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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 601
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
61
य꣡ज्जाय꣢꣯था अपूर्व्य꣣ म꣡घ꣢वन्वृत्र꣣ह꣡त्या꣢य । त꣡त्पृ꣢थि꣣वी꣡म꣢प्रथय꣣स्त꣡द꣢स्तभ्ना उ꣣तो꣡ दिव꣢꣯म् ॥६०१॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । जा꣡य꣢꣯थाः । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । म꣡घ꣢꣯वन् । वृ꣣त्रह꣡त्या꣢य । वृ꣣त्र । हत्या꣢꣯य । तत् । पृ꣣थिवी꣢म् । अ꣣प्रथयः । त꣢त् । अ꣣स्तभ्नाः । उत꣢ । उ꣣ । दि꣡व꣢꣯म् ॥६०१॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्जायथा अपूर्व्य मघवन्वृत्रहत्याय । तत्पृथिवीमप्रथयस्तदस्तभ्ना उतो दिवम् ॥६०१॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । जायथाः । अपूर्व्य । अ । पूर्व्य । मघवन् । वृत्रहत्याय । वृत्र । हत्याय । तत् । पृथिवीम् । अप्रथयः । तत् । अस्तभ्नाः । उत । उ । दिवम् ॥६०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 601
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र का देवता इन्द्र है। इसमें यह वर्णन है कि इन्द्र परमात्मा ने ही भूमि और सूर्य को विस्तीर्ण किया है।
पदार्थ
हे (अपूर्व्य) अद्वितीय (मघवन्) ऐश्वर्यशाली परमात्मन् ! (यत्) जब, आप (वृत्रहत्याय) सृष्टि के उत्पत्तिकाल में द्यावापृथिवी को फैलाने तथा आकाश में टिकाने में विघ्नभूत मेघों के वध के लिए (जायथाः) तत्पर हुए (तत्) तभी, आपने (पृथिवीम्) भूमि को (अप्रथयः) विस्तीर्ण किया, (उत उ) और (तत्) तभी (दिवम्) सूर्य को (उत् अस्तभ्नाः) आकाश में धारण किया ॥७॥
भावार्थ
हमारे सौरमण्डल के जन्म से पूर्व आकाश में जलती हुई गैसों का समूह रूप प्रकाश-पुञ्जमयी एक नीहारिका थी। हमारी भूमि और अन्य ग्रह उसी से अलग हुए। नीहारिका का बचा हुआ अंश सूर्य कहलाया। नीहारिका से अलग हुई हमारी भूमि भी पहले जलती हुई गैसों का पिण्ड ही थी। शनैः-शनैः ठण्डी होती हुई वह द्रव रूप को प्राप्त हुई। तब बहुत-सी जलराशि सूर्य के तीव्र ताप से भाप बनकर बादल का रूप धारण कर सूर्य और भूमि के बीच में स्थित हो गयी। तब बादल से किये हुए गाढ़ अन्धकार के कारण भूमि पर सर्वत्र चिरस्थायिनी रात्रि व्याप गयी। सूर्य के ताप का स्पर्श न होने से द्रवरूप भूमि ठण्ड पाकर स्थल रूप को प्राप्त हो गयी। तब ईश्वरीय नियमों से वह विकराल मेघ-राशि बरसकर फिर भूमि पर ही आकर समुद्ररूप में स्थित हो गयी। मेघरूप वृत्र के संहार के पश्चात् स्थलरूप पृथिवी ग्रीष्म, वर्षा आदि विविध ऋतुओं के प्रादुर्भाव से नदी, पर्वत, वनस्पति आदि से युक्त होकर बहुत विस्तीर्ण हो गयी। सूर्य भी अपने आकर्षण के बल से उसे अपने चारों ओर घुमाता हुआ ऊपर आकाश में परमेश्वर की महिमा से बिना ही आधार से स्थित रहा। यही बात इस मन्त्र के शब्दों द्वारा संक्षेप में कही गयी है ॥७॥ इस दशति में इन्द्र, पवमान, धाता, सविता, विष्णु, वायु नामों से परमेश्वर का स्मरण होने से इसके विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीय अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(अपूर्व्य मघवन्) पूर्ववतीं माता पिता तथा कारण से रहित शाश्वतिक प्रशस्तज्ञानधन वाले परमात्मन्! (वृत्रहत्याय) आत्मस्वरूप को आवृत करने वाले अज्ञान पाप को नष्ट करने केलिये (यद्) जब (अजायथाः) उपासक के अन्दर साक्षात् होता है (तद्) तब (पृथिवीम्) उपासक की पार्थिव देह को (अप्रथय) प्रख्यात करता है तेजस्वी बनाता है (उत-उ) और (तद्) तभी (दिवम्) द्योतमान अमृतधाम—मोक्षधाम को भी तू (अस्तभ्नाः) सुरक्षित रखता है “द्यौरपराजिताऽमृतेन विष्टा” [तै॰ सं॰ ४.४.५.२] “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३]।
भावार्थ
इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा का कोई पूर्ववर्ती वंश्य नहीं और न उपादान कारण है। वह तो शाश्वत तथा प्रशस्त ज्ञानधन वाला है, अज्ञान पाप को नष्ट करने के लिये उपासक के अन्दर साक्षात् हो जाता है। भोगाश्रय पार्थिवदेह को तेजस्वी कर देता है और अपवर्गाश्रय अमृतधाम मोक्षधाम को भी सुरक्षित कर देता है॥७॥
विशेष
ऋषिः—नृमेधपुरुमेधावृषी (मुमुक्षु मेधावी और बहुत मेधा वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥<br>
विषय
पृथिवी का प्रथव, दिव् का स्तम्भन
पदार्थ
(अपूर्व्य) = अपने में प्रभु की भावना का पूरण करनेवालों में उत्तम (मघवन्) = पाप के लवलेश से शून्य जीव ! (यत्) = जब तू (वृत्रहत्याय) = वृत्र के नाश के लिए (जायथा) = सन्नद्ध होता है (तत्) = तो (पृथिवीम्) = पृथिवी को अपने इस पार्थिव शरीर को (अप्रथयः) = विस्तृत करता है (उत उ) = और निश्चय से (तत्) = तभी (दिवम्) = द्युलोक को अर्थात् अपने मस्तिष्क को (अस्तभङाः) = स्थिर करके–‘स्थितप्रज्ञ' होता है। 'वृत्र' वासना है। वासना का विनाश शरीर के स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है और मस्तिष्क की तीव्रता व स्थिरता के लिए भी। इस वासना के विनाश के लिए प्रभु की भावना को अपने अन्दर भरने का यत्न करता है। जहाँ प्रभु की भावना है- उस हृदय में वासना कहाँ ?
वासना से बचने के लिए यह 'नृमेध व पुरुमेध' बनता है - केवल स्वार्थमय जीवन न बिताकर औरों के सम्पर्क में आता है और इसका सम्पर्क उनका पालन व पूरण करनेवाला होता है। यह लोकहित में लगना ही प्रभु की भावना को अपने अन्दर भरना है। इससे शरीर स्वस्थ बनता है और बुद्धि स्थिर । यही पृथिवी का प्रथव है और द्युलोक का स्तम्भन । वैदिक साहित्य में 'पृथिवी शरीरम्, मूर्ध्ना द्यौः '' पृथिवी' शरीर है 'द्युलोक' मस्तिष्क ।
भावार्थ
मैं वृत्रहत्या के - वासना - विनाश के द्वारा स्वस्थ शरीर व स्थिर बुद्धि बनूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( पूर्व्य ) = अद्वितीय! आदि मूलकारण ! हे ( मघवन् ) = समस्त विभूतियों के स्वामिन् ! ( यत् ) = जो तू ( वृत्रहत्याय ) = आवरणकारी तामस बन्धन को नाश करने के लिये ( जायथाः ) = प्रकट होता है ( तत् ) = वह तू ( पृथिवीम् ) = इस विशाल भूमि को भी ( अप्रथय: ) = प्रकट करता है और ( दिवम् उत् ) = द्यौलोक को भी ( अस्तभ्रा ) = मध्य आकाश में थामता हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ ।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - अनुष्टुप्।
स्वरः - गान्धारः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रो देवता। इन्द्रः परमात्मैव द्यावापृथिव्यौ प्रथितवानित्याह।
पदार्थः
हे (अपूर्व्य) अपूर्व। नास्ति पूर्वं यस्मात् सोऽपूर्वः। अपूर्व एव अपूर्व्यः। ‘पादार्घाभ्यां च’ अ० ५।४।२५ इति तादर्थ्ये यत्। (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! (यत्) यदा त्वम् (वृत्रहत्याय) सृष्ट्युत्पत्तिकाले वृत्राणां द्यावापृथिवीप्रथनोत्तम्भनविघ्नभूतानां मेघानां हननाय। वृत्रोपपदाद् हन्तेः ‘हनस्त च’ अ० ३।१।१०८ इति क्यप् तकारान्तादेशश्च। (जायथाः) उद्युक्तोऽभवः। अडभावश्छान्दसः। (तत्) तदैव त्वम् (पृथिवीम्) भुवम् (अप्रथयः) विस्तारितवान्, (उत उ) अपि च (तत्) तदैव (दिवम्) सूर्यम् (उत् अस्तभ्नाः) उपरि धारितवान् ॥७॥
भावार्थः
अस्माकं सौरमण्डलस्य जन्मनः पूर्वं गगने ज्वलद्वायुसंघातरूपा प्रकाशपुञ्जमयी काचिन्नीहारिकाऽविद्यत। अस्माकं भूमिरन्ये च ग्रहास्तत एव प्रविभक्ताः। नीहारिकाया अवशिष्टोंऽशः सूर्यो जातः। नीहारिकायाः प्रविभक्ताऽस्माकं भूरपि प्रथमं ज्वलद्वायुपिण्डरूपैवासीत्, शनैः शनैः शैत्यमापद्यमाना सा द्रवरूपतां प्रपेदे। ततो भूयान् जलराशिः सूर्यस्य तीव्रतापाद् वाष्पीभवन् मेघत्वं प्राप्य सूर्यपृथिव्योरन्तराले स्थितः। ततो मेघकृताऽन्धतमसवशात् पृथिव्यां सर्वत्र चिरस्थायिनी रात्रिर्व्याप्ता। सूर्यतापस्पर्शाभावाच्च द्रवरूपा पृथिवी शैत्यं प्राप्य स्थलरूपतां गतवती। तत ईश्वरीयनियमैः स विकरालो मेघराशिर्वृष्ट्या पुनरपि भूमिमेव प्राप्य समुद्राकारेण स्थितः। मेघरूपवृत्रहननानन्तरं च स्थलरूपा पृथिवी ग्रीष्मवर्षादिविविधऋतूनां प्रादुर्भावेण सरित्पर्वतवृक्षवनस्पत्यादियुता सुविस्तीर्णा सञ्जाता। सूर्यश्चापि स्वाकर्षणबलेन तां स्वं परितः परिभ्रामयन्नूर्ध्वमाकाशे परमेश्वरमहिम्ना निरालम्बं स्थितः। स एवार्थो मन्त्रगिरा समासेनोक्तः ॥७॥ अत्रेन्द्रपवमानधातृसवितृविष्णुवायुनाम्ना परमेश्वरस्य स्मरणादे- तद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति षष्ठे प्रपाठके तृतीयार्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति षष्ठेऽध्याये द्वितीयः खण्डः ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।८९।५ ‘उतो दिवम्’ इत्यत्र ‘उत द्याम्’ इति पाठः। साम० १४२९।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Eternal, Opulent God, Thou manifestest Thyself in the heart, for the eradication of the darkness of ignorance. Thou fillest the Earth with comforts and sustainest the space !
Meaning
O lord of glory, Indra, matchless without precedent, when you rise for the elimination of darkness, then you manifest the wide space and plan the heaven, earth and sky in their place in the cosmic order. (Rg. 8-89-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अपूर्व्य मघवन्) પૂર્વવર્તી માતા-પિતા તથા કારણથી રહિત શાશ્વતિક પ્રશસ્ત જ્ઞાનધનવાળા પરમાત્મન્ ! (वृत्रहत्याय) આત્મસ્વરૂપને આવૃત કરનાર અજ્ઞાન પાપને નષ્ટ કરવાને માટે (यद्) જ્યારે (अजायथाः) ઉપાસકની અંદર સાક્ષાત થાય છે (तद्) ત્યારે (पृथिवीम्) ઉપાસકના પાર્થિવ દેહને (अप्रथय) પ્રખ્યાત કરે છે. તેજસ્વી બનાવે છે (उत् उ) અને (तद्) ત્યારે (दिवम्) પ્રકાશમાન અમૃતધામ-મોક્ષધામને પણ તું (अस्तभ्नाः) સુરક્ષિત રાખે છે. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માનો કોઈ પૂર્વવર્તી વંશ્ય નથી અને તેનું કોઈ ઉપાદાન કારણ નથી. તે તો શાશ્વત તથા પ્રશસ્ત ધનવાળો છે, અજ્ઞાન-પાપને નષ્ટ કરવા માટે ઉપાસકની અંદર સાક્ષાત્ થઈ જાય છે. ભોગાશ્રય પાર્થિવ શરીરને તેજસ્વી બનાવી દે છે તથા અપવર્ગ આશ્રય અમૃતધામમોક્ષધામને પણ સુરક્ષિત કરી દે છે. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
ارض و سما کو پیدا کر پھیلانے والے
Lafzi Maana
ہے ازلی واحد الاشریک پرمیشور! آپ پرلے کے اندھکار کو مٹانے کے لئے ارض و سما کو پیدا کر کے اُس کو توسیع دیتے ہیں اور دونوں پرتھوی اور دئیو کو دھارن بھی کرتے ہیں۔
Tashree
اندھکار پرے کا چیر کر سرشٹی کو جب کرتے ہو، پیدا کرکے ارض و سما کو وسعت اِن کی کرتے ہو۔
मराठी (2)
भावार्थ
आमच्या सौरमंडलाच्या जन्मापूर्वी आकाशात ज्वालायुक्त ग्ॉसेसची (वायूची) समूहरूपी प्रकाश पुञ्जमयी एक निहारिका होती. आमची भूमी व इतर ग्रह त्यापासूनच पृथक् झाले. निहारिकेपासून उरलेला अंश सूर्य म्हणविला गेला. निहारिकेवेगळी झालेली आमची भूमी ही प्रथम जळणाऱ्या ग्ॉसेसचा पिंडच होती. हळूहळू थंड होत ती द्रवरूप बनली. तेव्हा पुष्कळ जलराशी सूर्याच्या तीव्र तापाने वाफ बनून मेघाचे रूप धारण करून सूर्य व भूमीच्या मध्ये स्थित झाली तेव्हा मेघाच्या गाढ अंधारामुळे भूमीवर चिरस्थायी रात्र निर्माण झाली. तेव्हा ईश्वरीय नियमाद्वारे ती विक्राळ मेघ-राशी पर्जन्यरूपाने पृथ्वीवर येऊन समुद्ररूपात स्थित झाली. मेघरूप वृत्राच्या संहारानंतर स्थलरूप पृथ्वी, ग्रीष्म, वर्षा इत्यादी विविध ऋतूंच्या प्रादुर्भावाने नदी, पर्वत, वनस्पती इत्यादींनी युक्त होऊन अत्यंत विस्तीर्ण बनली. सूर्य ही आपल्या आकर्षण बलाने तिला आपल्याभोवती फिरवीत आकाशात परमेश्वराच्या महिमेने आधाराशिवाय स्थित राहिला. हीच गोष्ट या मंत्रात शब्दांद्वारे संक्षेपाने सांगितलेली आहे ॥७॥
टिप्पणी
या दशतिमध्ये इंद्र, पवमान, धाता, सविता, विष्णू, वायू नावांनी परमेश्वराचे स्मरण असल्यामुळे याच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे
विषय
इन्द्र देवता। इंद्र परमेश्वरानेच घूलाक व पृथ्वीलोक यांचे निर्माण व विस्तार केला आहे-
शब्दार्थ
हे (अपुर्ण्य) अद्वितीय (मघवन्) ऐश्वर्यवान परमेश्वर, (वृत्रहत्याय) सृष्टीच्या उत्पत्तिसाठी घूलोकाचा आणि पृथ्वीचा विस्तार करण्यात व त्यांना आकाशात अवस्थित करण्यासाठी जे विघ्न म्हणून होते, त्या मेघमंडळाचा वध करण्यासाठी तुम्ही (यत्) जेव्हा तत्पर झाला होता (तत्) तेव्हाच तुम्ही (पृथिवीन्) भूमीला (अप्रथयः) विस्तीर्ण केले (उत उ) आणि (तत्) तेव्हाच (दिवम्) सूर्याला (उत् अस्तभ्नाः) आकाशात स्थित केले वा धारण केले.।।७।।
भावार्थ
आमच्या सौरमंडळाच्या उत्पत्तिपूर्वी आकाशात प्रज्वलित अशा गॅसचा (वायूचा) समूह असलेली प्रकाश-पुंजमयी एक नीहारिका होती. कालान्तराने आमची भूमी आणि इतर ग्रह तय नीहारिकेपासून वेगळे झाले. नीहारिकेचा अवशेष भाग सूर्य म्हणून ओळखला जाऊ लागला. नाहारिकेपासून वेगळी झालेली आमची भूमीदेखील आरंभी प्रज्वलित वायू-पिंड वा गॅसचा गोळा मात्र होती. हळू हळू ती थंड होत गेली आणि द्रवरूप झाली. त्यावेळी बरीच जलराशीचे सूर्याचा तील उष्णतेने वाफ होऊ ती जलराशी मेघांचे रूप धारण करून सूर्याच्या व भूमीच्या मधे स्थित झाली. तेव्हां मेघमंडळाने उत्पन्न केलेल्या प्रगाढ अंधकारामुळे भूमीवर सर्वचिरस्थायिनी रात्रीचे साम्राज्य पसरले. सूर्याच्या तत्पतेचा स्पर्श न झाल्यामुळे द्रवरूप झालेली भूमी थंड होत होत स्थलरूपात अस्तित्वात आली. तदनन्तर ईश्वरीय नियमांप्रमाणे ती विकराल मेघ-राशी पुन्हा वृष्ठिरूपाने बरसत बरसत भूमीवर समुद्ररूपात स्थित झाली. मेघ नावाच्या या अशा वृत्रासुराचा याप्रकारे वध झाल्यानंतर स्थलरूप पृथ्वीवर ग्रीष्म, वर्षा आदी विविध ऋतू आदी त्यामुळे नद्या, पर्वत, वनस्पती आदीने संपन्न होऊन आमची पृथ्वी अत्यंत विस्तृत झाली. सूर्यदेखील स्वतःच्या आकर्षणशक्तीने पृथ्वीला आपल्याभोवती फिरवीत राहिला आणि परमेश्वराच्याच महिमेने तो आधाराशिवाय आकाशात स्थित राहिला. हीच माहिती वरील मंत्रामधे संक्षेपात सांगितली आहे.।। या दशतीमधे इन्द्र, पवमान, धाता, सविता, विष्णु, वायू, या नावांनी परमेश्वराचेच स्मरण केले असल्यामुळे यापूर्वीच्या दशतीतील विषयांशी या दशतीशी संगती आहे, असा जाणावे।।
तमिल (1)
Word Meaning
திரிகாலங்களிலுள்ளவனே! மகவானே! விருத்திரனைக் கொல்ல நீ உதயமாகுங்கால் வையகத்தை திருடஞ்செய்து விண்ணை சோதியுலகை ஆகாசத்தில் ஆகர்ஷணஞ் செய்கிறாய், நிலையாக்குகிறாய்.
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