सत्यम्) सत्य नियम असणाऱ्या (इन्द्रम्) सूर्याचे निरंतर (सश्चत्) सेवन करीत राहतो.।। द्वितीय अर्थ - (गुरु- शिष्य पक्ष) - (त्रिक द्रुकेषु) ज्ञानकांड, कर्मकांड आणि उपासनाकांड हे तीन सवन (यज्ञ) ज्यात होतात, अशा शिक्षा यज्ञात (तुविशुष्मः) विद्यार्थ्यांचा अतिशय प्रतिभा- शक्तीने संपन्न (महिषः) महान आत्मा (तृम्पत्) तृप्ति लाभ प्राप्त करतो आणि तो विद्यार्थी (विष्णुवा) विशाल विद्यासंपन्न आचार्याने (सुतम्) दिलेल्या (यवशिरम्) कर्माने परिपक्व झालेल्य (सोमम्) ज्ञान रसाचे (यथावशम्) यथेच्छ (अपिवत्) सेवन करतो (ज्ञान प्राप्त करून त्यानुसार कर्मही करतो) (सः) सेवन केलेला तो ज्ञान रस (महाम्) विद्येमुळे महान वा (उरुम्) विशाल हृष्ट- पुष्ट शरीर असलेल्या (ईम्) या विद्यार्थ्याच्या आत्म्यास (महि) महान (कर्म) समाज सुधार आदी कर्म (कर्तवे) करण्यासाठी (ममाद) आनंदाने प्रवृत्त करतो. (देवः) दिव्यगुण युक्त (सत्यः) सत्य (सः) तो (इन्द्रुः) विद्या रस (देवम्) दिव्य गुणवान (सत्यम्) सत्यप्रिय (इन्द्रम्) आम्त्याला (सक्षत्) निरंतर मिळत राहतो.।। १।।
भावार्थ
विद्यार्थ्याचा आत्मा गुरूपासून ज्ञान-रस पितो आणि त्या ज्ञानाला साजेसे कर्म करण्यास प्रवृत्त होतो. नेमके त्याप्रमाणे की जसे चंद्र सूर्यापासून प्रकाश रस पान करून प्राण प्रदानादी महान कर्मे करतो.।। १।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ङ्गदेवो देवंफ मघे छेकानुप्रास व ङ्गसत्य सत्यफ मध्ये यमक अलंकार आहे.।। १।।
तमिल (1)
Word Meaning
மகானும் பலமுள்ளவனும் திரிகதுரகங்களில் (முவ்வுலகங்களில்) யவ அரிசி ரசத்தை அனுபவிக்கிறான். அவன் வழக்கம் போல் சோமனைப் பருகுகிறான். மகத்தான செயல் செய்ய அந்த சோமன் மகா விஸ்தாரமான இந்திரனை இன்பமுடனாக்குகிறான். தேவர் திவ்யனை அடைகிறார். சத்திய இந்துவானவன் சத்தியமான இந்திரனை அடைகிறான்.
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