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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 461
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - विश्वेदेवाः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
13
अ꣢स्तु꣣ श्रौ꣡ष꣢ट्पु꣣रो꣢ अ꣣ग्निं꣢ धि꣣या꣡ द꣢ध꣣ आ꣡ नु त्यच्छर्धो꣢꣯ दि꣣व्यं꣡ वृ꣢णीमह इन्द्रवा꣣यू꣡ वृ꣢णीमहे । य꣡द्ध꣢ क्रा꣣णा꣢ वि꣣व꣢स्व꣢ते꣣ ना꣡भा꣢ स꣣न्दा꣢य꣣ न꣡व्य꣢से । अ꣢ध꣣ प्र꣢ नू꣣न꣡मुप꣢꣯ यन्ति धी꣣त꣡यो꣢ दे꣣वा꣢꣫ꣳअच्छा꣣ न꣢ धी꣣त꣡यः꣢ ॥४६१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स्तु꣢꣯ । श्रौ꣡ष꣢꣯ट् । पु꣣रः꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । धि꣣या꣢ । द꣣धे । आ꣢ । नु । त्यत् । श꣡र्धः꣢꣯ । दि꣣व्य꣢म् । वृ꣣णीमहे । इन्द्रवायू꣢ । इ꣣न्द्र । वायू꣡इति꣢ । वृ꣣णीमहे । य꣢त् । ह꣣ । क्राणा꣢ । वि꣣व꣡स्व꣢ते । वि꣣ । व꣡स्व꣢꣯ते । ना꣡भा꣢꣯ । स꣣न्दा꣡य꣢ । स꣣म् । दा꣡य꣢꣯ । न꣡व्य꣢꣯से । अ꣡ध꣢꣯ । प्र । नू꣣न꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । य꣣न्ति । धीत꣡यः꣢ । दे꣡वा꣢न् । अ꣡च्छ꣢꣯ । न । धी꣣त꣡यः꣢ ॥४६१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्तु श्रौषट्पुरो अग्निं धिया दध आ नु त्यच्छर्धो दिव्यं वृणीमह इन्द्रवायू वृणीमहे । यद्ध क्राणा विवस्वते नाभा सन्दाय नव्यसे । अध प्र नूनमुप यन्ति धीतयो देवाꣳअच्छा न धीतयः ॥४६१॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्तु । श्रौषट् । पुरः । अग्निम् । धिया । दधे । आ । नु । त्यत् । शर्धः । दिव्यम् । वृणीमहे । इन्द्रवायू । इन्द्र । वायूइति । वृणीमहे । यत् । ह । क्राणा । विवस्वते । वि । वस्वते । नाभा । सन्दाय । सम् । दाय । नव्यसे । अध । प्र । नूनम् । उप । यन्ति । धीतयः । देवान् । अच्छ । न । धीतयः ॥४६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 461
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र के विश्वेदेवाः देवता हैं। इसमें परमात्मा, जीवात्मा, मन, प्राण, अग्नि, सूर्य, वायु एवं बिजली का विषय है।
पदार्थ
प्रथम—अध्यात्म पक्ष में। (अस्तु श्रौषट्) हमारी प्रार्थना सुनी जाए, अर्थात् हमारी कामनाएँ पूर्ण हों। मैं (अग्निम्) अग्रनायक परमात्मा को (पुरः दधे) सम्मुख स्थापित करता हूँ। हम सब (त्यत्) उस अति उपयोगी (दिव्यं शर्धः) प्रकाशपूर्ण आत्म-बल का (नु) शीघ्र ही (आ वृणीमहे) उपयोग करते हैं। (इन्द्रवायू) मन और प्राण का (वृणीमहे) उपयोग करते हैं। (यत् ह) जब वे मन और प्राण (नाभा) केन्द्रभूत हृदय-प्रदेश में (सन्दाय) स्वयं को बाँधकर (नव्यसे) अतिशय प्रशंसनीय (विवस्वते) अज्ञानान्धकार के निवारक आत्मा के लिए (क्राणा) उच्च संकल्प, प्राणवशीकरण आदि कर्म को करनेवाले होते हैं, (अध) तब (नूनम्) अवश्य ही (धीतयः) धारणा, ध्यान, समाधियाँ (उप प्रयन्ति) योगी के समीप आ जाती हैं, सिद्ध हो जाती हैं, (न) जिस प्रकार (धीतयः) अङ्गुलियाँ (देवान् अच्छ) माता, पिता, अतिथि आदि विद्वानों को ‘नमस्ते’ करने के लिए (उप प्रयन्ति) तत्पर होती हैं ॥ द्वितीय—अधिदैवत पक्ष में। (अस्तु श्रौषट्) मेरा वचन सुना जाए। मैं (अग्निम्) भौतिक आग का (धिया) बुद्धि या कर्मकौशल से (पुरः दधे) शिल्पादि कर्मों में उपयोग लेता हूँ। हम सभी (त्यत्) उस (दिव्यम्) द्युलोक में विद्यमान (शर्धः) बलवान् सूर्य का (नु) शीघ्र ही (आ वृणीमहे) शिल्पकर्म में उपयोग करते हैं। (इन्द्र-वायू) विद्युत् और वायु का (वृणीमहे) उपयोग करते हैं। (यद् ह) जब वे विद्युत् और वायु (नाभा) केन्द्रभूत अन्तरिक्ष में (सन्दाय) पृथिवी आदि लोकों को आकर्षण-गुण से बाँधकर (नव्यसे) हर ऋतु में नवीन रूप में प्रकट होनेवाले (विवस्वते) अन्धकार-निवारक सूर्य के चारों ओर (क्राणा) परिक्रमा कराते हैं, (अध) तब (नूनम्) निश्चय ही (धीतयः) सूर्य-किरणें (उप प्रयन्ति) उन पृथिवी आदि लोकों को प्राप्त होती हैं। शेष पूर्ववत् ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। ‘वृणीमह, वृणीमहे’ में लाटानुप्रास और ‘धीतयो, धीतयः’ में यमक है ॥५॥
भावार्थ
जैसे शिल्पविद्या की उन्नति से अग्नि, सूर्य, बिजली और वायु को यन्त्र, यान आदियों में भली-भाँति प्रयुक्त करके मनुष्य महान् सुख प्राप्त कर सकते हैं, वैसे ही योगविद्या की उन्नति से जीवात्मा, मन, प्राण एवं इन्द्रियों के सामञ्जस्य द्वारा योगसमाधि और मोक्ष प्राप्त किये जा सकते हैं ॥५॥
पदार्थ
(पुरः-अग्निं धिया दधे) सब से पूर्व मैं अग्रणायक परमात्मा को धारणा बुद्धि से धारण करूँ—करता हूँ (नु त्यत्-दिव्यं शर्द्धः-आवृणीमहे) शीघ्र सदा दिव्य बल को “शर्धः-बलनाम” [निघं॰ २.३] अपने अन्दर समा लें (इन्द्रवायू वृणीमहे) ऐश्वर्यवान् एवं गतिप्रद—जीवनप्रद परमात्मा को अपने अन्दर धारण करें (यत्-उ) जिससे कि परमात्मा में (विवस्वते) विशेषरूप से वसने वाले मनुष्य के लिये “विवस्वतेः-मनुष्यनाम” [निघं॰ २.३] (क्राणा) उपकार करने वाले (नाभा सन्दाय) हमारे आत्मा के अन्दर “मध्यं वै नाभिर्मध्यमभयम्” [श॰ १.२.२.२३] उस अपने बल को देकर—समर्पण कर (अध) अनन्तर (नव्यसे) अत्यन्त नवीन अध्यात्म जीवन प्राप्ति के लिये (नूनम्) निश्चय “नूनं निश्चये” [अव्ययार्थ निबन्धनम्] (धीतयः) कर्मप्रवृत्तियाँ ध्यान क्रियाएँ “धीतिभिः कर्मभिः” [निरु॰ २.२४] (प्रयन्ति) प्राप्त होती हैं (धीतयः-देवान्-अच्छ-न-उपयन्ति) वे ध्यान क्रियाएँ अग्नि, इन्द्र, वायु नाम वाले परमात्मरूपों को प्राप्त करने के लिए जैसे उनको पहुँचती हैं (श्रौषट्-अस्तु) बस हमारी ध्यान क्रियाओं का श्रुति सहन—सुनाई हो—हो जाती है।
भावार्थ
हम प्रथम अग्नि—अग्रणायक ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा को बुद्धि से—निदिध्यासन रीति से धारण करें—अध्यात्मबल अपने अन्दर समाविष्ट करें, फिर इन्द्र—ऐश्वर्यवान् एवं वायु—जीवनप्रद परमात्मा को अपने अन्दर धारण करें, जो परमात्मा विशेषरूप से वसने वाले मनुष्य के लिये उपकार करने वाला है, वह आत्मा के अन्दर बल सम्यक् प्रदान करे, जिससे अत्यन्त नवीन आध्यात्मिक जीवन के लिये निश्चय ही ध्यान क्रियाएँ प्राप्त होती हैं, चालू होती हैं, वे अग्नि, इन्द्र, वायु, देवधर्मों को प्राप्त होते हैं, बस इस प्रकार हमारी ध्यान क्रियाओं की सुनाई हो जाती है॥५॥
विशेष
ऋषिः—परुच्छेपः (अवसर अवसर पर परमात्मा का स्पर्श—अनुभव करनेवाला तथा स्तुतिवचन में पर्व बनानेवाला उपासक)॥ देवताः—विश्वे देवाः (विशेष गुणवाले परमात्मस्वरूप) छन्दः—अत्यष्टिः॥<br>
विषय
दैवी शक्ति का वरण
पदार्थ
हे प्रभो! आपकी कृपा से (श्रौषट् अस्तु) = मेरे जीवन में श्रवण का स्थान हो - मैं सुनने के स्वभाववाला बनूँ। श्रवण ही ज्ञान प्राप्ति का सर्वोच्च साधन है। जब मैं कानो को ज्ञान प्राप्ति का साधन बनाता हूँ तो [ शिर: ] = मस्तक पर्यन्त ज्ञान-जल में स्नान कर रहा होता हूँ। इस श्रवण से प्राप्त ज्ञान का प्रथम परिणाम मेरे जीवन पर यह होता है कि मैं (अग्निम्) = उस प्रकाशस्वरूप परमात्मा को (धिया) = ज्ञानपूर्वक (पुरः दधे) = अपने सामने धारण करता हूँ। उस प्रभु को अपना पुरोहित [आदर्श-mode] बनाता हूँ। उन्हीं के अनुसार मैं अपने जीवन को ढालने का प्रयत्न करता हूँ।
प्रभु को अपना आदर्श बनाकर (नु) = अब हम (दिव्यं शर्ध:) = अलौकिक बल को (आ वृणीमहे) = वरते हैं। अपना लक्ष्य यह बनाता है कि हमारे अन्दर दिव्यता व दिव्यशक्ति का अवतार हो। इसके लिए हम (इन्द्रवायू वृणीमहे) = इन्द्र और वायु को पुकारते हैं। इन्द्र सब असुरों का संहार करनेवाली देवता है और (वायु) = [वा गतौ] गति का प्रतीक है। मैं अपने अन्दर किसी आसुर भावना को जागरित न होने दूँ और सदा क्रियाशील बनूँ। मेरा जीवन प्रकाशमय व कर्मनिष्ठ । प्रकाश और शक्ति व शक्तिजन्य क्रिया के समन्वय का नाम ही ‘दिव्यता' है यही दैवी शक्ति है- जिसका हमें अपने में अवतार करना है। यह दिव्यता मुझे प्राप्त होती है (यत्) = जब मैं निश्चय से (विवस्वते) = [विवस्वान्–इन्द्र-सूर्य] - प्रकाश और (नव्यसे) = [नव् गतौ]=गति के लिए (नाभा सन्दाय) = केन्द्र में ध्यान को बाँधकर; इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि को रोककर, (क्राणा) = उपासन करनेवाला होता हूँ। प्रभु का ध्यान मुझे प्रकाश व गति प्राप्त कराता है। इन्द्र का पर्याय यहाँ विवस्वान् है, वायु का नव्यान् [वा=नव्= गतौ ] । इन्द्रवायु का वरण व ‘विवस्वान् व नव्यान् का वरण' एक ही बात है।
जब मैं ध्यान को केन्द्रित कर इस प्रकार प्रतिदिन भक्ति करता हूँ तो (अध) = मुझे (नूनम्) = निश्चय से (धीतय:) = प्रज्ञा व कर्म (उपप्रयन्ति) = समीपता से और खूब प्राप्त होते हैं (न) = जैसे कि (देवां अच्छ) = ये देवों को लक्ष्य करके प्राप्त होते हैं। इन्द्र प्रज्ञा का प्रतीक हैं और वायु 'कर्म' का। इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में 'दिव्यं शर्धं' का व्याख्यान इस प्रकार है -
(दिव्यं शर्धं)
इन्द्र विवस्वान् वायु नव्यान्
(धीतयः)
प्रज्ञा कर्म
मेरा जीवन प्रज्ञा व कर्मवाला हो । यही दिव्य शक्ति की प्राप्ति का मार्ग है। इस दिव्य शक्ति को प्राप्त करके मैं अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्तिवाला बनता हूँ, 'परुच्छेप' होता हूँ। मैं परुच्छेप बन पाया हूँ क्योंकि 'दैवोदासि : ' – देव का दास बना हूँ।
भावार्थ
मैं प्रतिदिन ध्यानाभ्यास से दिव्य शक्ति प्राप्त करूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( धिया ) = आधानकर्म या ध्यानबल से ( पुरः ) = साक्षात् ( अग्नि ) = प्रकाशस्वरूप देव अग्नि को ( दधे ) = धारण करता हूं, ( त्यत् शर्द्धा: ) = उसके बल में ( दिव्य ) = प्रदीप्त ज्योति को ( अनुवृणीमहे ) = निरन्तर प्रत्यक्ष वरण करते या प्राप्त करते हैं और ( इन्द्रवायू ) = आत्मा और प्राण दोनों का ( वृणीमहे ) = साक्षात् करते हैं । ( यत् ) = जो दोनों ( ह ) = निश्चय से ( नव्यसे ) = सदा नवीन ( विवस्वते ) = सूर्य या सूर्य के समान आत्मा के ( नार्भौ ) = आकर्षण शक्ति में ( संदाय ) = अच्छी प्रकार अल्प २ प्राणों को अर्पण करके, जोड़कर ( क्राणा ) = समस्त देहों को रचते हैं । ( अध ) = और हम ( धीतय ) = ध्यान योग से उपासना करने हारे या अध्ययन द्वारा ज्ञान सम्पादन करने हारे ( धीतय इव ) = रश्मियों के समान या विद्वानों या आगे जाने हारी अंगुलियों या शिष्यों के समान ( देवान् ) = देवों-विद्वानों के ( नूनं प्र उपयन्ति ) = अत्यन्त समीप पहुंचते हैं ।
टिप्पणी
४६१–‘तच्छर्द्धो,' ‘विवस्वति', 'सदायिनव्यसा, ' 'प्रसू न उपयन्तु' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - परुच्छेप:।
देवता - विश्वेदेवाः।
छन्दः - अत्यष्टिः।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विश्वेदेवाः देवताः। परमात्मजीवात्ममनःप्राणवह्निसूर्यवायुविद्युद्विषयमाह।
पदार्थः
प्रथमः—अध्यात्मपरः। अस्तु (श्रौषट्२) अस्माकं प्रार्थनायाः श्रवणं भवतु, अस्मत्कामनाः पूर्यन्तामित्यर्थः। अहम् (अग्निम्) अग्रनेतारं परमात्मानम् (धिया) ध्यानेन (पुरः दधे) सम्मुखं स्थापयामि। वयम् (त्यत्) तद् महोपयोगि (दिव्यं शर्धः) प्रकाशपूर्णम् आत्मबलम्। शर्धः इति बलनाम। निघं० २।९। (नु) सद्यः (आ वृणीमहे) उपयुञ्ज्महे। (इन्द्रवायू) मनःप्राणौ। मन इवेन्द्रः। श० १२।९।१।१३। प्राणो हि वायुः। ता० ४।६।८। प्राणो वै वायुः। श० ४।४।१।१५। (वृणीमहे) उपयुञ्ज्महे। (यद् ह) यदा हि, तौ इन्द्रवायू मनःप्राणौ (नाभा) नाभौ, केन्द्रभूते हृत्प्रदेशे (सन्दाय३) स्वात्मानं बद्ध्वा। सं पूर्वो दातिर्बन्धने वर्तते। (नव्यसे) नवीयसे, अतिशयेन स्तुत्याय (विवस्वते४) अज्ञानान्धकारनिवारकाय आत्मने (क्राणा) क्राणौ, उच्चसंकल्पनप्राणवशीकरणादिकं कर्म कुर्वाणौ भवतः। क्राणाः कुर्वाणाः इति निरुक्तम्। ४।१९। तदा (नूनम्) निश्चयेन (धीतयः) धारणाध्यानसमाधयः (उप प्रयन्ति) योगिनः समीपमागच्छन्ति, (न) यथा (धीतयः) अङ्गुलयः। धीतय इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। निघं० २।५। (देवान् अच्छ) मातापित्रतिथ्यादीन् विदुषो नमस्कर्तुम् (उप प्रयन्ति) उद्युक्ता भवन्ति ॥ अथ द्वितीयः—अधिदैवतपरः। (अस्तु श्रौषट्) मदीयं वचनं श्रुतं भवेत्। अहम् (अग्निम्) भौतिकं वह्निम् (धिया) बुद्ध्या कर्मकौशलेन वा (पुरः दधे) शिल्पादिकर्मसु उपयुञ्जे। वयम् (त्यत्) तत् (दिव्यम्) दिवि भवम् (शर्धः) शर्धस्वन्तं बलवन्तं सूर्याग्निम्। अत्र मतुपो लुक्। (नु) सद्यः (आ वृणीमहे) शिल्पकर्मणि उपयुञ्ज्महे। (इन्द्रवायू) विद्युद्वातौ (वृणीमहे) शिल्पकर्मणि उपयुञ्ज्महे। (यद् ह) यदा हि, तौ इन्द्रवायू विद्युद्वातौ (नाभा) नाभौ केन्द्रभूते अन्तरिक्षे (सन्दाय) पृथिव्यादिलोकान् आकर्षणगुणेन बद्ध्वा (नव्यसे) प्रतिऋतु नवीनतराय (विवस्वते) तमोनिवारकाय सूर्याय, सूर्यं परितः इत्यर्थः (क्राणा) परिक्रमां कारयन्तौ भवतः, (अध) तदा (नूनम्) निश्चयेन (धीतयः) सूर्यकिरणाः (उपप्रयन्ति) तान् पृथिव्यादिलोकान् प्राप्नुवन्ति। शिष्टं पूर्ववत् ॥५॥५ अत्र श्लेष उपमालङ्कारश्च। ‘वृणीमह, वृणीमहे’ इत्यत्र लाटानुप्रासः। ‘धीतयो, धीतयः’ इत्यत्र यमकम् ॥५॥
भावार्थः
यथा शिल्पविद्योन्नत्या वह्निसूर्यविद्युद्वायूनां यन्त्रयानादिषु सम्यक् प्रयोगेण मनुष्यैर्महत् सुखं प्राप्तुं शक्यते, तथैव योगविद्योन्नत्या जीवात्ममनःप्राणेन्द्रियाणां सामञ्जस्येन योगसमाधिः कैवल्यं च प्राप्तुं शक्यते ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।१३९।१, ‘आ नु तच्छर्धो’, ‘यद्ध क्राणा विवस्वति नाभा सन्दायि नव्यसी। अध प्र सू न उप यन्तु’ इति पाठः। २. अस्तु भवतु श्रौषट् श्रावणं स्तोत्रस्य। शृण्वन्तु देवाः स्तोत्रमित्यर्थः—इति भ०। ३. सन्दाय सम्यग् बद्ध्वा, स्वीकृत्य इत्यर्थः—इति भ०। सम्यग् बद्ध्वा, मिथः संयुज्य—इति सा०। ४. विवस्वते विवासयित्रे—इति वि०। विवो धनं तद्वते, हविष्मते—इति भ०। तत्तु न पदकारसम्मतम् ‘वि-वस्वते’ इति पदपाठात्। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं पुरुषार्थप्रशंसाविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
Heard be our prayer. In thought manifestly I honour God. In His Might we realise His Refulgence. We realise both soul and breath. They both nicely arrange all human bodies through the ever fresh strength of God. We, the gleaners of knowledge through study, go near the sages, as do the disciples to their preceptors.
Meaning
May my voice be heard! I have realised the energy and power of Agni, light and fire, in full with my intellect and understanding. Then we opt for the divine force and power of nature and move onto the study and application of the power of wind and electricity which, active at the centre of the sun, give us the newest and latest form of energy and power. May all our intellectual efforts and intelligential vision reach the forces of nature and analyse and discover their energy and powers. Let us reach there well with all our intellect and imagination and let our efforts benefit the noblest humanity. (Rg. 1-139-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (पुरः अग्निं धिया दधे) સર્વથી પૂર્વ હું અગ્નિ = પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્માને ધારણા બુદ્ધિથી ધારણ કરું-કરું છું. (नु त्यत् दिव्यं शद्र्धः आवृणीमहे) શીઘ્ર સદા દિવ્ય બળને પોતાની અંદર સમાવું (इन्द्रवायू वृणीमहे) ઐશ્વર્યવાન અને ગતિપ્રદ-જીવનપ્રદ પરમાત્માને પોતાની અંદર ધારણ કરું (यत् उ) જેથી પરમાત્મામાં (विवस्वते) વિશેષરૂપથી વસનાર મનુષ્યને માટે (क्राणा) ઉપકાર કરનાર (नाभा सन्दाय) અમારા આત્માની અંદર તે પોતાનું બળને આપીને-સમર્પણ કર (अध) પશ્ચાત્ (नव्यसे) અત્યંત નવીન અધ્યાત્મ જીવન પ્રાપ્તિને માટે (नूनम्) નિશ્ચય (धीतयः) કર્મ પ્રવૃત્તિઓ ધ્યાન ક્રિયાઓ (प्रयन्ति) પ્રાપ્ત થાય છે (धीतयः देवान् अच्छ न उपयन्ति) તે ધ્યાન ક્રિયાઓ અગ્નિ, ઇન્દ્ર, વાયુ નામવાળા પરમાત્મરૂપોને પ્રાપ્ત કરવા માટે જેમ તેઓને પહોંચે છે. (श्रौषट् अस्तु) બસ અમારી ધ્યાન ક્રિયાઓનું શ્રુતિ સહન-શ્રવણ થાય-થઈ જાય છે. (૫)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અમે પ્રથમ અગ્નિ-ઉન્નતિશીલ જ્ઞાનપ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્માને બુદ્ધિથી-નિદિધ્યાસન રીતિથી ધારણ કરીએ, અધ્યાત્મબળ પોતાની અંદર ધારણ કરીએ જે પરમાત્મા વિશેષ રૂપથી વસનાર મનુષ્યને માટે ઉપકાર કરનાર છે, તે આત્માની અંદર સારી રીતે બળ પ્રદાન કરે, જેનાથી અત્યંત નવીન આધ્યાત્મિક જીવનને માટે નિશ્ચયથી ધ્યાન ક્રિયાઓ પ્રાપ્ત થાય છે, ચાલુ થાય છે, તેઓ અગ્નિ, ઇન્દ્ર, વાયુ, દેવધર્મોને પ્રાપ્ત થાય છે, બસ, આ રીતે અમારી ધ્યાન ક્રિયાઓનું શ્રવણ થઈ જાય છે. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہماری پرارتھنا کو سُنیئے!
Lafzi Maana
بھگوان ہماری پرارتھنا کو سُنیئے، دھیان اور بُدھی بل سے اگنی پرماتما کو دھارن کرتے ہیں اور اُس کے پر سدّھ دِویہ بل کو سویکار کرتے ہوئے بُدھی اور کرم شکتیوں کو ورن کرتے ہیں، بجلی اور وایُو کی طرح جو پرم دھنی اور گتی مان ہے۔ اُسی کو ورن کرتے ہیں۔ شریر کی نابھی میں من کو لگا کر سدا جو نیا ہے اور سُوریہ کی طرح منّور ہے، اُس کا دھیان دھارنا سے یوگ کرتے ہیں، اُپائے کرتے ہیں۔ بلاشک یوگ کا یہ طریقہ کار ہمیں اُس کے آگے لے جائے گا، یہ کرم ہمیں دیو گنوں کو حاصل کرا ایشور تک پہنچائیں گے!
Tashree
اگنی سے ہے پرارتھنا دو بُدھی بل اور دھیان دو، جس سے تُم کو پراپت ہوویں ایسا ہم کو گیان دو۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे शिल्पविद्येच्या उन्नतीने अग्नी, सूर्य, विद्युत व वायूला यंत्र यान इत्यादीमध्ये चांगल्या प्रकारे प्रयुक्त करून माणसे महान सुख प्राप्त करू शकतात. तसेच योगविद्येच्या उन्नतीने जीवात्मा, मन, प्राण व इंद्रियांच्या सामंजस्याने योगसमाधी व मोक्ष प्राप्त करू शकतो ॥५॥
विषय
विश्वेदेवाः देवता। परमात्मा, जीवात्मा, मन, प्राण, वहिृ, सूर्य, वायू, विद्युत याविषयी -
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (अध्यात्म पक्ष) - (अस्तु श्रौषट्) आमची प्रार्थना ऐकली जावी म्हणजे आमची प्रार्थना पूर्ण व्हावी (असे मी इच्छितो). मी (अग्निम्)अग्रनायक परमेश्वराला (पुरः दधे) समोर स्थापित करतो. आम्ही सर्व जण (त्यत्) त्या अति उपयोगी (दिव्यं शर्धः) प्रकाशपूर्ण आत्मशक्तीचा (तु) शीघ्र (आवृणीमहे) उपयोग करतो. आम्ही (इन्द्र वायू) मनाचा आणि प्राणशक्तीचा (वृणीमहे) उपयोग करतो. (यत् ह) जेव्हा ते मन व प्राण (नाभा) केंद्रीभूत हृदय प्रदेशात (सन्दाय) स्वतःला बांधून घेतात व (नव्यसे) अतिशय प्रशंसनीय (विवस्वते) अज्ञान - अंधकार - निवारक आत्म्यासाठी (क्राणा) उच्च संकल्प, प्राणवशीकरण आदी कर्मे करतात, (अध) तेव्हा (नूनम्) अवश्यमेव (धीतयः) धारणा, ध्यान, समाधी या स्थिती (उप प्रयन्ति) योगी मनुष्याजवळ येतात. (न) ज्याप्रमाणे (धीतयः) अंगुली (देवान् अच्छ) माता, पिता, अतिथी आदी विद्वानांना ‘नमस्ते’ करण्यासाठी (उप प्रयन्ति) तत्पर होतात (त्याप्रमाणे योगी मनुष्याला समाधी आदी स्थिती प्राप्त होतात.)।। द्वितीय अर्थ - (आधिदैवत - पक्ष) - (अस्तु श्रौषट्) माझे म्हणणे ऐकले जावे (लक्ष देऊन ऐकावे, म्हणजे वाया जाऊ नये) मी (अग्निम्) भौतिक (घिवा) मोठ्या कल्पकतेने वा बुद्धीने (पुरः दधे) शिल्प, यंत्र आदी कार्यात उपयोग करतो. आम्ही सर्वजण (त्यत्) त्या (दिव्यम्) द्युलोकात असणाऱ्या (शर्धः) शक्तिमान सूर्याचा (सौर शक्तीया) (नु) शीघ्रमेव (आवृणीमहे) शिल्प कर्मात उपयोग करतो. (इन्द्र वायू) आम्ही विजेचा आणि वायूचा (वृणीमहे) उपयोग करतो. (यद् ह) जेव्हा ते विद्युत आणि वायू (नाभा) केंद्रीभूत अंतरिक्षात (सन्दाम) पृथ्वी आदी ग्रहृ- उपग्रहांना आकर्षण शक्तीद्वारे बांधून (नव्यसे) प्रत्येक ऋतूमध्ये नव्या रूपात प्रकट होणाऱ्या (विवस्वते) अंधकार - निवारक सूर्याच्या भोवती (क्राणा) परिक्रमा करतात (अघ) तेव्हा (नूनम्) अवश्यमेव (धीतयः) सूर्यकिरणे (उप प्रयन्ति) त्या पृथ्वी आदी लोकांपर्यंत जातात.।। यापुढे प्रथम अर्थातील वाक्य वाचावे.।। ५।।
भावार्थ
जसे शिल्पविद्येच्या प्रगतीमुळे अग्नी, सूर्य, विद्युत आणि वायू यातील शक्तीचा ऊर्जेचा यंत्र, यान आदीमध्ये योग्य प्रकारे उपयोग करून मनुष्य महान सुख, (समाधान, सोयी आनंद) प्राप्त करू शकतात. तद्वत योगविद्येच्या उन्नतीमुळे जीवात्मा, मन, प्राण व इंद्रिये यांच्या सामंजस्याद्वारे योगसमाधी आणि मोक्ष स्थिती प्राप्त करता येते.।। ५।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष व उपमा अलंकार आहे. - ‘वृणीमह, वृणीमहे’मध्ये लाटानुप्रास आणि ‘धीतयो, धीतमः’मध्ये यमक अलंकार आहे.।। ५।।
तमिल (1)
Word Meaning
புத்தியால் முதன்மையாய் அக்னியை தரிக்கிறேன். அவன் பலமான திவ்யத்தை துரிதமாய் அழைக்கிறோம். இந்திரனை வாயுவை (வியாபகனை) அழைக்கிறோம். [1]விவஸ்வனின் நடுவில் இணையுங்கால் ஐசுவரியஞ் செய்வீர்கள். துதி கேட்பதாகட்டும். அப்பால் எங்கள் துதிகள் தேவர்களுக்குப் போல் முன் செல்லுகின்றன.
FootNotes
[1] விவஸ்வனின்-மேன்மையான மனிதரின்.
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