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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 497
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣡चि꣢क्रद꣣द्वृ꣢षा꣣ ह꣡रि꣢र्म꣣हा꣢न्मि꣣त्रो꣡ न द꣢꣯र्श꣣तः꣢ । स꣡ꣳ सूर्ये꣢꣯ण दिद्युते ॥४९७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡चि꣢꣯क्रदत् । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ । म꣣हा꣢न् । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न । द꣣र्शतः꣢ । सम् । सू꣡र्ये꣢꣯ण । दि꣣द्युते ॥४९७॥
स्वर रहित मन्त्र
अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः । सꣳ सूर्येण दिद्युते ॥४९७॥
स्वर रहित पद पाठ
अचिक्रदत् । वृषा । हरिः । महान् । मित्रः । मि । त्रः । न । दर्शतः । सम् । सूर्येण । दिद्युते ॥४९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 497
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ
(वृषा) मनोरथों को पूर्ण करनेवाला, (हरिः) पापहारी सोम परमेश्वर, सबके हृदयों में स्थित हुआ (अचिक्रदत्) शब्द कर रहा है अर्थात् उपदेश व सत्प्रेरणा दे रहा है। (महान्) महान् वह (मित्रः न) मित्र के समान (दर्शतः) दर्शनीय है। वही (सूर्येण) सूर्य से (सम्) संगत हुआ (दिद्युते) प्रकाशित हो रहा है। कहा भी है—‘जो वह आदित्य में पुरुष है, वह मैं ही हूँ’, य० ४०।१७ ॥१॥ इस मन्त्र में ‘अचिक्रदत् वृषा’ यहाँ पर शब्दशक्तिमूलक ध्वनि से ‘वर्षा करनेवाला बादल गर्ज रहा है’ यह दूसरा अर्थ भी सूचित होकर बादल और सोम परमात्मा में उपमानोपमेयभाव को ध्वनित कर रहा है, इसलिए उपमाध्वनि है। ‘मित्रो न दर्शतः’ में वाच्या पूर्णोपमा है ॥१॥
भावार्थ
जो सूक्ष्मदर्शी लोग हैं, वे सूर्य, पर्जन्य आदि में परमेश्वर के ही दर्शन करते हैं, क्योंकि ताप, प्रकाश, जल बरसाने आदि की सब शक्ति उसी की दी हुई है ॥१॥
पदार्थ
(महान् वृषा हरिः) महान् कामवर्षक तथा दुःखापहरणकर्ता सुखाहरणकर्ता सोम शान्तस्वरूप परमात्मा (मित्रः-न दर्शतः) मित्र के समान दर्शनीय (अचिक्रदत्) बुलाता है—सम्भाषण करता है “क्रदि आह्वाने रोदने च” [भ्वादि॰] ‘अह्वाने नमाभावश्छान्दसः’ (सूर्येण सन्दिद्युते) सूर्य के समान ‘लुप्तोपमावाचकालङ्कारः’ सम्यक् प्रकाशित होता है “वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्” [यजु॰ ३१.१८]।
भावार्थ
महान् कामनापूरक दुःखापहरणकर्ता सुखाहरणकर्ता शान्तस्वरूप मित्र की भाँति दर्शनीय परमात्मा को आमन्त्रित करता हूँ, जो सूर्य के समान प्रकाशमान है॥१॥
विशेष
ऋषिः—मेध्यातिथिः (सङ्गमनीय परमात्मा में निरन्तर गतिशील प्रवेशशील उपासक)॥<br>
विषय
सूर्य के समान
पदार्थ
सोम (अचिक्रदत्) = पुकारता है - पुकारकर मन्त्र के ऋषि ‘मेधातिथि' से कहता है कि मुझे अपनाकर तो देखो। देखो कि मैं किस प्रकार १. (वृषा) = तुम्हारेलिए सुखों का वर्षक होता हूँ, किस प्रकार तुम्हें शक्ति - सम्पन्न [वृष] बनाता हूँ। २. (हरिः) = मैं तुम्हारे दुःखों का हरण करनेवाला हूँ-सब मलिनताओं को दूर भगानेवाला हूँ। तुम्हारे शरीर को शक्ति- सम्पन्न बनाता हूँ तो मन को निर्मल | ३. (महान्) = मैं तेरे हृदय को [मह पूजायाम् ] पूजा की वृत्ति से परिपूर्ण करके (महान्) = उदार बनाता हूँ। ४. (मित्रो न दर्शतः) = मेरे द्वारा तू सूर्य के समान दर्शनीय होता है—तेजस्वी बनता है। सूर्य 'मित्र' है—मृत्यु से बचानेवाला है। यह सोम भी सूर्य की भाँति ही रोगों से बचाकर मृत्यु से बचाता है और हमें सूर्य के समान तेजस्वी बनाता है।
इस सोम के द्वारा यह मेधातिथि (सूर्येण) = [सूर्यः चक्षुः] अपनी चक्षु से दृष्टिकोण से–(संदिद्युते) = सम्यक् चमकता है। सोमी पुरुष का दृष्टिकोण बड़ा सुन्दर होता है । यह संसार में समझदारी से चलता है। मेधा के साथ चलने से यह 'मेधातिथि' कहलाता है। कण-कण करके इसने मेधा का संचय किया है, अतः यह 'काण्व' है।
भावार्थ
सोम मेरे दृष्टिकोण को सुन्दर बनाए ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( वृषा ) = वर्षणशील, ( हरिः ) = सबको गति देने हारा, जगदीश्वर ( महान् ) = सबसे बड़ा ( मित्रः न ) = सबके प्रति स्नेही, सूर्य के समान ( दर्शतः ) = दर्शनीय, ( सूर्येण ) = अपने प्रेरक बल और तेज से ( सं दिद्युते ) = उत्तम रूप से प्रकाशित होता है।
टिप्पणी
४९७ -'सुर्येण रोचते' इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - मेध्यातिथिः।
देवता - पवमानः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो महिमानमाह।
पदार्थः
(वृषा) कामवर्षकः (हरिः) पापहर्ता सोमः परमेश्वरः, सर्वेषां हृदि स्थितः सन् (अचिक्रदत्) शब्दायते, उपदिशति, सत्प्रेरणां करोति। क्रदि आह्वाने रोदने च, क्रद इत्येके, स्वार्थे णिचि, लुङि रूपम्। (महान्) महत्त्वोपेतः सः (मित्रः न) सुहृदिव (दर्शतः) दर्शनीयः अस्ति। स एव (सूर्येण) आदित्येन (सम्) संगतः सन् (दिद्युते) प्रकाशते, ‘यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑षः॒ सो᳕ऽसाव॒हम्’ य० ४०।१७ इति श्रुतेः ॥१॥२ ‘अचिक्रदद् वृषा’ इत्यत्र शब्दशक्तिमूलेन ध्वनिना ‘वर्षकः पर्जन्यो गर्जति’ इति द्वितीयेऽप्यर्थे द्योतिते सति पर्जन्यसोमयोरुपमानोपमेयभावो व्यज्यते, तेनोपमाध्वनिः। ‘मित्रो न दर्शतः’ इत्यत्र च वाच्या पूर्णोपमा ॥१॥
भावार्थः
ये सूक्ष्मदर्शिनः सन्ति ते सूर्यपर्जन्यादौ परमेश्वरमेव साक्षात्कुर्वते, यतस्तत्र सर्वा तापप्रकाशजलवर्षणादिशक्तिस्तत्प्रदत्तैवास्ते ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।२।६, य० ३८।२२ ऋषिः दीर्घतमाः, ‘सं सूर्येण दिद्युतदुदधिर्निधिः’ इति पाठः, परोष्णिक् छन्दः। साम० १०४२। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्युदग्निपक्षे व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
God, the Showerer of happiness. Mightiest of all. Beautiful like the Sun, exhibits His strength and shines with His lustre.
Meaning
Soma, Spirit of universal peace and bliss, is generous and virile, destroyer of suffering, great, noble guide as a friend, and proclaims his presence everywhere as he shines glorious with the sun. (Rg. 9-2-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (महान् वृषा हरिः) મહાન કામનાવર્ષક તથા દુઃખાપહરણકર્તા સુખાહરણકર્તા સોમ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (मित्रः मा दर्शतः) મિત્રની સમાન દર્શનીય (अचिक्रदत्) બોલાવે છે-સંભાષણ કરે છે (सूर्येण सन्दिद्युते) સૂર્યની સમાન સમ્યક્ પ્રકાશિત થાય છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મહાન કામનાપૂરક, દુ:ખાપહરણકર્તા, સુખાહરણકર્તા, શાન્ત સ્વરૂપ, મિત્રની સમાન, દર્શનીય પરમાત્માને આમંત્રિત કરું છું, જે સૂર્યસમાન પ્રકાશમાન છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
دوست کی طرح قابل دِید
Lafzi Maana
سب کی کامناؤں کو پورن کرنے والا، دُکھوں کو دُور کر کے سُکھوں کو لانے والا شانتی ساگر پرماتما، دوست کی طرح دیدار کے قابل اور سورج کی طرح روشنی پھیلانے والا ہے، جس کو میں بُلا رہا ہوں، پکار رہا ہوں۔
Tashree
وہی ہے مِتّر ہم سب کا، ہے سُکھ داتا سہارا ہے، اُسی کی شکتی سے سُورج چمکتا چندر تارا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जे सूक्ष्मदर्शी लोक आहेत, ते सूर्य, पर्जन्य इत्यादीमध्ये परमेश्वराचेच दर्शन करतात, कारण ताप, प्रकाश, जल, वर्षाव इत्यादीमध्ये त्याचीच शक्ती कार्य करते ॥१॥
विषय
सोम परमेश्वराच्या महिमेचे वर्णन
शब्दार्थ
(वृषा) मनोरथ पूर्ण करणारा (हरिः) पापहारी सोम परमश्वर सर्वांच्या हृदयात असून (अचिक्रदत्) शब्द करीत आहे. अर्थात सदुपदेश आणि सत्प्रेरणा देत आहे. तो (महान्) महान असून (मित्रः न) मित्राप्रमाणे (दर्शतः) दर्शनयी (वा सह राहणारा) आहे. तोच (सूर्येण) सूर्याशी (सम्) संगत असून (विद्युते) प्रकाशित होत आहे (म्हणजे तोच सूर्याला प्रकाश देत असून सूर्याच्या प्रकाशाच्या रूपाने त्यालाच पाहता येते.) म्हटलेही आहे ‘जो आदित्यात पुरुष आहे, तो मीच आहे.’ (यजु. ४०/१७/१) या मंत्रात ‘अचिक्रदत् लृषा’ येथे शब्दश
भावार्थ
जे सूक्ष्मदर्शीजन सतात, ते सूर्य, पर्जन्य आदीत परमेश्वरालाच पाहतात. कारण त्या पदार्थांना उष्णत्व, प्रकाश, जलवर्षण आदी सर्व शक्ती परमेश्वराने दिलेल्या आहेत.।। १।।
विशेष
या मंत्रात ‘अचिक्रदत् लृषा’ येथे शब्दशक्तीमूलक ध्वनी असा वर्षा करणारा मेघ गर्जना करीत आहे. या दुसऱ्य अर्थाद्वारेही अर्थ ध्वनित आहे की मेघात आणि सोम परमात्म्यात उपमान उपमेय भाव आहे, म्हणून येथे उपमाध्वनि आहे. ‘मित्रो न दर्शतः’ मध्ये वाच्या पूर्णोपया आहे.।। १।।
तमिल (1)
Word Meaning
விருப்பங்களை வர்ஷித்து பொன் நிறமாய் பெரியவனாய் [1]மித்திரனைப்போல் அழகாயுள்ளவன் சத்தஞ் செய்வான் (அறிவிப்பான்).
FootNotes
[1]மித்திரனை - நண்பனை
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