Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 541
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
12
अ꣡या꣢ प꣣वा꣡ प꣢वस्वै꣣ना꣡ वसू꣢꣯नि माꣳश्च꣣त्व꣡ इ꣢न्दो꣣ स꣡र꣢सि꣣ प्र꣡ ध꣢न्व । ब्र꣣ध्न꣢श्चि꣣द्य꣢स्य꣣ वा꣢तो꣣ न꣢ जू꣣तिं꣡ पु꣢रु꣣मे꣡धा꣢श्चि꣣त्त꣡क꣢वे꣣ न꣡रं꣢ धात् ॥५४१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣या꣢ । प꣣वा꣢ । प꣣वस्व । एना꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । माँ꣣श्चत्वे꣢ । इ꣣न्दो । स꣡र꣢꣯सि । प्र । ध꣣न्व । ब्रध्नः꣢ । चि꣣त् । य꣡स्य꣢꣯ । वा꣡तः꣢꣯ । न । जू꣣ति꣢म् । पु꣣रुमे꣡धाः꣢ । पु꣣रु । मे꣡धाः꣢꣯ । चि꣣त् । त꣡क꣢꣯वे । न꣡र꣢꣯म् । धा꣣त् ॥५४१॥
स्वर रहित मन्त्र
अया पवा पवस्वैना वसूनि माꣳश्चत्व इन्दो सरसि प्र धन्व । ब्रध्नश्चिद्यस्य वातो न जूतिं पुरुमेधाश्चित्तकवे नरं धात् ॥५४१॥
स्वर रहित पद पाठ
अया । पवा । पवस्व । एना । वसूनि । माँश्चत्वे । इन्दो । सरसि । प्र । धन्व । ब्रध्नः । चित् । यस्य । वातः । न । जूतिम् । पुरुमेधाः । पुरु । मेधाः । चित् । तकवे । नरम् । धात् ॥५४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 541
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे (इन्दो) रस से आर्द्र करनेवाले परमात्मन् ! आप (अया) इस (पवा) प्रवाहमयी धारा के साथ (एना) इन (वसूनि) सत्य, अहिंसा आदि ऐश्वर्यों को (पवस्व) क्षरित करो। (मांश्चत्वे) स्तुतिशब्दयुक्त (सरसि) मेरे हृदय-सरोवर में (प्र धन्व) भली-भाँति आओ, (यस्य) जिन आपका (ब्रध्नः चित्) महान् (वातः) वायु (न) जैसे (जूतिम्) वेग को (धात्) धारण करता है, वैसे ही (पुरुमेधाः चित्) बुद्धिमान् स्तोता (तकवे) कर्मयोग के लिए (नरम्) नेतृत्व के गुण को (धात्) धारण करता है ॥९॥ इस मन्त्र में ‘वातो न जूतिम्’ आदि में उपमालङ्कार है। ‘पवा, पव’ में छेकानुप्रास है ॥९॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर से रचित महान् वायु तीव्र वेग को धारण करता है, वैसे ही परमेश्वर का स्तोता महान् नेतृत्व-गुण को धारण करता है ॥९॥
पदार्थ
(इन्दो) हे रसीले शान्त परमात्मन्! तू (अया पवा) इस बहने वाली धारा से (एना वसूनि पवस्व) इन अध्यात्मधनों को प्रवाहित कर, अतः (मांश्चत्वे सरसि प्रधन्व) मननीय याचनीय प्रापणीय सरोवर में पहुँचा (ब्रध्नः-चित्) तू महान् भी “ब्रध्नो महन्नाम” [निघं॰ ३.३] (पुरुषमेधाः-चित्) अत्यन्त सङ्गमनीय भी है (यस्य) जिस—आपकी (जूतिम्) गति को (वातः-न) ‘वातस्य’ वात की गति के समान गति को (नरम्) और तुझ नेता परमात्मा को (तकवे) आत्मगति—मोक्षप्राप्ति के लिये “तकति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (धात्) उपासक आत्मा धारण करता है।
भावार्थ
हे रसीले शान्त परमात्मन्! तू इस बहने वाली आनन्दधारा से इन सभी अध्यात्मधनों को प्रवाहित कर, माननीय और प्रापणीय स्वरूप सरोवर में उपासक को पहुँचा, तू महान् भी है अत्यन्त सङ्गमनीय भी है, तेरी गति जो प्रबल वायु की गति के समान है उसे तथा मुझ नेता शान्त परमात्मा को आत्मगति—मोक्षप्राप्ति के लिये उपासक धारण करता है॥९॥
टिप्पणी
[*39. “कुत्स ऋषिर्भवति कर्ता स्तोमानाम्” [निरु॰ ३.११]।]
विशेष
ऋषिः—कुत्सः (स्तुतिकर्ता उपासक*39)॥<br>
विषय
प्रभु ही मेरे प्राण हों
पदार्थ
(अया) = इस (पवा) = पावन क्रिया से (एना वसूनि) = इन वास के साधनभूत शरीर मन व बुद्धि आदि को (पवस्व) = पवित्र कर। गत मन्त्र में 'गोन्योधा' = ज्ञान के प्लावनबाले बनने का उल्लेख है, ‘सह’=परमेश्वर के साथ रहने का संकेत है और 'वरिवः कृण्वन्'=उसकी पूजा करने का वर्णन है। यही वस्तुतः अपने को पवित्र बनाने की प्रक्रिया है। इसी मार्ग पर चलने से मनुष्य इस शरीर की अंगभूत वसुओं को पवित्र बनाए रख सकता है। 'अया पवा' में 'अया' शब्द सर्वनाम होता हुआ गत मन्त्र की पावन - क्रिया का ही संकेत करता है। हमें ज्ञान व भक्ति से अपने को पूर्ण पवित्र बनाने का ध्यान करना है।
प्रभु कहते हैं कि अपने को पवित्र बनाकर हे (इन्दो) = शक्तिशाली जीव! तू (मांश्चत्वे) = कर्म में तथा (सरसि) = [सरं इति वाङ्नाम- नि० १.११.५५] ज्ञान में (प्रधन्व) = प्रकर्षेण गतिवाला हो । निघण्टु में [१.१४.१८] 'मांश्चत्व' का अर्थ 'अश्व' दिया है। यह अश्व कर्म का प्रतीक है। (‘अनध्वाजिनां जरा') = 'न चलना' घोड़ों को बूढ़ा कर देता है। इससे 'अश्व' को कर्म का प्रतीक बनाया गया है। ‘मांश्चत्व' शब्द मन् तथा चर् धातु के मेल से बना है, कर्म सदा मनपूर्वक करने योग्य है, इसलिए भी इसे 'मांश्चत्त्व' कहा गया है। ज्ञानाधि- देवता को 'सरस्वती' कहते हैं, अतः स्पष्ट है कि 'सरस्' नाम ज्ञान का है। मनुष्य के पवित्रता से शक्ति का सम्पादन करके मननपूर्वक कर्म तथा मनुष्य को अपना जीवन ऐसा बनाना है कि (ब्रध्नः चित्) = वह महान् परमात्मा ही (यस्य) = उसका (वातो न) = प्राण की भाँति हो । [He must live in God]। प्रभु को वह अपना जीवन समझे । प्रभु स्वाभाविकी क्रियावाले हैं, क्रिया इसका भी स्वभाव बन जाए। वस्तुतः (पुरुमेधा:) = पालक पूरक बुद्धिवाला मनुष्य (चित्) = निश्चय से (तकवे) = गति के लिए (जूतिम्) = वेग को (न रन्धात्) = कभी पृथक नहीं करता, अर्थात् बड़ी स्फूर्ति के साथ यह सदा कार्यों में लगता है। कार्यों में लगे रहने से इसके जीवन में दो परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। यह शरीर में रोगों को उत्पन्न नहीं होने देता हुआ ‘आङ्गिरस' बना रहता है और मन में बुरी भावनाओं को कुचलने में समर्थ होकर 'कुत्स' कहलाता है ।
भावार्थ
मैं सदा मननपूर्वक कार्य करनेवाला बनूँ, ज्ञान में मैं विचरूँ तथा प्रभु ही मेरे
प्राण हों ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( इन्दो ) = हृदय में बहने वाले आनन्दरस ! ( अया ) = इस ( पवा ) = पवित्र करने हारी धारा से ( एना ) = इन ( वसूनि ) = वास या जीवन के साधन प्राण या ऐश्वर्यों को ( पवस्व ) = प्रेरित कर, प्रकट कर । हे ( इन्दो ) = सोम ! ( मांश्चत्वे ) = मन के एकमात्र गमन स्थान, मनोहर ( सरसि ) = जलाशय में जल के समान, कलश में ओषधि रस के समान, मानस हृदय में ( प्रधन्व ) = द्रवित हो । ( यस्य ) = जिस तेरे ( जूतिं ) = वेग को ( ब्रघ्नः ) = सूर्य के समान रश्मियों और आकर्षण से अपने साथ इन्द्रियों को बांध रखने वाला आत्मा ( चित् ) = भी ( वातः न ) = वायु के समान ( धात् ) = धारण करता है और ( पुरुमेधाः ) = नाना प्रकार की धारणावती बुद्धियों का मालिक, साधक ( नरं ) = नायक आत्मा को ( तकवे ) = परमपद तक पहुंचने के लिये ( धात् ) = धारण करता है ।
ब्रघ्नः-बघ्नातेरौणादिर्नक्, बन्धेश्च बध्नादेश: ( उणा० ३ । ५ )
टिप्पणी
५४१ –‘ब्रघ्नश्चिदत्रवातो न जूत:' इति ऋ०)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः।
देवता - पवमानः ।
छन्दः - त्रिष्टुप्।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमः परमात्मा प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे (इन्दो) रसेनार्द्रीकर्तः परमात्मन् ! त्वम् (अया) अनया (पवा२) प्रवाहवत्या धारया (एना) एनानि वसूनि सत्याहिंसाप्रभृतीनि ऐश्वर्याणि (पवस्व) क्षर। (मांश्चत्वे३) मीयन्ते शब्द्यन्ते इति माः शब्दाः, मान् स्तुतिशब्दान् चातयति गमयति उत्थापयतीति मांश्चत्वं तस्मिन्, स्तुतिशब्दयुक्ते इत्यर्थः माङ् माने शब्दे च। चततिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। (सरसि) मम हृदयसरोवरे (प्र धन्व) प्रकर्षेण याहि। धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। (यस्य) यस्य तव (ब्रध्नः चित्) महान्। ब्रध्न इति महन्नाम। निघं० ३।३। (वातः) वायुः (न) यथा (जूतिम्) वेगम्। जु गतौ धातोः ‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’ अ० ३।३।९७ इति क्तिनि दीर्घत्वं निपात्यते, उदात्तः स्वरश्च। (धात्) दधाति, तथा (पुरुमेधाः चित्) बहुप्रज्ञः स्तोता। अत्र नित्यमसिच् प्रजामेधयोः४। अ० ५।४।१२२ इति बहुव्रीहेः समासान्तः असिच् प्रत्ययः। ब्रध्नश्चित्, पुरुमेधाश्चित् इत्युभयत्रापि चिदिति पूजायां बोध्यम्। (तकवे५) गमनाय कर्मयोगाय इत्यर्थः। तकतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। (नरम्) नेतृत्वगुणम् (धात्) धारयति। दधातेर्लडर्थे लुङि रूपम्। छान्दसत्वादडागमाभावः ॥९॥ अत्र ‘वातो न जूतिम्’ इत्युपमालङ्कारः। ‘पवा, पव’ इति छेकानुप्रासः ॥९॥
भावार्थः
यथा परमेश्वररचितो महान् वायुस्तीव्रवेगं धारयति, तथैव परमेश्वरस्य स्तोता नेतृत्वगुणं धारयति ॥९॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९७।५२ ‘ब्रध्नश्चिदत्र वातो न जूतः पुरुमेधाश्चित् तकवे नरं दात्’ इत्युत्तरार्धपाठः। साम० ११०४। २. पूञ् पवने (क्र्यादिः)। ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यते’ पा० ३।२।१०१ इति विन् प्रत्ययः। आर्धधातुकलक्षणो गुणः। ‘सावेकाचः’ पा० ६।१।१६९ इति तृतीयाया उदात्तत्वम्—इति सा०। ३. मांश्चत्वे अश्वे आरूढः, मांश्चत्वे वा सरसि—इति वि०। मांश्चत्व इत्यश्वनाम। निघं० १।४। अभिमन्यमानान् शत्रून् चातयति नाशयति इति मांश्चत्वम्, तस्मिन् सरसि कलशे प्रधन्व प्रगच्छ—इति भ०। मन्यमानानां चातके सरसि उदके वसतीवर्याख्ये कलशे—इति सा०। ४. यद्यपि तस्मिन् सूत्रे उपरिष्टनात् सूत्रात् ‘नञ् दुःसुभ्यः’ इत्यनुवर्तितुमुचितम्, तथापि “नित्यग्रहणादन्यत्रापि भवतीति सूच्यते” इति काशिकावृत्तिः। उदाहृतं च तत्र, ‘श्रोत्रियस्येव ते राजन् मन्दकस्याल्पमेधसः। अनुवाकहता बुद्धिर्नैषा तत्त्वार्थदर्शिनी’ इति। ५. तकतिर्गतिकर्मसु पठितः, अस्मादौणादिक उन् प्रत्ययः—इति सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, with Thy well-known purity, purifying the resources of life, fulfil the ocean of my heart. A self-controlled, wise, calm person alone realizes Thy wind-like speed.
Meaning
Generous, refulgent Soma spirit of beauty, peace and glory, sanctify us by these streams of grace. In the ocean depths of this honourable universe, energise and move all forms of wealth and peaceful settlements and consecrate us in the lake divine. Spirit of the expansive universe, dynamic like the stormy winds, high-priest of cosmic yajna for all, bless us with a settled state of humanity in the vibrant system of a volatile world. (Rg. 9-97-52)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्दो) હે રસીલા શાન્ત પરમાત્મન્ ! તું (अया पवा) એ વહનારી ધારા દ્વારા (एना वसूनि पवस्व) એ અધ્યાત્મધનોને પ્રવાહિત કર, તેથી (मांश्चत्वे सरसि प्रधन्व) મનનીય યાચનીય પ્રાપણીય સરોવરમાં પહોંચાડ (ब्रध्नः चित्) તું મહાન પણ (पुरुषमेधाः चित्) અત્યંત સંગમનીય પણ છે (यस्य) જે આપની (जूतिम्) ગતિને (वातः न) વાત સમાન ગતિને (नरम्) અને તું નેતા પરમાત્માને (तकवे) આત્મગતિ-મોક્ષ પ્રાપ્તિને માટે (धात्) ઉપાસક આત્મા ધારણ કરે છે. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે રસવાન શાન્ત પરમાત્મન્ ! તું એ વહનારી આનંદધારા દ્વારા એ સર્વ આત્મધનોને પ્રવાહિત કર, માનનીય અને પ્રાપણીય સરોવરમાં ઉપાસકને પહોંચાડ, તું મહાન પણ છે, અત્યંત સંગમનીય પણ છે, તારી ગતિ જે પ્રબળ વાયુની ગતિ સમાન છે, તેને તથા મુજ નેતા શાન્ત પરમાત્માને આત્મગતિમોક્ષ પ્રાપ્તિને માટે ઉપાસક ધારણ કરે છે. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
کرتے آپ کی جستجو
Lafzi Maana
رب کے دِلوں میں شانتی اور رس بھرنے والے بھگوان اپنی رس دھارا سے ہمارے پرانوں کو پوتر کیجئے۔ اور آپ کی بھگتی پریم سے بھرے ہوئے ہمارے خانئہ دل میں براجمان ہوجئے۔ اِندریوں کو اپنے قواعد میں باندھنے والا وایُو کی طرح یہ جیو آتما بھی آپ کے ہی بل کو دھارن کرتا ہے۔ تب یہ عقل سلیم کو پا کر آپ والئی دُنیا کے درشن اپنے اندر کرپاتا ہے۔
Tashree
شانتی رس آنند داتا دل میں لو آسن پربھو، آپ سے ہی پاک ہو کر کرتے آپ کی جستجو۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा परमेश्वराने निर्माण केलेला वायू तीव्र वेग धारण करतो, तसेच परमेश्वराचा प्रशंसक महान नेतृत्वगुण धारण करतो ॥९॥
विषय
सोम परमेश्वराला प्रार्थना
शब्दार्थ
हे (इन्दो) रसाने आर्द्र करणारे परमेश्वर, आपण (अया) या (पवा) प्रवाहमयी धारेसह (एना) या (वसूभि) सत्य, अहिंसा आदी ऐश्वर्य (पवस्व) आम्हा उपासकांकडे प्रवाहित कर. (मांश्चत्वे) स्तुतिवचनाने परिपूर्ण (सरसि) अशा माझ्या हृदय सरोवरामध्ये (प्रधन्व) उत्तम प्रकारे प्रविष्ट व्हा. (यस्य) ज्यांच्या म्हणजे तुमचा प्रवहित केलेल्या जो (ब्रध्नः) चित्) महान (वातः) वायू (य) ज्याप्रमाणे (जूतिम्) वेग (धात्) धारण करतो, त्याप्रमाणे (पुरुमेधाः चित्) बुद्धिमान स्तोता (तळवे) कर्मयोग पूर्ण करण्यासाठी (नरम्) नेतृत्व गुण (धात्) धारण करतो.।। ९।।
भावार्थ
जसे परमेश्वर - रचित महान वायू तीव्र वेग धारण करतो, तसेच परमेश्वराचा उपासक नेतृत्व गुण लवकर धारण करतो (तो अवश्यमेव समाजाचा सर्म नेता ठरतो.)।। ९।।
विशेष
या मंत्रात ङ्गवातो न जूतिम्फ आदी वाक्यांमध्ये उपमा अलंकार आहे. ङ्गपवाफ ङ्गपवफ यामध्ये छेकानुप्रास आहे.।। ९।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்தப் புனித தாரையால் இந்த ஐசுவரியங்களை அளிக்கவும்; இந்துவே [1]மஞ்சள் ஏரியிலே ஓடவும்; சோதியாய் வாயுவைப் போல் வேகமுள்ளவனாய் அறிவு நிறைந்தவன், துரிதமாய் வருபவனுக்கு நாயகனை அல்லது (மகனை அளிப்பான்).
FootNotes
[1]மஞ்சள் ஏரியிலே - மானசரோவரத்தில்
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal