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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 614
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    6

    पा꣢त्य꣣ग्नि꣢र्वि꣣पो꣡ अग्रं꣢꣯ प꣣दं꣢꣯ वेः पाति꣢꣯ य꣣ह्व꣡श्चर꣢꣯ण꣣ꣳ सू꣡र्य꣢स्य । पा꣢ति꣣ ना꣡भा꣢ स꣣प्त꣡शी꣢र्षाणम꣣ग्निः꣡ पाति꣢꣯ दे꣣वा꣡ना꣢मुप꣣मा꣡द꣢मृ꣣ष्वः꣢ ॥६१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा꣡ति꣢꣯ । अ꣣ग्निः꣢ । वि꣣पः꣢ । अ꣡ग्र꣢꣯म् । प꣣द꣢म् । वेः । पा꣡ति꣢꣯ । य꣣ह्वः꣢ । च꣡र꣢꣯णम् । सू꣡र्य꣢꣯स्य । पा꣡ति꣢꣯ । ना꣡भा꣢꣯ । स꣣प्त꣡शी꣢र्षाणम् । स꣣प्त꣢ । शी꣣र्षाणम् । अग्निः꣢ । पा꣡ति꣢꣯ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । उ꣣पमा꣡द꣢म् । उ꣣प । मा꣡द꣢꣯म् । ऋ꣣ष्वः꣢ ॥६१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पात्यग्निर्विपो अग्रं पदं वेः पाति यह्वश्चरणꣳ सूर्यस्य । पाति नाभा सप्तशीर्षाणमग्निः पाति देवानामुपमादमृष्वः ॥६१४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पाति । अग्निः । विपः । अग्रम् । पदम् । वेः । पाति । यह्वः । चरणम् । सूर्यस्य । पाति । नाभा । सप्तशीर्षाणम् । सप्त । शीर्षाणम् । अग्निः । पाति । देवानाम् । उपमादम् । उप । मादम् । ऋष्वः ॥६१४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 614
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 13
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर की महिमा का वर्णन है।

    पदार्थ

    (विपः) मेधावी (अग्निः) अग्रनायक जगदीश्वर (वेः) पक्षी की अथवा वेगवान् पवन की (अग्रम्) अग्रगामी (पदम्) उड़ान की (पाति) रक्षा करता है। (यह्वः) वही महान् जगदीश्वर (सूर्यस्य) सूर्य के (चरणम्) संवत्सरचक्रप्रवर्तन आदि व्यापार की (पाति) रक्षा करता है। (अग्निः) वही अग्रगन्ता जगदीश्वर (नाभा) केन्द्रभूत हृदय अथवा मस्तिष्क में (सप्तशीर्षाणम्) मन, बुद्धि तथा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय रूप सात शीर्षस्थ प्राणों के स्वामी जीवात्मा की (पाति) रक्षा करता है। (ऋष्वः) वही दर्शनीय जगदीश्वर (देवानाम्) विद्वानों के (उपमादम्) यज्ञ की (पाति) रक्षा करता है ॥१३॥ इस मन्त्र में ‘पाति’ की अनेक बार आवृत्ति में लाटानुप्रास अलङ्कार है। पुनः-पुनः ‘पाति’ कहने से यह सूचित होता है कि इसी प्रकार अन्यों के भी कर्मों की जगदीश्वर रक्षा करता है। पूर्वार्ध में पठित भी ‘अग्निः’ पद को उत्तरार्ध में पुनः पठित करने से यह सूचित होता है कि उत्तरार्ध की अर्थयोजना पृथक् करनी है ॥१३॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर ही सूर्य, वायु, पृथिवी, चन्द्र आदि के, जीवात्मा, मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि के और सब विद्वान् लोगों के यज्ञमय व्यापार का रक्षक होता है ॥१३॥ इस दशति में प्रजापति, सोम, अग्नि, अपांनपात् एवं इन्द्र नामों से जगदीश्वर की महिमा का वर्णन होने से, तेज और यश की प्रार्थना होने से तथा दिव्य रात्रि का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीयार्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (विपः-अग्निः) विपश्चित्—सर्वज्ञ अग्रणायक परमात्मा “विपः-मेधावी” [निघं॰ ३.१५] (वेः-अग्रं पदं पाति) गतिशील निरन्तर अतनशील आत्मा के अगले पद—जन्मान्तर देह की रक्षा करता है कर्मानुसार सुरक्षित रखता है (यह्वः) महान् अग्रणेता परमात्मा “यह्वः-महन्नाम” [निघं॰ ३.३] (सूर्यस्य चरणं पाति) विद्यासूर्य विद्वान् सब इन्द्रियों के स्वामी वशीकर्ता जीवन्मुक्त आत्मा के “तं सर्वाणि भूतानि सोऽर्य सोऽर्य इत्ययन् तत्सोऽर्यस्य सोऽर्यत्वं सोऽर्यो नामैष तं सूर्य इति परोक्षमाचक्षते” [जै॰ ३.३.५७] “सूर्य आत्मा” [तै॰ सं॰ १.४.४३.१] सेवन करने योग्य मोक्ष की रक्षा वाला है (नाभा) नाभि—प्राणों को बान्धने वाला अग्रणेता परमात्मा “नाभिर्वै प्राणान् दाधार” [काठ॰ ३७.१६] (सप्तशीर्षाणं पाति) सात ऊपरी प्राण वाले आत्मा की रक्षा करता है “प्राणो वै शिरः” [जै॰ १.२.६८] (ऋष्वः) सबको प्राप्त महान् परमात्मा (देवानाम्-उपमादम्) समस्त उपासक विद्वानों के अभ्युदयरूप सांसारिक हर्षकारी सुख की भी रक्षा करता है।

    भावार्थ

    सर्वज्ञ अग्रणेता परमात्मा एक देह से दूसरे देह में जाने वाले आत्मा के अगले जन्म की रक्षा करता है—उसे नियत करता है। वह प्राणों को बान्धने वाला सात ऊपर प्राणों—दो आँखों दो कानों दो नासिकछिद्रों एक मुख से उचित कार्य लेने वाले संयमी की रक्षा करता है, सच्चा सुख प्राप्त कराता है, जीवन्मुक्त की रक्षा करता है॥१३॥

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सबका मित्र उदार उपासक)॥<br>

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    विषय

    चार आश्रम

    पदार्थ

    ‘विश्वामित्र गाथिन' जब प्राजापत्य यज्ञ में प्रवृत्त होता है तो प्रजाओं को चारों आश्रमों का, जिनमें मनुष्य को जीवन यापन करना है, निम्न प्रकार से उपदेश करता है

    १. (अग्निः) = सब प्रकार की उन्नतियों का साधक, प्रकाश का प्रतीक प्रभु (अग्रं पदम्) = अग्रगति को, उन्नति को (पाति) = सुरक्षित करता है। किसकी उन्नति को ? [क] (विप:) = मेधावी की और (वेः) = ['वी' गति-प्रजनन - कान्ति-असनखादनेषु] गति के द्वारा अपना विकास करनेवाले की । मानव-जीवन का प्रथम प्रयाण ‘ब्रह्मचर्याश्रम' है। इसमें उन्नति तो उस प्रभु की कृपा से ही होती है, परन्तु उस प्रभु की कृपा की प्राप्ति की शर्त यह है कि हम मेधावी बनने का प्रयत्न करें। हमारा कोई कार्य बुद्धि के प्रतिकूल न हो तथा हम क्रियाशील हों। हममें विकास के लिए प्रबल इच्छा हो- [कान्ति] विकास के विरोधी, विध्नों को हम दूर फेंकनेवाले हों [असन] तथा ज्ञान का उत्तरोत्तर भक्षण करते चलें [खादन = ब्रह्मचर्य ] । इस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम में प्रभुकृपा हमारे दो प्रयत्न चाहती है, १. हम मेधावी बनें २. हम 'वी' बनें।

    २. अब गृहस्थाश्रम आता है। वह (यह्वः) = [ यातश्च हूतश्च] जाने योग्य और पुकारने योग्य परमात्मा (सूर्यस्य) = सूर्य के समान निरन्तर सरण करनेवाले और आलस्य से सर्वथा शून्य गृहस्थ के (चरणम्) = गति को आगे बढ़ने को (पाति) = सुरक्षित करता है। गृहस्थ के मौलिक कर्तव्य दो हैं [क] प्रभु को सदा स्मरण करना, उसे अपना आश्रय समझना और [ख] आलस्य को परे फेंककर अपने कर्त्तव्यकर्मों में लगे रहना । सूर्य की भाँति क्रियाशील होना।

    ३. अब वानप्रस्थाश्रम आता है। यहाँ भी (अग्निः) = वह प्रकाश का प्रतीक प्रभु (पाति) = उस वनस्थ की रक्षा करता है जो (नाभा) = केन्द्र में (सप्तशीर्षाणम्) = अपने शिरस्थ सातों ऋषियों को केन्द्रित रखता है। ये सात ऋषि ‘दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो चक्षु और एक मुख' हैं। वानप्रस्थ का मुख्य कर्त्तव्य ‘आत्मचिन्तन' ही है-उसे अपनी ज्ञानेन्द्रियों को सदा उस प्रभु में केन्द्रित करने का प्रयत्न करना है। इसमें सिद्धि प्राप्त कर वह संन्यस्त होता है और वह -

    ४. (ऋष्वः) = [ऋष् गतौ] अन्त में सबसे जाने योग्य वह प्रभु (देवानाम्) = दिव्यता को अपने अन्दर स्थापित करनेवाले इन संन्यस्त पुरुषों के (उपमादम्) = [उप=समीप, मद=हर्ष] अपने समीप आनन्दमय स्थिति में रहने की (पाति) = रक्षा करता है। एक संन्यासी चौबीसों घण्टे उस प्रभु के चरणों में स्थित है, अतएव आनन्द में भी स्थित है। सर्वोच्च मन:प्रसाद की साधना करके तो वह संन्यासी बना है। संन्यासी का मूल कर्त्तव्य 'देव' बनना व प्रभु की समीपता से दूर न होना है।

    भावार्थ

    मैं ब्रह्मचर्याश्रम में विप्-मेधावी व वी = गतिशील बनूँ। गृहस्थाश्रम में प्रभु को सदा पुकारता हुआ सूर्य के समान क्रिया में लगा रहूँ। वानप्रस्थ बनने पर अपनी सभी इन्द्रियों को उस प्रभु में केन्द्रित करने का प्रयत्न करूँ इस प्रकार देव बनकर आदर्श सं बनूँ और सदा प्रभुचरणों में रहूँ।
     

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( विपः ) = मेधावी, ज्ञानी ( अग्निः ) = परमेश्वर ( वेः ) = गतिशील पृथिवी के ( अग्रम् ) = गमन के ( पदं ) = मार्ग को ( पाति ) = सुरक्षित करता है । ( यह्वः ) = वह महान् ( सूर्यस्य ) = सूर्य के ( चरणं ) = चलने के मार्ग को भी ( पाति ) = पालन करता है ( नाभा ) = नाभिस्थान, केन्द्र अथवा अन्तरिक्ष या बन्धनस्थान मूर्धा मे  ( अग्निः ) = यह अग्नि ही ( सप्तशीर्षाणम् ) = सात शिर के वासी प्राणों के स्वामी जीव को भी ( पाति ) = रक्षा करता है । ( ऋष्व: ) = दर्शनीय देवया ( देवानाम् ) = अग्नि आदि देवों और विद्वानों को आनन्दकारक आत्मा या इन्द्रियों के ग्राह्य विषय की भी ( पाति ) = रक्षा करता है ।

    टिप्पणी

     ६१४ - 'पाति प्रियं रिपो अग्र' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - विश्वामित्र:।

    देवता - अग्निः।

    छन्दः - त्रिष्टुप्।

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जगदीश्वरस्य महिमानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (विपः२) मेधावी। विपः इति मेधाविनामसु पठितम्। निघं० ३।१५। (अग्निः) अग्रणीः। जगदीश्वरः (वेः) पक्षिणः, गन्तुः पवनस्य वा। विः इति शकुनिनाम, वेतेर्गतिकर्मणः। निरु० २।६। (अग्रम्) अग्रगन्तृ (पदम्) उड्डयनं गमनं वा। पद गतौ, दिवादिः। (पाति) रक्षति। (यह्वः) स एव महान् जगदीश्वरः। यह्वः इति महन्नाम। निघं० ३।३। यह्व इति महतो नामधेयम्, यातश्च हूतश्च भवति। निरु० ८।८। (सूर्यस्य) आदित्यस्य (चरणम्) संवत्सरचक्रप्रवर्तनादिव्यापारम् (पाति) रक्षति। (अग्निः) स एव अग्रणीः जगदीश्वरः (नाभा) नाभौ, केन्द्रभूते हृदये मस्तिष्के वा। नाभिशब्दात् ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति सप्तम्या आकारादेशः। (सप्तशीर्षाणम्३) सप्त शिरांसि शीर्षण्या प्राणाः मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियरूपाः यस्य तं जीवात्मानम्। अत्र ‘शीर्षंश्छन्दसि। अ० ६।१।६०’ इति शिरसः शीर्षन्नादेशः। (पाति) रक्षति। (ऋष्वः) स एव दर्शनीयः जगदीश्वरः। ऋषी गतौ तुदादिः, दर्शनार्थोऽप्ययं दृश्यते। तथा च निरुक्तम् ऋषिर्दर्शनात् २।१। इति। (देवानाम्) विदुषाम् (उपमादम्) यज्ञम्। उपेत्य माद्यन्ति हृष्यन्ति विद्वांसः अत्र इति उपमादो यज्ञः। (पाति) रक्षति ॥१३॥४ अत्र ‘पाति’ इत्यस्यासकृदावृत्तौ लाटानुप्रासोऽलङ्कारः। पुनः पुनः ‘पाति’ इति कथनाद् अन्येषामपि कर्माणि स पातीति सूच्यते। पूर्वार्द्धे पठितम् अग्निपदम् उत्तरार्द्धे पुनरावृत्तं सद् उत्तरार्द्धस्य पृथगर्थयोजनाद्योतकम् ॥१३॥

    भावार्थः

    जगदीश्वर एव सूर्यवायुपृथिवीचन्द्रादीनां, जीवात्ममनोबुद्धि प्राणे- न्द्रियादीनां, सर्वेषां विद्वज्जनानां च यज्ञमयस्य व्यापारस्य रक्षको जायते ॥१३॥ अत्र प्रजापतिसोमाग्न्यपांनपादिन्द्रनामभिर्जगदीश्वरमहिमवर्णनाद् वर्चोयशःप्रार्थनाद् दिव्यरात्रिवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति षष्ठे प्रपाठके तृतीयार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति षष्ठेऽध्याये तृतीयः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ३।५।५, ‘पात्यग्निर्विपो’ इत्यत्र ‘पाति प्रियं रिपो’ इति पाठः। २. सायणस्तु ऋग्वेदे ‘रिपः’ इति पाठात् ‘रिपः’ इत्यस्य च निघण्टौ पृथिवीनामसु दर्शनाद् ‘वेः गन्त्र्याः सर्वत्र व्याप्तायाः विपः रिपः भूम्याः अग्रं मुख्यं पदं स्थानं पाति रक्षति’ इत व्याचष्टे। ‘विविधं पातीति विपो मेधावी’, इति य० ७।१७ भाष्ये द०। ३. नाभौ अन्तरिक्षस्य मध्ये सप्तशीर्षाणं सप्तगणं मरुद्गणम् इति सा०। (नाभा) मध्ये वर्तमानेऽन्तरिक्षे (सप्तशीर्षाणम्) सप्तविधानि शिरांसि किरणा यस्मिंस्तम् (सूर्यमण्डलम्) इति ऋग्भाष्ये द०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ‘हे विद्वन्, यथा वह्निर्गतिमतां पृथिव्यादीनां रक्षाप्रकाशनिमित्तेन रक्षको वर्तते तथा त्वं सर्वेषां रक्षको भवेः’ इत्यर्थे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Wise God guards the orbit of the moving Earth, The Almighty Father guards the Orbit of the Sun. God alone guard the soul, the master of seven organs in the head. The same Beautiful God, guards the soul, the gladdener of all vital parts of the body.

    Translator Comment

    Seven organs refer to two eyes, two ears, two nostrils, and mouth.

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    Meaning

    Agni protects the friend and favourite, it protects the amplitude of the earth in orbit, and the flight of birds. Mighty powerful, it protects the rainbow colours of light in space and the orbit of the sun in the galaxy. Noble, elevated and sublime, it protects the pleasure and amusement of the noble people who are brilliant and generous. (Rg. 3-5-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (विपः अग्निः) વિપશ્ચિત્-સર્વજ્ઞ અગ્રણી પરમાત્મા (वेः अग्रं पदं पाति) ગતિશીલ નિરંતર શરીર રહિત આત્માના આગળના પદ-જન્માન્તર શરીરની રક્ષા કરે છે કર્માનુસાર સુરક્ષિત રાખે છે (यह्वः) મહાન અગ્રણી પરમાત્મા (सूर्यस्य चरणं पाति) વિદ્યાસૂર્ય વિદ્વાન સર્વ ઇન્દ્રિયોના સ્વામી વશીકર્તા જીવન્મુક્ત આત્માનું સેવન કરવા યોગ્ય મોક્ષની રક્ષાવાળો છે. (नाभा) નાભિ-પ્રાણોને બાંધનાર અગ્નિઅગ્રણી પરમાત્મા (सप्तशीर्षाणं पाति ) સાત શીર્ષ ઉપરના પ્રાણવાળા આત્માની રક્ષા કરે છે. (ऋष्वः) સર્વને પ્રાપ્ત મહાન પરમાત્મા (देवानाम् उपमादम्) સમસ્ત ઉપાસક વિદ્વાનોના અભ્યુદય રૂપ સાંસારિક આનંદકારી સુખની પણ રક્ષા કરે છે. (૧૩)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સર્વજ્ઞ અગ્રણી પરમાત્મા એક શરીરથી બીજા શરીરમાં જનાર આત્માના આગલા જન્મની રક્ષા કરે છે-તેને નિયત કરે છે. એ પ્રાણોને બાંધનાર સાત ઉપર પ્રાણો-બે આંખ, બે કાન, બે નાકના છિદ્રો અને એક મુખથી ઉચિત કાર્ય લેનાર સંયમીની રક્ષા કરે છે, સાચું સુખ પ્રાપ્ત કરાવે છે, જીવન્મુક્તની રક્ષા કરે છે. (૧૩)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    سب کا محافظ سب کا رکھشک

    Lafzi Maana

    میدھاوی عقلِ سلیم کا مالک بھگوان اُڑتے ہوئے پنکھی کے اگلے قدم کی حفاظت کرتا ہے، یعنی موت کے بعد نئی زندگی میں قدم رکھنے والے جیو آتما کی رکھشا کرتا ہے، اور اُسے نئی زندگی دیتا ہے۔ وہ پربُھو سُورج کو اپنے ازلی قواعد میں چلاتا ہوا رکھشا کرتا ہے، سب کا اگوا پرمیشور نیا جنم دھارن کرنے والے سات سِروں والے جیو آتما (رُوح) کی حفاظت کرتا ہے، وہ رُوح کے سات سر ہیں، پانچ گیان اِندریاں حواس خمسہ، من اور وِدّیا یا دو آنکھ، دو کان، دو ناک کے سوراخ اور ایک مُنہ، اِن کے ذریعے سے جیو آتما کا بچاؤ کرتا رہتا ہے اور سب جگہ موجودپرمیشور اپنے عابد، عارفوں کی خوشیوں کی حفاظت کرتا رہتا ہے کہ زیادہ سے زیادہ یہ دیرپا رہیں۔

    Tashree

    یہ اگنی ہے جو سب کے آگے چلتا رکھشا کرتا ہے، بن سب جیوؤں کا محافظ وہ سب کے کاموں کو کرتا ہے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जगदीश्वरच सूर्य, वायू, पृथ्वी, चंद्र इत्यादींचा जीवात्मा, मन, बुद्धी, प्राण, इंद्रिये इत्यादींचा व सर्व विद्वान लोकांच्या यज्ञमय व्यवहाराचा रक्षक असतो ॥१३॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये प्रजापती, सोम, अग्नी अपानपात् व इंद्र नावाने जगदीश्वराच्या महिमेचे वर्णन असल्यामुळे तेज व यशाची प्रार्थना असल्यामुळे व दिव्य रात्रीचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    विषय

    या मंत्रात जनदीश्वराचा महिमा वर्णित आहे

    शब्दार्थ

    (विप्रः) मेघावी (अग्निः) अग्रनायक परमेश्वर (वेः) पक्ष्याच्या अथवा वेगवान वायूच्या (अग्रम्) अग्रगामी (पदम्) उड्डाणाची (पाति) रक्षा करतो, तोच (यहृः) महान परमेश्वर (सूर्यस्य) सूर्याच्या (चरणम्) संवत्सर चक्र प्रवर्तन, उत्तरायण आदी कार्यांची (पाति) रक्षा करतो. (अग्निः) तोच अग्रनायक जगदीश्वर (नाभा) केन्द्रीभूत हृदयात या मस्तिष्कात (सप्तशीर्षाणाम्) मन, बुद्धी आणि पंच ज्ञानेन्द्रियारूप सात शीर्षस्थ प्राणांचा जो स्वामी म्हणजे आत्मा त्याची (पाति) रक्षा करतो. (ऋष्वः) तोच दर्शनीय ईश्वर (देवानाम्) विद्वानांच्या (उपमादम्) यज्ञाचे (पाति) रक्षण करतो.।।१३।।

    भावार्थ

    जगदीश्वराचं सूर्य, वायू, पृथ्वी, चंद्र आदी पदार्थांच्या सर्व व्यापारांचा तसेच जीवात्मा, मन, बुद्धी, प्राण, इंद्रिये आदींच्या आणि सर्व विद्वज्जनांच्या यज्ञमय क्रियांचा रक्षक आहे.।।१३।। या दशतीमधे प्रजापती, सोम, अग्नी, अपांनपात आणि इन्द्र नावाने त्या एका जगदीश्वराचाच महिमा वर्णित आहे. तसेच या दशतीत परमेश्वरापासून तेज व यश याची प्रार्थना असल्यामुळे तसेच दिव्य रात्रीचे वर्णन असल्यामुळे या दशतीच्या विषयांशी मागील दशतीच्या विषयांची संगती आहे, असे जाणावे.।। षष्ठ प्रपाठकातीत तृतीय अर्धापैकी तृतीय दशती समाप्त। पष्ठ अध्यायातील तृतीय खण्ड समाप्त।।

    विशेष

    या मंत्रात ङ्गपातिफ शब्दाची अनेकवेळा आवृत्ती झाल्यामुळे लाटानुप्रास अलंकार आहे. तसेच वारंवार ङ्गपातिफ (रक्षण करतो) म्हटल्यामुळे असा सूचित अर्थ निघतो की परमेश्वर अशाच प्रकारच्या अन्य कर्मांचेही रक्षण करतो. मंत्राच्या पूर्वार्धात आलेल्या ‘अग्नि’ शब्दाचे उत्तरार्धातही पठन केल्यामुळे असे सूचित होते की उत्तरार्धाचा अर्थ वेगळ्या स्वरूपात केली पाहिजे.।।१३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மேதாவி அக்கினி எங்கும் வியாப்தமாகும் (அனைத்தின் பூமியின்) முதன்மையான நிலயத்தைப் பாதுகாக்கிறான். மகானான அக்கினி சூரியன் வழியையும் காக்கிறான்; நடுவிலே ஏழு தலைகளையும் (மருத்துக் கணங் களையும்) காக்கிறான். இவ்வழகன் தேவர்களின் இன்பத்தையும் காக்கிறான்

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