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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 467
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
11
उ꣣च्चा꣡ ते꣢ जा꣣त꣡मन्ध꣢꣯सो दि꣣वि꣡ सद्भूम्या द꣢꣯दे । उ꣣ग्र꣢꣫ शर्म꣣ म꣢हि꣣ श्र꣡वः꣢ ॥४६७॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣च्चा꣢ । उ꣣त् । चा꣢ । ते꣣ । जात꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । दि꣣वि꣢ । सत् । भू꣡मि꣢꣯ । आ । द꣣दे । उग्र꣢म् । श꣡र्म꣢ । म꣡हि꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ ॥४६७॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्र शर्म महि श्रवः ॥४६७॥
स्वर रहित पद पाठ
उच्चा । उत् । चा । ते । जातम् । अन्धसः । दिवि । सत् । भूमि । आ । ददे । उग्रम् । शर्म । महि । श्रवः ॥४६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 467
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में ऊपर से नीचे की ओर सोम का प्रवाह वर्णित है।
पदार्थ
हे पवमान सोम ! पवित्रकर्ता रसागार परमेश्वर ! (ते) तेरा (अन्धसः) आनन्दरस का (जातम्) समूह (उच्चा) उच्च है, (दिवि सत्) प्रकाशमान आनन्दमय कोश में विद्यमान उसको (भूमि) भूमि अर्थात् भूमि पर स्थित मनुष्य (आददे) ग्रहण करता है। उस आनन्दरस से (उग्रं शर्म) तीव्र कल्याण, और (महि श्रवः) महान् यश, प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थ
जैसे ऊपर अन्तरिक्ष में विद्यमान बादल के रस को अथवा चन्द्रमा की चाँदनी के रस को ग्रहण कर भूमि सस्यश्यामला हो जाती है, वैसे ही उच्च आनन्दमयकोश में अभिषुत होते हुए ब्रह्मानन्द-रस का पान कर सामान्य मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ॥१॥
पदार्थ
(ते-अन्धसः) तुझ आध्यानीय—उपासनीय पवमान सोम—आनन्दधारा में आते हुए शान्त परमात्मा का (जातम्) प्रसिद्धरूप (उच्चा) ऊँचा—उत्कृष्ट है, जो (दिवि सत्) अमृत मोक्षधाम में होते हुए को “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] (भूमि-आददे) भूमि—पृथिवी पर जन्मा हुआ पार्थिव शरीर में आया हुआ “ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति” [निरु॰ २.५] “सुपां सुलुक्.....” [अष्टा॰ ७.३.३९] ‘सप्तम्याश्च लुक्’ मैं शरीरबन्धन से मुक्त हो मोक्षधाम में पहुँच कर ग्रहण करता हूँ प्राप्त कर लेता हूँ (उग्रं शर्म महि श्रवः) जो कि उच्च सुख बहुत प्रशंसनीय है।
भावार्थ
मोक्ष में परमात्मा का ऊँचा स्वरूप साक्षात् होने वाला है। उसकी आकांक्षा उपासक में होनी चाहिए, उपासक की प्रवृत्ति या रुचि पृथिवीलोक के भोगों में नहीं रहती वह तो ऊँचे सुख और प्रशंसनीय दर्शनामृत की चाह रखता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—अमहीयुः (पृथिवी को नहीं अपितु मोक्षधाम को चाहने वाला उपासक जन)॥ देवताः—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होने वाला परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
आकाश में होता हुआ भूमि पर
पदार्थ
, प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘अहमीयुः' है–‘न महीं यौति युनक्ति वा ' = जो अपने साथ पृथिवी का सम्पर्क नहीं करता - भौतिक भोगों में नहीं फँसता, अतएव शक्तिशाली बना रहता है। इससे प्रभु कहते हैं कि (ते) = तेरा (अन्धसः) = इस आध्यायनीय सोम के द्वारा (उच्चा जातम्) = अत्यन्त उच्च विकास हुआ है। जो व्यक्ति सोम की रक्षा का ध्यान नहीं करता वह ‘निषाद' बनता है–‘निषीदति अस्मिन् पापमिति'=उसमें आसुरी वृत्तियाँ आश्रय करती हैं, परन्तु जब यह सोम रक्षा का निश्चय कर लेता है तो शु+उत् + र शक्ति की शीघ्र ऊर्ध्वगति करनेवाला यह 'शूद्र' हो जाता है। सोम के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में प्रवेश करने पर [ विश् to enter] वैश्य-विश् होता है। उस - उस स्थान में क्षतों से त्राण करने के कारण ये 'क्षत्रिय' बनता है और ज्ञानशक्ति के दीप्त होने से ब्रह्म को जानने के कारण यह 'ब्राह्मण' बन जाता है। इस प्रकार सोम की महिमा से मनुष्य ऊँचा और ऊँचा उठता चलता है - इसका अत्यन्त उच्च विकास होता है, परन्तु सौन्दर्य की बात तो यह है कि (दिविसत्) = द्युलोक में होता हुआ यह (भूमि आददे) = भूमि का ग्रहण करता है। अधिक-से-अधिक ऊँचा होता हुआ यह अत्यन्त विनीत होता हैं दैवी सम्पत्ति का सर्वोच्च शिखर = बसपउंग 'नातिमानिता' ही तो है।
(उग्रं शर्म) = इसका आनन्द भी उदात्त होता है यह राजस व तामस सुखों में नहीं फँसतां इसका सात्त्विक सुख उत्तरोत्तर बढ़ता ही चलता है। उस ज्ञान के क्षेत्र में विचरता हुआ यह सांसारिक सुखों की तुच्छता को अनुभव करता है।
(महि श्रवः) = चारों ओर इसकी महनीय कीर्ति फैल जाती है। इसका जीवन इतना सुन्दर बन गया है कि उसकी सुगन्ध चारों ओर फैलती है। लोग उसकी तेजस्विता, उसके ज्ञान व उसकी प्रशस्त मनोवृत्ति की गाथा गाते नहीं अघाते ।
भावार्थ
सोम-रक्षा से मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है। विनीत बना रहता है। सात्त्विक सुख में ही आनन्द लेता है और महनीय कीर्तिवाला होता है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे परमेश्वर ! ( ते ) = तेरे ( अन्धसः ) = प्राणधारण सामर्थ्य से ( जातं ) = उत्पन्न हुए ( दिविसद् ) = द्यौलोक, सूर्य में विद्यमान ( उग्रं ) = उग्र, उत्कृष्ट, ( शर्म ) = सुख, शरण और ( महिः श्रवः ) = महान् ज्ञान या बल, अन्न को ( भूमि ) = भूमि पर के पुरुष भी ( आददे ) = प्राप्त करते हैं । अर्थात् सूर्य में विद्यमान जीवन, सुख और ज्ञान दीप्ति आदि को हम भूमि पर भी प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
४६७ – 'दिविषद्' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - अमहीयु:।
देवता - पवमानः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमम् उपरिष्टादधः सोमः प्रवहतीत्याह।
पदार्थः
हे पवमान सोम ! पवित्रकर्तः रसागार परमेश्वर ! (ते) तव (अन्धसः) आनन्दरसस्य (जातम्) समूहः (उच्चा) उच्चम् अस्ति। (दिवि सत्) द्योतमाने आनन्दमयकोशे विद्यमानं तत् (भूमि) भूमिष्ठो जनः। अत्र ‘सुपां सुलुक्’ इति विभक्तेर्लुक्। (आददे) गृह्णाति। तेन अन्धसा आनन्दरसेन (उग्रं शर्म) प्रबलं कल्याणम् (महि श्रवः) महद् यशश्च, प्राप्यते इति शेषः ॥१॥२
भावार्थः
उपर्यन्तरिक्षे विद्यमानं पर्जन्यरसं चन्द्रमसः सौम्यप्रकाशरूपं रसं वा गृहीत्वा यथा भूमिः सस्य-श्यामला जायते, तथैवानन्दमयकोशेऽभिषूयमाणं ब्रह्मानन्दरसं पीत्वा सामान्यो जनः कृतार्थतां भजते ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६१।१० ‘सद्’ इत्यत्र ‘षद्’ इति पाठः। य० २६।१६ ऋषिः महीयवः। साम० ६७२। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्। एष च तत्र तत्कृतो भावार्थः—‘विद्वद्भिर्मनुष्यैः सूर्यकिरणवायुमन्त्यन्नादि- युक्तानि महान्त्युच्चानि गृहाणि रचयित्वा तत्र निवासेन सुखं भोक्तव्यम्’—इति। देवता च तत्र तेन अग्निः स्वीकृता।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, the denizens of Earth obtain the vast knowledge and great shelter, created by Thy inspiring strength, and set in the universe!
Meaning
O Soma, high is your renown, great your peace and pleasure, born and abiding in heaven, and the gift of your energy and vitality, the earth receives as the seed and food of life. (Rg. 9-61-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ते अन्धसः) તું આધ્યાનીય-ઉપાસનીય પવમાન સોમ-આનંદધારામાં આવતા શાન્ત પરમાત્માનું (जातम्) પ્રસિદ્ધ રૂપ (उच्चा) શ્રેષ્ઠ-ઉત્કૃષ્ટ છે, જે (दिवि सत्) અમૃત મોક્ષધામમાં થઈને (भूमि आददे) ભૂમિપૃથિવી પર જન્મેલ પાર્થિવ શરીરમાં આવેલ હું શરીર બંધનથી મુક્ત થઈને મોક્ષધામમાં પહોંચીને ગ્રહણ કરું છું પ્રાપ્ત કરી લઉં છું. (उग्रं शर्म महि श्रवः) જે શ્રેષ્ઠ સુખ ખૂબજ પ્રશંસનીય છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મોક્ષમાં પરમાત્માનું ઉત્કૃષ્ટ સ્વરૂપ સાક્ષાત્ થનાર છે. તેની આકાંક્ષા ઉપાસકમાં હોવી જોઈએ, ઉપાસકની પ્રવૃત્તિ અથવા રુચિ પૃથિવીલોકના ભોગમાં રહેતી નથી, તે તો શ્રેષ્ઠ સુખ અને પ્રશંસનીય દર્શનામૃતની ઇચ્છા રાખે છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
سوم رس کی پیدایش
Lafzi Maana
سوم رس کا جنم اَنّ کے ذریعے شریر میں سب سے پہلے دماغ میں ہوتا ہے، پھر وہ ہردیہ میں آ کر پرتھوی روپ جسم کے نیچے حصے کو بھی طاقت دیتا ہے۔ اور حواسِ خمسہ کے ذریعے حرکت پذیر ہوتا ہے، جس سے یہ بھگتی رس بڑھا ہوا نئی زندگی، شانتی اور کیرتی کا دینے والا ہوتا ہے، جیسے سُورج سے برسا ہوا پرکاش اور جل دھرتی کو سرسبز اور شاداب کر دیتا ہے۔
Tashree
جسم انسانی میں پیدا ہوتا جب یہ سوم رس، زندگی میں شانتی دیتا ہے امرت سوم رس۔
Khaas
پومان کانڈ شروع پانچواں ادھیائے
मराठी (2)
भावार्थ
अंतरिक्षात असलेल्या मेघाचा रस किंवा चंद्राच्या चांदण्याचा रस ग्रहण करून भूमी सस्य श्यामला होते, तसेच उच्च आनंदमय कोशात सिंचित होऊन ब्रह्मानंद रसाचे पान करून सामान्य माणूस कृतार्थ होतो ॥१॥
विषय
प्रथम मंत्र - सोम वरून खालीकडे वाहत आहे -
शब्दार्थ
हे पवमान सोम, पवित्रकर्ता रसागार परमेश्वरा, (ते) तुझ्या (अन्धसः) आनंदरसाचा (जातम्) समूह (भरपूर आनंद) (उच्चा) उच्च आहे दिवि सत्) प्रकाशमान आनदमय कोशात असलेल्या त्या रसाला (भूमि) भूमीवर म्हणजे भूमीवर उपस्थित मनुष्य (आपल्या हृदयात) (आदद्रे) ग्रहण करतो. त्या आनंद रसामुळे (उग्रं शर्म) तीव्र वा अध्याधिक कल्याण आणि (महि श्रवः) महान यश हे दोन्ही प्राप्त होतात.।। १।।
भावार्थ
जसे वर अंतरिक्षात विद्यमान मेघजलरूप रस आणि चंद्राच्या चांदणे रूप रस घेऊन ही भूमी सस्यश्यामला होते, तद्वत उच्च आनंदमय कोशातून अभिषुत होणारा (झिरपणारा) ब्रह्मानंद रस पान करून सामान्य मनुष्यही कृतार्थ होऊ शकतो.।। १।।
तमिल (1)
Word Meaning
சோமனே! உன் ரசத்தினுடைய ஜன்மம் உயர்த்தாகும். சோதியுலகில் சிறந்தாலும் உக்கிரமான சுகத்தையும், மகத்தான [1]சிரேயஸ்ஸையும் பூமியில் அடைந்துள்ளது.
FootNotes
[1]சிரேயஸ்ஸையும்- சிறப்பையும்
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