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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 624
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    3

    य꣢꣫द्वर्चो꣣ हि꣡र꣢ण्यस्य꣣ य꣢द्वा꣣ व꣢र्चो꣣ ग꣡वा꣢मु꣣त꣢ । स꣣त्य꣢स्य꣣ ब्र꣡ह्म꣢णो꣣ व꣢र्च꣣स्ते꣡न꣢ मा꣣ स꣡ꣳ सृ꣢जामसि ॥६२४

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣢त् । व꣡र्चः꣢꣯ । हि꣡र꣢꣯ण्यस्य । यत् । वा꣣ । व꣡र्चः꣢꣯ । ग꣡वा꣢꣯म् । उ꣣त꣢ । स꣣त्य꣡स्य꣢ । ब्र꣡ह्म꣢꣯णः । व꣡र्चः꣢꣯ । ते꣡न꣢꣯ । मा꣣ । स꣢म् । सृ꣣जामसि ॥६२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वर्चो हिरण्यस्य यद्वा वर्चो गवामुत । सत्यस्य ब्रह्मणो वर्चस्तेन मा सꣳ सृजामसि ॥६२४


    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वर्चः । हिरण्यस्य । यत् । वा । वर्चः । गवाम् । उत । सत्यस्य । ब्रह्मणः । वर्चः । तेन । मा । सम् । सृजामसि ॥६२४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 624
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में वर्चस् की आकांक्षा की गयी है।

    पदार्थ

    (यत्) जो अनुपम (वर्चः) तेज (हिरण्यस्य) सुवर्ण का होता है, (उत) और (यद् वा) जो अद्भुत (वर्चः) तेज (गवाम्) गौओं का अथवा सूर्य-किरणों का होता है और जो (सत्यस्य ब्रह्मणः) सत्य ज्ञान का (वर्चः) तेज होता है, (तेन) उस तेज से, हम (मा) अपने-आपको (संसृजामसि) संयुक्त करते हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    जो सुवर्ण में रमणीयता और बहुमूल्यता का, गायों में परोपकारिता का, सूर्यकिरणों में प्राणप्रदानता का, सत्य वेदज्ञान में शुद्धता का तेज होता है, वह तेज मनुष्यों को भी प्राप्त करना चाहिए ॥१०॥

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    पदार्थ

    (हिरण्यस्य यत्-वर्चः) सोने का जो तेज—सौन्दर्यरूप है “हिरण्यं हिरण्यनाम” [निघं॰ १.३] “ह्रियते जनाज्जनम्” [निरु॰ २.१०] “सुवर्णे यद् वर्चो मयि” [शां॰ १२.१] (यत्-वा) और जो (गवाम्-उत) सूर्यकिरणों का वर्च—तेज चमकरूप है “सूर्यस्य वर्चसा वर्चस्वी भूयासम्” [काठ॰ ५.५] तथा वेदवाणियों का वर्च—तेज—ज्ञानरूप है “गौः-वाङ्नाम” [निघं॰ १.११] “गोषु यद्वर्चो मयि” [शांखा॰ १२.१] (सत्यस्य ब्रह्मणः-वर्चः) सत्यस्वरूप परमात्मा का जो वर्च—तेज ब्रह्मानन्दरूप है (तेन मा संसृजामसि) उससे मैं अपने को संसृष्ट करूँ—संस्कृत करूँ, सुभूषित करूँ “अस्मदो द्वयोश्च” [अष्टा॰ २.२.५९] ‘धूयेक वचने बहुवचनम्’।

    भावार्थ

    सोने के तेज—सौन्दर्य, सूर्यकिरणों के तेज—प्रकाश, वेदवचनों के तेज—ज्ञान, सत्यस्वरूप परमात्मा के तेज—ब्रह्मानन्द से मैं उपासक अपने को संस्कृत एवं सुभूषित करूँ। मेरे शरीर में, मेरे मस्तिष्क में, मेरे मन में, मेरे आत्मा में क्रमशः स्वास्थ्य सौन्दर्य, प्रकाश, ज्ञान, ब्रह्मानन्द प्राप्त हो॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपास्य परमात्मदेव वाला उपासक)॥ देवता—आत्मा (स्वात्मा और परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    वर्चस् की प्राप्ति

    पदार्थ

    हे प्रभो! (यत्) = जो (वर्च:) = तेज (हिरण्यस्य) = वीर्यशक्ति का है (तेन) = उससे (मा) = मुझे (संसृजामसि) = संयुक्त कीजिए। यह शक्ति रोगों को दूर कर रमणीयता को प्राप्त कराने से सचमुच 'हिरण्य' है और वस्तुतः यही मूलशक्ति है - इसी पर अन्य शक्तियाँ निर्भर करती हैं। (वा) = और (यत्) = जो (वर्चः) = शक्ति (गवाम्) = इन्द्रियों की है, उससे मुझे युक्त कीजिए। मेरी एक - एक इन्द्रिय आजीवन सशक्त बनी रहे। अपने-अपने कार्यों को करने में इन्द्रियों की शक्ति अन्त तक ठीक बनी रहे। संक्षेप में–शरीर नीरोग हो और इन्द्रियाँ सबल (उत) = शरीर व इन्द्रियों की शक्ति के साथ जो (सत्यस्य) = सत्य का तेज है, वह मेरे मन को सबल बनाये | (ब्रह्मणः वर्चः) = ज्ञान का तेज मेरे विज्ञानमयकोश को उज्ज्वल करे।

    गत मन्त्र में प्रभु के स्तोता का उल्लेख था । वह अपने जीवन को जिन वर्चस् व तेजों से अलंकृत करता है, उनका वर्णन प्रस्तुत मन्त्र में है। 'अनुष्टुप् छन्द के परिणामस्वरूप ही यह 'वामदेव गोतम' अपने सब शोकों को समाप्त [जवच] करनेवाला होता है। 'शरीर नीरोग है, इन्द्रियाँ शक्तिशाली हैं, शक्ति के द्वारा मन पवित्र हो गया है और ज्ञान से मस्तिष्क उज्ज्वल है, इससे अधिक और चाहिए ही क्या?

    भावार्थ

    मुझे शक्ति व इन्द्रियों की संसिक्तता के साथ सत्य व ज्ञान का नेत्र प्राप्त हो । 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा०  = ( हिरण्यस्य ) = हरणशील मन, सुवर्ण या सूर्य का ( यद् वर्च: ) = जो बल, तेज है ( उत वा ) = और ( यत् ) = जो ( वर्च: ) = तेज, बल ( गवां ) = इन्द्रियों का या किरणों का है और जो ( वर्चः ) = तेज ( सत्यस्य ) = सत्यस्वरूप ( ब्रह्मणः ) = वेद का है ( तेन ) = उससे  हम ( मा ) = अपने आत्मा को ( संसृजामसि ) = युक्त  करें । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वामदेव:।

    देवता - आत्मा ।

    छन्दः - अनुष्टुप्।

    स्वरः - गान्धारः। 

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    विषय

    मैं धनवान्, विद्यावान् एवं ब्रह्मविद् बनूं

    शब्दार्थ

    (हिरण्यस्य) सुवर्ण, वीर्य, सूर्य का (यत्) जो (वर्चः) तेज है, कान्ति है (उत वा) और (गवाम् ) गौवों में, इन्द्रियों में विद्या में (यत् वर्चः) जो तेज है, जो बल और शक्ति है (सत्यस्य) सत्यस्वरूप (ब्राह्मणः) परमेश्वर का, वेद का जो (वर्च:) तेज है (तेन) उस तेज से तू (मा) अपने आत्मा को (संसृजामसि) युक्त कर ।

    भावार्थ

    मन्त्र का एक-एक पद सुन्दर सन्देश दे रहा है - १. हिरण्य के प्रसिद्ध अर्थ हैं सुवर्ण, वीर्य, और सूर्य, अतः मन्त्र का भाव हुआ - मैं धनों का स्वामी बनूँ, मैं वीर्यवान् और शक्तिशाली बनूं, मैं सूर्य की भाँति तेजयुक्त बनूँ । जैसे सूर्य अन्धकार का विनाश करता है उसी प्रकार मैं भी अविद्या अन्धकार का नाशक बनूँ । २. मुझे गौओं का तेज प्राप्त हो । मेरी इन्द्रियाँ तेजस्वी हों । मेरी इन्द्रियाँ विषय-भोगों में फँसकर क्षीण न हों। मुझे विद्या का तेज प्राप्त हो । मैं नाना विद्याओं को प्राप्त कर विद्वान् बनूँ । ३. परमेश्वर का तेज मुझे प्राप्त हो । ईश्वर के गुणों को जीवन में धारणा करता हुआ मैं भी ब्रह्मवित् बनने का प्रयत्न करूँ । ईश्वर न्यायकारी है, मैं भी किसी के साथ अन्याय न करूँ । ईश्वर दयालु है, मैं भी प्राणिमात्र के साथ दया का व्यवहार करूँ। मैं सद्गुणों को अपने जीवन में धारण करता हुआ ब्रह्मवित बनूं । ४. वेद का अध्ययन करते हुए, वेद के रहस्यों का अनुशीलन और परिशीलन करते हुए मैं वेद का ज्ञाता बनने का प्रयत्न करूँ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ आत्मनः आशीः। वर्चः आकाङ्क्षते।

    पदार्थः

    (यद्) अनुपमम् (वर्चः) तेजः (हिरण्यस्य) सुवर्णस्य भवति, (उत) अपि च (यद् वा) यद् अद्भुतम् (वर्चः) तेजः (गवाम्) धेनूनां सूर्यदीधितीनां वा भवति, यच्च (सत्यस्य ब्रह्मणः) सत्यस्य ज्ञानस्य (वर्चः) तेजः भवति (तेन) वर्चसा, वयम् (मा) अस्मान्। अत्र व्यत्ययेन (नः) इत्यस्य स्थाने मा इत्येकवचनप्रयोगः। (संसृजामसि) संयुक्तान् कुर्मः। सृज विसर्गे, ‘इदन्तो मसि। अ० ७।१।४६’ इति मस इदन्तत्वम् ॥१०॥

    भावार्थः

    यद् हिरण्ये रमणीयत्वरूपं बहुमूल्यत्वरूपं च, धेनुषु परोपकारित्वरूपं, सूर्यरश्मिषु प्राणप्रदानत्वरूपं, सत्ये वेदज्ञाने च शुद्धत्वरूपं तेजो भवति तत्तेजो मनुष्यैरपि प्राप्तव्यम् ॥१०॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let us equip our soul with the dignity of gold, the dignity of knowledge and action, and the dignity of the Veda and God.

    Translator Comment

    It is a prayer to become rich, learned, active, scholar of the Vedas, and devotees of God.

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    Meaning

    Give us the glory that is in the golden sun, the lustrous vigour that is in the radiant rays, and recreate and rejuvenate us with that light and splendour which abides in the eternal truth and sublimity of Divinity.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हिरण्यस्य यत् वर्चः) સોનાનું જે તેજ-સૌંદર્યરૂપ છે (यत् वा) અને જે (गवाम् उत) સૂર્યકિરણોનું વર્ચ-તેજ ચમકરૂપ છે તથા વેદ-વાણીઓનું વર્ચ-જ્ઞાનરૂપ છે (सत्यस्य ब्रह्मणः वर्चः) સત્યસ્વરૂપ પરમાત્માનું જે વર્ચ-તેજ બ્રહ્માનંદરૂપ છે (तेन मा संसृजामसि) તેથી હું પોતાને સંસૃષ્ટ કરું-સંસ્કૃત કરું, સારી રીતે અલંકૃત કરું. (૧૦)         
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સોનાનું તેજ-ચળક-સૌદર્ય, સૂર્ય કિરણોનું તેજ-પ્રકાશ, વેદવચનોનું તેજ-જ્ઞાન, સત્યસ્વરૂપ પરમાત્માનું તેજ-બ્રહ્માનંદ દ્વારા હું ઉપાસક મને સંસ્કૃત અને સુભૂષિત-અલંકૃત કરું. મારા શરીરમાં મસ્તિષ્કમાં, મનમાં, આત્મામાં ક્રમશઃ સ્વાસ્થ્ય સૌન્દર્ય, પ્રકાશ, જ્ઞાન, બ્રહ્માનંદ પ્રાપ્ત કરું. (૧૦)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اِیشور کا تیج، سچائی کا نُور اورسونے کی چمک ہم میں ہو!

    Lafzi Maana

    سونے کی چمک، گئوؤں، سُورج کی کِرنوں، وید بانیوں کی روشنی اور عظیم العظیم پرماتما، خداوند تعالےٰ کی سچائیوں کا تیج (علمِ عرفان کا نُور) مجھ میں اور ہم سب میں سدا رہے، جس سے ہم گئوؤں کی طرح گیان دُودھ امرت سب کو پلاتے رہیں۔ وید بانیوں کی طرح دھرم کا اُپدیش کرتے رہیں اور سچائی کے مبنع پرمیشور کی طرح سچائی کے پرستار ہوں!

    Tashree

    سونے کے چمک، سُورج کی دمک، ویدوں کے گیان سے جُڑے رہیں، گئوؤں کا امرت دُودھ بہا، سچ کا پرچار ہم کیا کریں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सुवर्णात रमणीयतेचे - मौलिकतेचे, गाईमध्ये परोपकारितेचे, सूर्यकिरणात प्राणप्रदानतेचे, सत्य वेदज्ञानात शुद्धतेचे जे तेज असते, ते तेज माणसांनी प्राप्त केले पाहिजे ॥१०॥

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    विषय

    स्वतःसाठी वर्चस्व वा तेन याची आकांक्षा

    शब्दार्थ

    (उपासक म्हणत आहेत) (हिरण्यम्) स्वणाचे जे अनुपम (वर्चः) तेज (चमक, दीप्ती) असते, (उत) आणि (गवाम्) गायींचे वा सूर्यकिरणांचे (यत् वा) जे अद्भुत (वर्चः) तेज असते, तसेच (सत्यस्य ब्रह्मणः) सत्य ज्ञानाचे जे (वर्चः) तेज असते (तेन) त्या तेजाने आम्ही (मा) स्वतःला (संसृजामसि) संयुक्त करीत आहोत.।।१०।।

    भावार्थ

    सुवर्णामधे जे रमणीयत्व वा बहुमूल्यत्व असते, गायीमधे जी परोपकार-भावना असते, सूर्य किरणांत जी प्राणदानशक्ती असते आणि वेदज्ञानामदे शुद्धतेचे जे तेज असते, ते तेज मनुष्यांनीही धारण केला पाहिजे. (मनुष्यांनी तेजस्वी, वर्चस्वी असावे) ।।१०।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே | ரமணீயமாய் விளங்கப் பேசுபவனே! சத்துரு ஸம்ஹார பலத்தை எங்களுக்கு அளிக்கவும்! இந்த மகத்தான பலத்தின் ஈசன் நீயாகும்.

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